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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
वह स्वप्रतिष्ठित है, किसी अन्य पर आधारित नहीं है। उसके बीच में यह लोक अवस्थित है जिसका सर्वज्ञ ने वर्णन किया है। वह स्थिति - ध्रुवता - उत्पत्ति तथा व्ययक्षय युक्त है, चेतन-अचेतन पदार्थों से परिव्याप्त है, अनादि है । किसी के द्वारा कृत या रचित नहीं है। वह लोक ऊर्ध्व, मध्य एवं अधः भाग से तीन भुवनों को धारण करता है । इसलिए सूत्रवेत्ताओं ने इसको त्रैलोक्य कहा है। 92
इस प्रकार लोक के विविधता पूर्ण स्वरूप एवं तद्गत विभिन्नता पूर्ण पदार्थों पर चिन्तन को टिकाना, एकाग्र करना इस ध्यान के अन्तर्गत है । इस ध्यान से समग्र विश्व का अस्तित्वबोध होता है। विभिन्न स्थितियों में पुण्य-पापात्मक, सुखदुःखात्मक स्थितियों में विद्यमान प्राणियों के अस्तित्व का भी बोध होता है । वस्तुस्वरूप के बोध से आत्मस्वरूप में निमग्न होने का भाव उदित होता है ।
खण्ड: षष्ठ
पिण्डस्थ ध्यान :
साधकों द्वारा सामान्यतः धर्मध्यान की ही प्रयोजनीयता है क्योंकि शुक्ल ध्यान की भूमिका तो तब प्राप्त होती है जब आत्मा गुणस्थान की दृष्टि से उच्चातिउच्च स्थान
प्राप्त करने लगती है । धर्मध्यान के अन्य अपेक्षा से पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रुपातीत चार भेद किये गये हैं। 37वें सर्ग में ग्रन्थकार ने उनका विवेचन किया है।
पिण्डस्थ ध्यान में पिण्डात्मक प्रतीक विशेष को आलम्बन के रूप में स्वीकार किया जाता है। पिण्डस्थ ध्यान की पृथ्वी आदि तत्त्वों के आधार पर पार्थिवी, आग्नेयी, वारुणी, मारुति, तत्त्वरूपवती धारणायें स्वीकार की गयी हैं। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं अपने आत्मस्वरूप के आधार पर नाभि, हृदय आदि में कमल आदि की परिकल्पना, उसमें कर्मों की भावात्मक रूप में परिस्थापना, अग्नि तत्त्व द्वारा कर्मों का अन्ततः कमलादि का तथा काया का भस्मसात् किया जाना, जलाया जाना वैसा होने
बाद बचे हुए, राख हुए अव शेष का वायु द्वारा लोक में इधर-उधर विकीर्ण किया जाना तथा फिर जल द्वारा सबको संप्रवाहित किया जाना, इस प्रकार कर्मनाश की विधा की बड़ी ही मनोरम कल्पना इनमें की गई है, जो पठनीय और मननीय है । तदनन्तर आत्मतत्त्व को प्रतीक के रूप में स्वीकार कर उसके आध्यात्मिक वैभव के प्राकट्य और निखार का परिदर्शन कराया गया है। आगे आचार्य हेमचन्द्र कृत 'योगशास्त्र'
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वही, 36.1-3
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