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खण्ड : चतुर्थ
परिवर्तन योग संक्रान्ति है । इस प्रकार संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। अत: उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है । इस अपेक्षा से उसे ध्यान कहने में आपत्ति नहीं है । इस प्रकार से मन की वृत्ति का बदलते रहना, विचार कहलाता है । वितर्क श्रुत - ज्ञान को कहा जाता है। प्रथम शुक्लध्यान में वितर्क और विचार दोनों होते हैं और इनमें चित्तवृत्ति परिवर्तित होती रहती है।
एकत्व वितर्क अविचार :
शुक्ल ध्यान के इस दूसरे भेद में वितर्क यानी श्रुत का आलम्बन तो होता है, किन्तु विचार अर्थात् चित्तवृत्ति में परिवर्तन नहीं होता । किसी भी एक पर्याय पर चित्तवृत्ति निष्कंप दीपशिखा के समान स्थिर हो जाती है । अतः मन निश्चल और शांत बन जाता है। परिणामस्वरूप कर्मों के आवरण शीघ्र ही दूर होकर अरिहंत दशा प्रगट होती है।
एक ही ध्येय पर चित्तवृत्ति के स्थिर रहने के कारण इसे एकत्ववितर्कशुक्ल ध्यान कहा गया है। इसमें चित्त की वृत्ति अभेदप्रधान होती है।
प्रथम दोनों शुक्लध्यानों का आश्रय एक है अर्थात् उन दोनों का आरम्भ पूर्वज्ञानधारी आत्मा द्वारा होता है । इसीलिए ये दोनों ध्यान वितर्क - श्रुतज्ञान सहित हैं। दोनों के वितर्क का साम्य होने पर भी यह वैषम्य है कि पहले में पृथक्त्व (भेद ) है, जबकि दूसरे में एकत्व (अभेद) है। इसी प्रकार पहले में विचार संक्रम है। जबकि दूसरे में विचार नहीं है। इसी कारण इन दोनों ध्यानों के नाम क्रमशः पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क निर्विचार है ।
क्ष्मक्रियाप्रतिपाती :
जब सर्वज्ञ भगवान योगनिरोध के क्रम में अन्ततः सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक देते हैं तब यह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है, क्योंकि उसमें श्वास- उच्छ्वास के समान सूक्ष्म क्रिया ही शेष रह जाती है और उससे पतन भी आशंकित नहीं है।
परतक्रियानिवृत्ति :
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जब शरीर की श्वास
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प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी बन्द हो जाती हैं
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