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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
कर सकता है, स्फूर्तिशील बन सकता है। योगबिन्दु :
__'योगबिन्दु' आचार्य हरिभद्र की संस्कृत में दूसरी कृति है। इसकी रचना 527 श्लोकों में हुई है। इसमें योग का स्वरूप, भेद, उसका माहात्म्य, अध्यात्म, लोक, प्रकृति, पूर्वसेवा, असदनुष्ठान - सदनुष्ठान का स्वरूप, भाग्य तथा पुरुषार्थ, ध्यान, समता, सास्रव एवं अनास्रव योग, जप, प्रतिक्रमण इत्यादि विषयों का जिनका योग से संबंध है, विश्लेषण हुआ है। योग के मुख्य अंग ध्यान के साथ इनका किसीन- किसी रूप में संबंध है।
ग्रन्थकार ने योग को साधक के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग माना है। योगा का माहात्म्य :
उन्होंने योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि योग श्रेष्ठ कल्पवृक्ष एवं उत्तम चिन्तामणि रत्न के समान है। जिन्हें कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि रत्न प्राप्त होता है उनकी सभी इच्छाएँ तत्क्षण परिपूर्ण हो जाती हैं, उसी प्रकार जो साधक योग को साध लेता है वह आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से आप्तकाम हो जाता है। योग सब धर्मों में, धर्माराधनाओं में प्रमुखता लिये हुए है। यह सिद्धि, मुक्ति को गृहीत करने वाला है, अर्थात् मोक्ष का अनन्य हेतु है। जन्म-आवागमन रूप बीज के लिए, उसे जला डालने के लिए योग अग्नि के समान है। यह वार्धक्य का भी वार्धक्य है अर्थात् योगी कभी वृद्ध नहीं होता, वृद्धत्व से उत्पन्न होने वाला अनुत्साह, नैराश्य, दौर्बल्य, योगी में व्याप्त नहीं होता। दुःखों को मिटाने के लिए यह राजयक्ष्मा रोग के सदृश है और मृत्यु की भी मृत्यु है अर्थात् योगी की कभी मृत्यु नहीं होती, क्योंकि योग उसकी आत्मा को मोक्ष के साथ योजित करदेता है, जोड़ देता है।
योग रूपी कवच के द्वारा जब साधक अपने चित्त को आवत कर लेता है तब तप को भी छिन्न - भिन्न कर देने वाले कामदेव के तीक्ष्ण बाण उससे टकराकर कुंठित हो जाते हैं, शक्तिशून्य और निष्प्राण हो जाते हैं। योग रूप दो अक्षर श्रवण करने वाले के पापों का विध्वंस हो जाता है।
जिस प्रकार अग्नि के योग से, अग्नि में तपाने से मलिनता युक्त स्वर्ण शुद्ध ~~~~~~~~~~~~~~ 35 ~~~~~~~~~~~~~~~
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