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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
अपने स्वरूप को जरा भी नहीं संभालता । पतन के गर्त में पतित होता जाता है । संसार की क्षणभंगुरता का चित्रण करते हुए उन्होंने लिखा है
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गगननगरकल्पं सङ्गमं वल्लभानाम्, जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनंवा । सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि, क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ॥
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संसार में माता-पिता, भाई, बन्धु, स्त्री आदि प्रियजनों का संगम आकाश में देवरचित या ऐन्द्रजालिक रचित नगर के तुल्य है, ऐसा नगर क्षण भर में निर्मित होता है और क्षण भर में ही नष्ट हो जाता है। यही तत्त्व प्रियजनों के साथ जुड़ा हुआ है । यौवन और धन बादलों की घटाओं के समान हैं, बादल आते हैं और शीघ्र ही विलुप्त हो जाते हैं, यही दशा यौवन और धन की है, ऐसी रोगाक्रान्त स्थितियाँ बनती हैं और युवावस्था में ही व्यक्ति जीर्ण-शीर्ण हो जाता है। ऐसा न हो तो भी ज्योंज्यों समय व्यतीत होता जाता है, यौवन क्षीण होता जाता है, धन-वैभव को भी नष्ट होते देर नहीं लगती। अपने सुहृद्, मित्र, स्नेहीजन, पुत्र और अपना शरीर भी आकाश में चमकती बिजली के जैसे हैं। बिजली चमकती है, उसी क्षण वह विलीन भी हो जाती है। सभी अस्थिर एवं क्षणभंगुर हैं। संसार की यही दशा है ।
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अशरण भावना :
अशरण भावना के सम्बन्ध में भी उन्होंने बड़े ही रोचक और प्रसादयुक्त शब्दों में प्रकाश डाला है और बतलाया है कि मरण आदि से कोई भी किसी को शरण देने में समर्थ नहीं है। उन्होंने बड़े-से-बड़े व्यक्ति की अशरण और असहाय स्थिति का चित्रण करते हुए कहा है :
अस्मिन्नन्तकभोगिवक्त्रविवरे, संहारदंष्ट्राङ्किते, संसुप्तं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम् । प्रत्येकं गिलितोऽस्य निर्दयधियः केनाप्युपायेन वै, नास्मान्निःसरणं तवार्य कथमप्यत्यक्षबोधं बिना ॥
वही, अनित्य भावना 2.47, पृ. 19
खण्ड: षष्ठ
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