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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
हैं। भव्यजन रूपी कमलसमूह को विकसित प्रफुल्लित करते हैं। इस शुक्ल ध्यान के परिणाम स्वरूप ज्ञानलक्ष्मी, तपोलक्ष्मी तथा देवरचित समवशरण आदि आत्यन्तिक विभूति उन्हें प्राप्त हो जाती है, वे धर्मचक्रवर्ती हो जाते हैं। इस प्रकार अन्तरंग - बहिरंग, आत्मविभूति युक्त केवली भगवान जगद्वंद्य और सर्व कल्याणकारी तथा लोकत्रय के अधिपति होते हैं। जिनका नाम ग्रहण करने से, स्मरण करने से भव्य जीवों के अनादिकालजनित जन्म ं - मरण आदि रोग लघुत्व पा लेते हैं, घटने- मिटने लगते हैं। 106
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उन्होंने आगे लिखा है कि जब केवली भगवान के मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्म नष्ट हो जाते हैं तब चार अघातिकर्म व्यक्तरूप से अवशिष्ट रहते हैं । सर्वज्ञ, क्षीणकर्मा, केवलज्ञान रूपी ज्योतिर्मय सूर्य सर्वज्ञदेव के जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुष्य अवशिष्ट रहता है तब वे सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति तृतीय ध्यान की अर्हता प्राप्त करते हैं। जो जिनेन्द्र प्रभु छह महीने की आयुष्य शेष रहते हुए केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, वे अवश्य समुद्घात करते हैं, उनके अतिरिक्त जिन्होंने छह महीने से अधिक आयु रहते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया है वे विकल्प से समुद्घात करते हैं अर्थात् करते भी हैं नहीं भी करते हैं। 107
106. वही, 42.30-37
107. वही, 42. 40-42
तत्पश्चात् ग्रन्थकार ने समुद्घात की प्रक्रिया का विशद वर्णन किया है और बताया है कि अचिन्त्य अनिर्वचनीय, वैशिष्ट्य युक्त केवली प्रभु तब बादर काययोग में स्थिति कर बादर वचनयोग और बादर मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं, वे पुन: काययोग को त्याग कर वचनयोग और मनोयोग में स्थिति करते हैं, बादर काययोग को सूक्ष्म करते हैं, फिर सूक्ष्म काययोग में स्थिति कर क्षण मात्र में उसी समय वचनयोग और मनोयोग का निग्रह करते हैं । इस प्रकार वे सूक्ष्मक्रियाध्यान का साक्षात्कार करने योग्य होते हैं । तब सूक्ष्म एक काययोग पर स्थित ध्यान सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति ध्यान का रूप लेता है । तत्पश्चात् अयोगिगुणस्थान के अन्त समय के पहले समय में देवाधिदेव जिनेन्द्र प्रभु के मुक्ति रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में प्रतिबन्धक, विघ्नकारक बहत्तर ( 72 ) कर्मप्रकृतियाँ शीघ्र ही विनष्ट हो जाती हैं। अयोगावस्था प्राप्त परम प्रभु के अयोग गुणस्थान के अन्तिम से पहले समय में जो निर्मल ध्यान निष्पन्न होता है, वह
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खण्ड : षष्ठ
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