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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
___ चारों ही ध्यानों के विवेचन के पश्चात लेखक ने ध्यान का फल बताया है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार ध्यान से निश्चित रूप से मानसिक, कायिक योगों का तपन, शोषण और भेदन होता है, उसी प्रकार ध्यान योगी के कर्मों का भी तपन, शोषण और भेदन होता है।32
यहाँ रचनाकार ने ध्यान की उज्ज्वल उत्कृष्ट स्थिति के सधते जाने पर क्या घटित होता है, इस पर प्रकाश डाला है।
ज्यों-ज्यों ध्यानयोगी अन्तर्जगत् में, आत्मस्वरूप में लीन होने लगता है, अन्तरात्म भाव से परमात्म-भाव की ओर अग्रसर होता जाता है तो मानसिक और कायिक योग, जो कर्म पुद्गलों के आकर्षण के उपादान हैं शोषित, अपगत, विनष्ट
और क्षीण होते जाते हैं। कर्मक्षय तो आत्मा का परम लक्ष्य है जिसे साधने के लिए ध्यान का अभ्यास किया जाता है।
___ आगमों के पश्चात् ध्यानविषयक यह शतक पहली स्वतंत्र रचना है जिसमें ध्यान के चारों भेद, उनके कारण, परिचायक लिंग, ध्यान के स्वामी, धर्मध्यान के अधिकारी, आराधक, तदनुरूप समुचित स्थान, उपयुक्त काल, अपेक्षित आसन आदि की नियतता - अनियतता, धर्मध्यान के आलम्बन, धर्मध्यान - शुक्ल ध्यान का क्रम, धर्मध्यानगत ध्यातव्य विषय, उनके भेदों की व्याख्या, मोक्ष का स्वरूप, चतुर्विध शुक्लध्यान के ध्याता, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में संभावित लेश्यायें आदि पर प्रकाश डाला गया है।
ध्यानयोग विषयक उत्तरवर्ती साहित्य के विकास में नि:संदेह यह शतक, एक अपेक्षा आधारभूत कहा जा सकता है। दूसरी विशेषता यह है कि यह जैन परम्परा द्वारा स्वीकृत प्राकृत भाषा में रचा गया है, जो आर्ष-वाणी कही जाती है। आचार्य पूज्यपाद :
आचार्य पूज्यपाद दिगम्बर जैन परम्परा के अत्यन्त प्रख्यात मनीषी, महान् ग्रन्थकार और धर्म प्रभावक महापुरुष थे। उनका समय विक्रम की छठी शताब्दी माना जाता है। उनका दीक्षा नाम देवनंदी था। तत्पश्चात् आप जिनेन्द्रबुद्धि के रूप में विख्यात 32. वही, गा. 99
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