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आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
ही न रहे, साधना जीवन में एकरसता को प्राप्त कर ले तब उसे असंगानुष्ठान कहा जाता है
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सालम्बन तथा
उपर्युक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के ये चार - चार भेद होते हैं । इस प्रकार योग के कुल अस्सी भेद हो जाते हैं । ग्रन्थकार ने प्रस्तुत कृति के अन्त में लिखा है कि इसमें जो विवेचन किया गया है उसके अनुसार ध्यान के दो भेद हैं अनालम्बन। आलम्बन भी मूर्त तथा अमूर्त के रूप में दो प्रकार का है। मूर्त स्थूल एवं इन्द्रियगम्य है। अमूर्त सूक्ष्म होता है इसलिए वह इन्द्रियगम्य नहीं होता । सालम्बन ध्यान का अभ्यास मूर्त आलम्बन के आधार पर किया जाता है ।
खण्ड : पंचम
अनलम्बन ध्यान में अमूर्त आलम्बन होता है । मुक्तात्मा, सिद्ध परमेश्वर अमूर्त आलम्बन है। उनको ध्येय मानकर किया गया ध्यान, उनके गुणों से अनुभावित तथा सूक्ष्म इन्द्रियातीत होने से अनालम्बन योग कहा जाता है।
जब यह योग सिद्ध हो जाता है तब साधक मोहरूपी सागर को तैर जाता है। साधक क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है। परिणामस्वरूप उसके केवलज्ञान उद्भासित
ता है। उसके मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्ति मात्र के अभाव रूप योग की सिद्धि हो जाती है। योगी अपनी साधना का अन्तिम लक्ष्य परम निर्वाण प्राप्त कर लेता है। 50
आचार्य हरिभद्र ने 'योगविंशिका' में 'मोक्खेण जोयणाओ जोगो' लिख कर इस अमूल्य कृति का प्रारम्भ किया है जो अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में योग की व्यापक परिभाषा है।
उसके अनन्तर भेदोपभेदों का निरूपण किया है। योग द्वारा अयोग रूप परम साध्य को प्राप्त करने के रूप में इस कृति का पर्यवसान किया है। मात्र बीस गाथाओं में उन्होंने जितना जो कहा है वह गागर में सागर भरने जैसा है । 'योगविंशिका' में
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स्थान, ऊर्ण आदि के रूप में जो विवेचन उन्होंने किया है वह इतना सूक्ष्म और गंभीर है कि उस पर स्वतंत्र रूप से शोध करने की आवश्यकता है। लेखक ने योग को जो अस्सी भेदों में विभक्त किया है वह उनकी सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता, सिद्धि एवं प्रीति, भक्ति, आगम और असंगता के आधार पर उन्होंने भेदों की यह जो संरचना की है उसे हृदयंगम कर साधक योगसाधना में बड़ा सम्बल प्राप्त 50. योग विंशिका, 19-20, पृ. 274-275
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