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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
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आज्ञाविचय:
विचय का अर्थ विचारणा, गहन विचारणा, सतत विचारणा है या चिन्तन भी है। आज्ञाविचय ध्यान में सर्वज्ञ-वाणी ध्यान के केन्द्र रूप में ली जाती है। किसी सूक्ष्म विषय में अपनी मतिमन्दता तथा योग्य उपदेशदाता के अभाव में स्पष्ट निर्णय की स्थिति न बन सके, उस समय वीतराग भगवान की आज्ञा को प्रमाण मान कर चित्त को उनकी वाणी या आज्ञा पर टिकाते हुए, एकाग्र करते हुए द्रव्य, गुण और पर्याय आदि की दृष्टि से तन्मयता और स्थिरतापूर्वक ध्यान करना आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है। अपायविचय:
उपाय का विलोम अपाय है। उपाय प्राप्ति या लाभ का सूचक है। अपाय हानि, विकार या दुर्गति का घातक है। राग-द्वेष और मोह तथा उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से या दुर्गति को सम्मुख रखकर जहाँ चिंतन को एकाग्र किया जाता है वह अपायविचय धर्मध्यान कहलाता है अर्थात् हेय क्या है ? इसका चिन्तन करना। विपाकविचय:
अनुभव में आने वाले कर्मफल रूप विपाकों में से कौन-कौन सा विपाक किस-किस कर्म से संबंधित है तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक संभव है, इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय धर्मध्यान है। इस ध्यान द्वारा साधक में कर्मों से पृथक् होने, उन्हें निर्जीर्ण करने तथा आत्मभाव से संयुक्त होने की संस्फूर्ति का उद्भव होता है।
अपायविचय और विपाकविचय दोनों की दिशाएँ लगभग एक जैसी हैं। अन्तर केवल इतना सा है कि अपायविचय के चिंतन का क्षेत्र व्यापक है और विपाकविचय का उसकी अपेक्षा सीमित है - कर्मफल तक अवस्थित है। इस ध्यान द्वारा साधक को कर्मविमुक्ति की यात्रा पर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है। संस्थानविचय :
लोकस्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
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