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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
खण्ड : तृतीय
समितियों, तीन गुप्तियों का पालन करने में मोहवश असमर्थ हैं, अज्ञानयुक्त हैं, वे ही इस प्रकार का कथन करते हैं कि ध्यान नहीं सध पाता ।
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भरत क्षेत्र में दुषमकाल- - पंचम आरक में भी आत्मस्वभाव में स्थित संयमी साधक के धर्मध्यान सधता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। धर्मध्यान के स्वरूप का उसे बोध ही नहीं है।
इस काल में भी जो संयमी साधक त्रिरत्न शुद्ध हैं, सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र की शुद्धता 'से युक्त हैं, वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्र या लोकान्तिक देव का पद प्राप्त करते हैं और वहाँ से च्यवन कर आगे निर्वाण को प्राप्त करते हैं। 61
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जो देव गुरु के भक्त हैं, निर्वेद परम्परा - मोक्ष परिपाटी का विचिन्तन करते हैं ऐसे ध्यानरत सच्चारित्रनिष्ठ साधक मोक्षमार्ग में गृहीत किये गये हैं। 62
यह आत्मा पुरुषाकार में अवस्थित है, उसके मन, वचन, काय के योग निरुद्ध हैं, सभी अंग सुनिश्चल हैं, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन से जो परिपूर्ण हैं, जिसे केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त है ऐसे आत्मस्वरूप का ध्यानयोगी ध्यान करता है, वह पापों का हनन करता है और वह राग-द्वेषात्मक विकल्पों द्वन्द्वों से रहित हो जाता है। 63
ध्यानानुरागी श्रावक सुनिर्मल मेरुवत्, निष्प्रकम्प, अचल, सम्यक्त्व को ग्रहण कर दुःख का क्षय करने के लिए सम्यग्दर्शन का ध्यान करें ।
जो श्रावक सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर लेता है। सम्यक्त्व में परिणत हुआ वह साधक अष्ट कर्मों का क्षय करता है । '
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ग्रंथकार ने यहाँ सम्यक्त्व प्राप्ति से अष्टकर्म क्षय तक का महत्त्वपूर्ण क्रम अतिसंक्षेप में प्रकट किया है। सम्यक्त्व दर्शन के ध्यान से जीवन में सत् श्रद्धान के रूप में उसकी परिणति होती है और वह ज्यों-ज्यों इस क्रम में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों कर्मों से आच्छादित उसका आत्मस्वरूप उद्घाटित होता जाता है। जब
61. वही, गा. 73-77 पृ. 318-320
62. वही, गा. 82 पृ. 323
63. वही, गा. 84 पृ. 325
64. वही, गा. 86-87 पृ. 326-327
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