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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
यह लोक उत्पाद-व्यय - ध्रौव्यात्मक है। लोक के संस्थान, अवस्थिति या आकृति / आकार, उसकी रचना आदि विषय का जिस ध्यान में चिंतन किया जाता है उसे संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जाता है।
संस्थानविचय ध्यान का फल है - इस लोक में नाना प्रकार के द्रव्य हैं। उनमें अनंत पर्याय परिवर्तित - नवाभिनव रूप में परिणत होते जाते हैं, पुराने मिटते जाते हैं, नये उत्पन्न होते जाते हैं । उन पर मनन, एकाग्र चिंतन करने से मन जो निरन्तर उनसे जुड़ा रहता है, राग-द्वेष आदि से आकुल नहीं होता । इस ओर से अनासक्त बनता जाता है। जागतिक पर्यायों का, जो अनित्य हैं, ध्यान करने से जगत् के अनित्यत्व का भान होता है, योगोन्मुख साधक का, आत्मरमण का भाव जागृत होता है ।
धर्मध्यान द्वारा वैराग्यप्राप्ति होती है। यह ध्यान पर - पदार्थों पर अनासक्ति और आत्म-सुख में 'अनुराग तत्परता उजागर करता है। उससे जो आत्मसौख्य / आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त होता है उसे केवल स्वयं के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।
अधिकारी :
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धर्मध्यान के अधिकारी के विषय में तत्त्वार्थाधिगम सूत्र 9/37 में कहा है. कि यह अप्रमत्तसंयत के ही होता है और बारहवें गुणस्थान तक संभावित है जबकि राजवार्तिककार कहते हैं कि अप्रमत्त गुणस्थान में ही धर्मध्यान मानने पर असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के धर्मध्यान के अभाव का प्रसंग आता है। असंयत सम्यग्दृष्टि आदि के सम्यग्दर्शन के प्रभाव से धर्मध्यान होता है अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक धर्मध्यान होता है अत: वह असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के भी होता है । यदि धर्मध्यान अप्रमत्त के ही होता है ऐसी अवधारणा की जाती है तो असंयतादि गुणस्थानों में धर्मध्यान की निवृत्ति का प्रसंग आता है। अवधारणा :
उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों से ओत-प्रोत होने के कारण यह धर्मध्यान कहलाता है। यह ध्यान उत्तम क्षमादि भावना वालों के ही अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं में जब बार-बार चिन्तन धारा चालू रहती है। तब वे ज्ञान रूप हैं किन्तु जब उन भावनाओं में एकाग्रचिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है तब वह ध्यान
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