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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ध्यान की निरन्तरता अव्यवहित नहीं रहती । किन्तु मध्यवर्ती संक्रमण के साथ ध्यान का क्रम दीर्घकाल पर्यन्त चल सकता है।
आगे उन्होंने प्रत्येक ध्यान के प्रायः सभी पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाला है | आर्त्तध्यान के प्रसंग में लेखक ने एक बात की विशेष रूप से चर्चा की है कि मुनि के आर्त्तध्यान की संभावना है या नहीं ? उन्होंने लिखा है कि मुनि राग एवं द्वेष के बीच में स्थित रहता है । इसका अभिप्राय यह है कि वह न किसी वस्तु को मनोज्ञ व इष्ट मानकर राग करता है और न किसी वस्तु को अमनोज्ञ व अनिष्ट मानकर द्वेष ही करता है। इसलिए उसके कोई वेदना का प्रसंग बनता है तो वह वस्तु-स्वरूप के चिन्तन में तत्पर होता हुआ उसे समत्व भाव के साथ सहन करता है। यही कारण है कि राग-द्वेष से रहित होने के कारण उसके किसी वेदना का वियोगविषयक अर्थात् वह वेदना रहित हो जाय ऐसा भाव या आर्त्तध्यान नहीं होता । किन्तु जिसका अन्त:करण राग-द्वेष से कलुषित होता है, उसके वह आर्त्तध्यान अवश्य होता है। जो मुनि प्रशस्त ज्ञान आदि को बढ़ाने वाले आलम्बन का आश्रय लेकर उस वेदना का अल्प सावद्ययुक्त उपचार करता है एवं निदान से रहित होता हुआ तप, संयममय प्रतिकार का सेवन करता है उसके निदानवर्जित धर्मध्यान ही होता है, आर्त्तध्यान नहीं होता । 26
ग्रंथकार ने आर्त्तध्यान से बचने की दृष्टि से संकेत रूप से जो उद्गार व्यक्त किये हैं वे ध्यानाभ्यासी मुनिवृंद के लिए बड़े ही उपयोगी हैं। क्योंकि आर्त्त - रौद्र ध्यान साधना में विघ्नकारक हैं। मुनि में भी यदि प्रिय या अप्रिय स्थितियों के आने पर रा या द्वेष का भाव आसक्ति या निवृत्ति का भाव आ जाता है तो वह आर्त्तध्यान में चला जाता है। अतएव शारीरिक, मानसिक, प्रतिकूल वेदना की स्थिति में भी मुनि को आत्माभिमुख होते हुए निर्मल मानसिकता के साथ अनुवर्तन करना चाहिए ।
धर्मध्यान का विवेचन करते हुए रचनाकार ने उसके बारह द्वारों की चर्चा की है जिनका अनुशीलन अनुसरण, एक ध्यानयोगी के लिए आवश्यक है। उन्होंने प्रतिपादित किया है कि ( 1 ) ध्यान की भावनायें (2) ध्यान के लिए समुचित देश या स्थान (3) समुचित समय (4) ध्यानानुरूप समीचीन आसन ( 5 ) ध्यान के आलम्बन (6) ध्यान का मनोनिरोध आदि के रूप में क्रम ( 7 ) ध्यान का विषय26. वही, गा. 11-12
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