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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं तब यह व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान कहलाता है। क्योंकि इसमें स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नहीं होती है और यह स्थिति बाद में नष्ट भी नहीं होती । इस चतुर्थ ध्यान के प्रभाव से समस्त आस्रव - बन्ध- -निरोधपूर्वक शेष कर्मों के क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। तीसरे और चौथे शुक्लध्यान में किसी भी प्रकार के श्रुतज्ञान का आलंबन नहीं होता, अतः ये दोनों अनालंबन भी कहलाते हैं ।
स्वामी विषयक कथन दो प्रकार से किया गया है। पहला गुणस्थान की दृष्टि से और दूसरा योग की दृष्टि से । गुणस्थान की दृष्टि से के चार शुक्लध्यान भेदों में से पहले दो भेदों के स्वामी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वाले ही होते हैं जो पूर्वधर भी हों | 22 ' पूर्वधर' विशेषण से सामान्यतः यह अभिप्राय है कि जो पूर्वधर न हो पर ग्यारह आदि अंगों का धारक हो । उसके ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान न होकर धर्मध्यान ही होगा। इस सामान्य विधान का अपवाद यह है कि पूर्वधर होते हुए भी माषतुष, मरुदेवी आदि जैसी आत्माओं में भी शुक्लध्यान सम्भव है । शुक्लध्यान के शेष दो भेदों के स्वामी केवली अर्थात् - तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वाले ही होते हैं। 23
योग की दृष्टि से तीन योगवाला ही पहले शुक्लध्यान का स्वामी होता है । मन, वचन और काय में से किसी भी एक योगवाला शुक्लध्यान के दूसरे भेद का स्वामी होता है । इस ध्यान के तीसरे भेद का स्वामी केवल काययोग वाला और चौथे भेद का स्वामी एक मात्र अयोगी होता है। 24
'तत्त्वार्थसूत्र' में निर्जरा तत्त्व के अन्तर्गत 27 से 46 वें सूत्र तक 20 सूत्रों ध्यान का वर्णन हुआ है । उसमें ध्यान की आराधना, उसके भेद, फिर उनके अवान्तर भेदों के संक्षिप्त में लक्षण, ध्यान के अधिकारी, कालमान इत्यादि का संक्षेप में वर्णन किया है। इसे ध्यानयोग के उत्तरवर्त्ती विकास की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। इस को लेकर विभिन्न आचार्यों ने अपने - अपने ग्रन्थों में ध्यान का बहुमुखी विवेचन किया
22. वही, 9.39
23. वही, 9.40
24. वही, 9.42
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