________________
आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
विघ्नकारक स्थान हैं, साधक को स्वप्न में भी उनका सेवन नहीं करना चाहिए।65
आचार्य शुभचन्द्र की वर्णनशैली से यह भली भाँति प्रकट होता है कि विघ्ननिवृत्ति की दिशा में वे साधक को जागरूक और सावधान रहने की बार-बार सूचना करते रहे हैं। वे मानव-मन के विज्ञ थे। मानवीय दुर्बलताओं को जानते थे। अनुकूल-प्रतिकूल विघ्नों में किस प्रकार व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाता है, यह समझते थे। इसलिए वैसे विषयों से दूर रहने की वे जहाँ भी प्रसंग आया, विशेष रूप से निषेध की भाषा में प्रेरणा देते रहे। विघ्नों को टालने की प्रबल मानसिकता साधक में सदैव उज्जीवित रहे, उनका यही अभिप्रेत था।
___ अत एव आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यानयोग्य स्थानों की चर्चा करते हुए लिखा है कि सिद्धक्षेत्र जहाँ बड़े बड़े महापुरुष ध्यान कर सिद्धत्व को प्राप्त हुए, पुराणपुरुषों तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने जिन स्थानों को आश्रित कर साधना की, ऐसे पावन स्थल, तीर्थंकरों के कल्याणक स्थान आदि में साधक को ध्यानसाधना का निर्विघ्न अभ्यास करने से ध्यानसिद्धि प्राप्त होती है।
तदनन्तर उन्होंने समुद्रतट, वनभूमि, पर्वतशिखर, नदीतट, कमलान्वित भूखण्ड, प्राकार - नगर का परकोटा, शालवृक्षों के समूह, नदियों के समूह, जल के मध्यवर्ती द्वीप, निरवद्य कोटर, पुरातन वन, श्मशान, पर्वत की जीवादि रहित गुफा इत्यादि स्थानों की चर्चा की है।
उस संबंध में पुन: कहा है कि जहाँ रागादि दोष निरन्तर लघुता को प्राप्त करता जाय, ध्यान के समय साधक को वैसा ही स्थान ग्रहण करना चाहिए।68 आसन :
स्थान चयन के पश्चात् साधक ध्यान हेतु कहाँ स्थित हो, इस संबंध में ग्रन्थकार ने लिखा है- धैर्यशील, आत्म-पराक्रमी साधक समाधि की सिद्धि के लिए 65. वही, 27.34 66. वही, 28-1 67. वही, 28.2-7 68. वही, 28.8
~
~
~
~
~
~~
~~
~~~~~~
34
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org