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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' आदि अन्यान्य ग्रन्थों में भी योग की चर्चा की है। उन्होंने विभिन्न रूपों में जैन साधना क्रम को योग की पद्धति से प्रतिपादित किया है।
उन्होंने 'योगदृष्टिसमुच्चय' में जैनयोगसाधना का विस्तार से वर्णन किया है। नाना दृष्टियों के विवेचन से पूर्व उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग के रूप में योग के तीन भेदों का विवेचन किया है।
किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने के पूर्व व्यक्ति के मन में सबसे पहले तद्विषयक इच्छा उत्पन्न होती है। इच्छा ही जब तीव्रता और उद्दीप्तता प्राप्त कर लेती है तब वह क्रियात्मक रूप में परिणत होती है। योग के सम्बन्ध में भी आचार्य हरिभद्र का ऐसा ही चिन्तन रहा। उन्होंने यह आवश्यक माना कि सबसे पहले साधक में साधना के प्रति तीव्रतम इच्छा उत्पन्न होनी चाहिए। इच्छा योग:
इच्छा योग का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि जो साधक आत्मसाक्षात्कार की इच्छा लिये रहता है, जिसने आगमों में प्ररूपित अर्थ का, शास्त्रीय सिद्धान्तों का श्रवण किया है वैसा पुरुष इच्छा के प्राबल्य से योगमार्ग पर आरूढ़ होता है, किन्तु अपने आप में प्रमाद की विद्यमानता के कारण उसका योगमूलक उपक्रम विफल या अपूर्ण रहता है, उसे इच्छायोग कहा जाता है।
ग्रन्थकार ने यहाँ तीन बातों पर प्रकाश डाला है कि एक ऐसा साधक जिसके मन में धर्म की आराधना, योग की साधना की अत्यधिक इच्छा है, जो शास्त्रों के अध्ययन का भी अभ्यासी है, किन्तु उसके मन में प्रमाद विद्यमान है; वह अध्यात्मयोग की आराधना में लगता है तो उसे योगसिद्धि तो नहीं हो पाती, किन्तु इच्छा की विद्यमानता के कारण उसे योग के क्षेत्र से बहिर्भूत भी नहीं माना जाता। उसका उपक्रम इच्छायोग कहा जाता है। यह योगसाधना की पहली कोटि है।
शास्त्रयोग:
शास्त्रयोग का विश्लेषण करते हुए उन्होंने व्यक्त किया है कि जो साधक प्रमाद 1. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक - 2, पृ. 1 2. वही, श्लोक - 3, पृ. 1
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