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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
हुए। क्योंकि आपका बुद्धिप्रकर्ष बड़ा विलक्षण था। उनके चरणारविन्द देवताओं द्वारा भी पूजित थे। अत: ज्ञानीजनों ने उन्हें पूज्यपाद नाम से विभूषित किया। इनके द्वारा रचा गया 'जैनेन्द्र व्याकरण' जैनों का पहला संस्कृत व्याकरण है। इसके सूत्र बहुत सरल एवं संज्ञाएँ संक्षिप्त हैं। 'मुग्धबोध' के रचयिता पं. भोपदेव ने आठ प्रमुख संस्कृत व्याकरणों में 'जैनेन्द्र व्याकरण' का भी उल्लेख किया है। इन्होंने 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका की रचना की। 'समाधितंत्र', 'इष्टोपदेश', 'दशभक्ति' नामक ग्रंथ इनके द्वारा रचे गये। वैद्यक, आयुर्वेद पर भी इन्होंने रचना की। दक्षिण का गंगवंशीय राजा दुर्विनीत इनका अनुयायी था।
आचार्य अकलंक ने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक', आचार्य विद्यानन्द ने 'तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक' में इनकी ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका के पदों का अनुसरण करते हुए इनके प्रति बड़ी श्रद्धा व्यक्त की है।
इनके द्वारा रचित इष्टोपदेश 51 पद्यों का एक छोटा सा ग्रंथ है। इष्ट का अर्थ - अभीप्सित या वांछित है। इसमें आत्मा के लिए वांछित, आत्मोन्नति में सहायक उपदेश समाविष्ट है। पंडित आशाधर ने इस पर संस्कृत में टीका लिखी है।
'समाधितंत्र' आत्मसमाधि हेतु उद्बोधक एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक कृति है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रंथकार ने अपने जीवन के अन्तिम भाग में इसकी रचना की। जब इनकी प्रवृत्तियाँ बाह्य विषयों से सर्वथा हटकर अन्तर्मुखी हो गई थीं। 'गीता' की भाषा में आप स्थितिप्रज्ञ जैसी स्थिति प्राप्त कर चुके थे। इस ग्रंथ में थोड़े ही शब्दों द्वारा सूत्र रूप में अपने विषय का जो प्रतिपादन किया गया है। वह वास्तव में सुन्दर है। प्रतिपादन शैली सुगम एवं हृदयस्पर्शी है। भाषा-सौष्ठव और भावसौकुमार्य बहुत ही उत्कृष्ट है। इस ग्रंथ में शुद्ध आत्मा के वर्णन की मुख्यता है। ग्रंथकार ने आगम, नियुक्ति और स्वानुभव के आधार पर इस ग्रंथ का प्रणयन किया है। ग्रंथ के पढ़ने से ज्ञात होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द जैसे प्राचीन महापुरुषों के वाक्यों का बहुत कुछ अनुसरण किया गया है। इष्टोपदेश :
एक प्रश्न उठाते हुए इन्होंने ध्यान का निरूपण प्रारम्भ किया - लिखा है कि ~~~~~~~~~~~~~~~ 27
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