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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
में ही सहजतया वैसी अनुकूलताएँ प्राप्त हो सकती हैं जिनसे ध्यानयोग की साधना सहज रूप में क्रमश: आगे बढ़ सकती है। वैसी अनुकूलतायें गृहस्थ जीवन में बहुत प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध नहीं होती।
___ आचार्य शुभचन्द्र यह जानते थे कि संसार के सभी लोग वैराग्यप्रसूत संन्यस्त जीवन, मुनिजीवन अपना लें यह संभव नहीं है। किन्तु मुनिजीवन की ओर विशेष जोर देकर प्रेरित करना वे आवश्यक मानते थे।
जैसा ऊपर विवेचन किया गया है कि ग्रंथकार का ध्यानसिद्धि से अभिप्राय परमोत्तम ध्यानावस्था प्राप्त कर लेने से है। आचार्य शुभचन्द्र तो महा कवि थे। विलक्षण शब्द शिल्पी थे, उनके आशय को केवल अभिधा शक्ति से न समझकर लक्षणा व व्यंजना से समझा जाना वांछनीय है।
इस विवेचन का लक्षणालभ्य अभिप्राय यही है कि यदि कोई गृही सम्पूर्णत: ध्यानसिद्धि प्राप्त करना चाहता है तो उसे संसार-त्याग का साहस करना ही होगा, अन्यथा अपने एक जन्म में वह ध्यान की समग्रता को आत्मसात् नहीं कर पायेगा। सामान्य रूप में तो ध्यान का अभ्यास व्यक्ति कर ही सकता है यदि उसकी दृष्टि सम्यक् हो और उसका ज्ञान तदनुरूप हो।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आचार्य हेमचन्द्र का दृष्टिकोण सार्वजनिकता पर विशेष रूप से आधारित है जबकि आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में साधना का असाधारण या उत्कर्ष रूप उद्दिष्ट है।
ध्यान-साधना का सम्बन्ध आत्मशुद्धि, आत्मबल, आत्मपराक्रम, आत्मोत्साह के साथ है। गृहस्थ जीवन में वैसी स्थिति कठिनाई से सध पाती है। अतएव ग्रंथकार ने गृही साधक को ध्यान की उच्चस्तरीय योग्यता का अधिकारी नहीं माना किन्तु मुनित्व स्वीकार कर लेने पर ध्यानसिद्धि का कोई सर्वथा अधिकारी हो जाता है, यह तथ्य भी वे स्वीकार नहीं करते। यदि किसी मुनि में मुनित्व धर्म के सम्पूर्ण लक्षण घटित होते हैं, वह संयम की अनवच्छिन्न साधना में संलग्न रहता है तभी वह वस्तुत: मुनि कहे जाने योग्य है। यह ध्यानसिद्धि का अधिकारी है। यदि संयमपूर्ण पुरुषार्थ एवं आत्मशक्ति उनमें नहीं होती तो वह मुनि कहलाने पर भी ध्यानसिद्धि का अधिकारी
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