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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
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जिनके भ्रूभंग मात्र से, क्रोधपूर्वक भौंहे चढ़ाने मात्र से ब्रह्मलोक पर्यन्त यह जगत् भयभीत हो जाता है, पृथ्वी पर जिनके भारी कदम पड़ते ही पर्वत तक खण्डखण्ड हो जाते हैं, ऐसे-ऐसे योद्धाओं को भी इस काल ने निगल लिया है जिनकी अब कथा मात्र ही शेष रह गयी है। फिर भी बुद्धिहीन प्राणी अपने जीवन की बड़ी भारी आशा लिये रहता है। यह उसकी कितनी बड़ी भूल है, वह क्यों नहीं समझता। उसे मौत से बचने के लिए कोई शरण या आश्रय दे नहीं सकता।15 सिार भावना :
संसार भावना का चित्रण करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह संसार एक समुद्र के तुल्य है। गतिचतुष्टय एक बहुत बड़े घूमते हुए जलावर्त के सदृश है। मुख रूपी भीषण बड़वानल उसमें प्रज्ज्वलित है, ऐसे जगत् में ये दीन, अनाथ प्राणी भटकते रहते हैं। अपनी-अपनी कर्म रूपी बेड़ियों से जकड़े हुए स्थावर एवं त्रस कार्यों में संचरण करते हुए मरते रहते हैं, उत्पन्न होते रहते हैं।16
उन्होंने आगे कहा है कि जिस प्रकार नाट्यशाला या रंगमंच पर नृत्य और अभिनय करने वाला नट या अभिनेता भिन्न-भिन्न प्रकार के रूप, स्वांग धारण करता है उसी प्रकार यह जीव निरन्तर भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर धारण करता रहता है। यह संसार का स्वरूप है।17 कत्व भावना :
प्राणी नितान्त एकाकी है। वस्तुत: कोई उसका साथी नहीं है। एकत्व भावना में सन्निहित इस आशय को ग्रंथकार ने संक्षेप में व्याख्यात किया है। उन्होंने कहा है कि जिस समय यह जीव वीतविभ्रम-भ्रान्तिरहित होकर इस भाव को अपनायेगा कि मैं एकाकी हूँ यह सोचकर आत्मस्वरूप में अवस्थित होगा, तभी उसका जन्म-सम्बन्ध भव-भ्रमण मिट पायेगा।18
15. वही, अशरण भावना ॐ पृ. 23 16. वही, संसार भावना, 2.1-2, पृ. 23-24 17. वही, संसार भावना, 2.8, पृ. 24 18. वही, एकत्व भावना, 2-10 ~~~~~~~~~~~~~~~ 15
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