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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जैसा कि उन्होंने बताया है कि जो साधक अपने वर्तमान जीवन में साधना को परिपूर्ण नहीं कर पाता, देह त्याग कर देता है, आगामी भव में उसे जन्म से ही योग के संस्कार प्राप्त होते हैं। वह जन्मजात योगी होता है।
___ आचार्य शुभचन्द्र भी यह मानते हैं कि गृहस्थ अवस्था में ध्यान साधना हो ही नहीं सकती, ऐसी बात नहीं है। वे एक प्रबुद्ध जैन सिद्धान्तवेत्ता मनीषी थे। सागार और अनगार साधना पद्धति की सम्पूर्णता और आंशिकता की उपादेयता जानते थे। किन्तु उनकी दृष्टि में ध्यान साधना का अति उत्कृष्ट रूप परिलक्षित था। जिसको प्राप्त करने में अत्यधिक आत्मस्थता की आवश्यकता होती है। सामान्यत: गृही जीवन में वैसी आत्मस्थता उनके अनुसार फलित नहीं हो पाती। यही कारण है कि उन्होंने चौथे अध्याय में इस बात पर बहुत जोर दिया है कि गृहस्थ जीवन में मनुष्य के समक्ष अनेक बाधाएँ विद्यमान होती हैं। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि अनेक सम्बन्धों से वह जुड़ा रहता है। न केवल अपनी ही वरन् अनेक सम्बद्ध जनों की अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं से वह प्रभावित रहता है। इसलिए यह संभव नहीं हो पाता कि वह ध्यानसिद्धि प्राप्त कर सके। इन स्थितियों का ग्रंथकार ने अपनी शैली में अपने शब्दों में विस्तृत वर्णन किया है।
इसी आशय को आचार्य ने चुनौतीपूर्ण शब्दों में यहाँ तक कह डाला है कि आकाश में पुष्प अंकुरित नहीं होता, गधे के सींग नहीं होते कदाचित् वैसा हो भी जाय तो भी गृहस्थावस्था में ध्यान की सिद्धि किसी भी देश या काल में संभव नहीं है।'
यहाँ आचार्य ने ध्यानसिद्धि शब्द का प्रयोग किया है, उस पर गौर करना आवश्यक है। ध्यानसिद्धि की समग्र या परिपूर्ण स्थिति तब आती है, जब व्यक्ति केवल धर्मध्यान तक ही न रहकर शुक्लध्यान तक पहुँच सके। यह सच है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए यह कभी सम्भव नहीं। इतने तीव्र और किसी अपेक्षा से कड़े शब्दों में यों निरूपित किये जाने के पीछे ग्रंथकार का संभवत: ऐसा आशय परिलक्षित होता है कि गृहस्थी में रहने वाले लोग उस ओर की आसक्तियों और आकर्षणों से छूटें। ग्रंथकार का यह निरूपण भी सार्थकता लिये हुए है कि मुनि या संन्यासी के जीवन
यहा आचा
7. 8.
ज्ञानार्णव 4.7-16 वही, 4.17
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