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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
में गर्भित अर्थ के अवबोध का उद्यम-प्रयत्न है। ऐसा अनुमेय है कि योगसम्मत अन्त:प्रेरक शब्दविशेष का आशय अवबुद्ध करने का अन्त:प्रयत्न अन्तरात्मा में चलते रहने का कोई विशेष क्रम मान्य रहा हो जिससे साधना में संस्मृति का उदय हो। आलम्बन योग का अभिप्राय ध्यान में बाह्य आलम्बन या प्रतीक का आधार लेकर अभ्यासरत होना है। अनालम्बनयोग का अभिप्राय ध्यान में मूर्त पदार्थों का आलम्बन या सहारा न लेना है। यह ध्यान निर्विकल्पक, चिन्मय या समाधिमय होता है। इन पाँचों में से पहले और दूसरे को जो क्रियायोग कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि इन दोनों में क्रिया की प्रधानता रहती है। आगे के तीनों का संबंध चिन्तन एवं एकाग्रता के साथ है जो ज्ञान के विषय हैं। इनमें आलम्बन और अनालम्बन ये दोनों ज्ञानप्रसूत धर्मसाधना के परिचायक हैं।
लेखक ने इन पाँच में से प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि के रूप में चार-चार भेद किये हैं जो इनके अधिकाधिक विकास के द्योतक हैं।47
इस प्रकार योग के बीस भेद हो जाते हैं। जिनके स्थानादि योग होता है, जो उसमें अभ्यासरत रहते हैं उनका अनुष्ठान सदनुष्ठान है प्रेम-प्रीति, भक्ति, आगम तथा असंगता के रूप में उसके चार भेद हैं इन भेदों से अनुष्ठान की उत्तरोत्तर पवित्रता दिव्यता प्रतिफलित होती है।
जब साधक की योगाभ्यास में इतनी अधिक प्रीति उत्पन्न हो जाय कि उसे अन्य समस्त क्रियाओं की अपेक्षा उसी क्रिया में अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक भाव से संलग्न रहने की मानसिकता बनी रहे तो उसे प्रीति अनुष्ठान कहा जाता है। साधक का
आलम्बनात्मक विषय के प्रति अत्यन्त आदर बुद्धिपूर्वक तीव्रोत्साह के साथ संलग्न रहना, तत्संबंधी क्रिया में प्रयत्नशील रहना भक्ति अनुष्ठान है। आगम या शास्त्र वचन की ओर दृष्टि रखते हुए योगी का साधनानुरूप समुचित प्रवृत्तिशील होना आगमअनुष्ठान है। जब योगी के संस्कार साधना में दृढ़तापूर्वक समाहित हो जाँय या उनमें तन्मय हो जाँय और वैसा करते समय शास्त्र का स्मरण करने की कोई अपेक्षा 47. योगविंशिका - 4, पृ. 269 48. वही, 17, पृ. 273 49. योग विंशिका, 18, पृ. 273 ~~~~~~~~~~~~~~ 33 ~~~~~
सदा .
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