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खण्ड : तृतीय
इस पद्य का विवेचन करते हुए आध्यात्मिक सन्त श्री कानजीस्वामी ने लिखा है - प्रत्येक आत्मा शुद्ध चिदानन्द मूर्ति सिद्ध परमात्मा के समान ही है । प्रत्येक आत्मा को सर्वज्ञदेव ने सिद्ध समान ही देखा है । ऐसे शुद्ध चिदानन्द स्वरूप आत्मा में एकाग्रता ही निर्मल ध्यान है। निर्मल ध्यान से ही मोक्षमार्ग प्रारम्भ होता है और अन्त में शुद्ध दशा प्राप्त होती है। शुद्ध चैतन्य मूर्ति आत्मा की एकाग्रता के समय ही आंशिक धर्मदशा प्रकट होती है, वही सम्यग्दर्शन है।
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श्री योगीन्दुदेव ने कहा है - यदि चारों गतियों के भ्रमण से भयभीत हो तो परभावों का त्याग करो । निर्मल आत्मा का ध्यान करो जिससे मोक्ष के सुख को प्राप्त कर सको।
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जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जो गृहस्थ के व्यापार में संलग्न है तथा हेय - उपादेय को जानते हैं और अहर्निश जिनेन्द्रदेव का ध्यान करते हैं, वे भी शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करते हैं ।
शुद्ध भाव से जिनेन्द्र देव का स्मरण करो, उनका चिन्तन करो, ध्यान करो, ऐसा ध्यान करने से परमपद प्राप्त हो जाता है। 73
जो तीनों लोकों के प्राणियों द्वारा ध्यान करने योग्य जिनेन्द्रदेव हैं वह यह आत्मा ही है ऐसा निश्चय दृष्टि से कहा गया है। इस बात में जरा भी सन्देह नहीं
है। 74
द्रव्यसंग्रह :
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र विरचित द्रव्यसंग्रह (लगभग 11वीं शती) में भी शुद्ध आत्मपरक ध्यान का विश्लेषण करते हुए साधक को सम्बोधित कर कहा है कि निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार के उस मोक्षमार्ग की प्राप्ति का कारण ध्यान है । अतएव मुक्ति प्राप्ति के लिए ध्यान के अभ्यास की जहाँ तहाँ प्रेरणा की गई है।
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71. वही, पृ. 2
72. वही, गा. 5 पृ. 9
73. वही, गा. 18-19 पृ. 28, 32
74. वही, गा. 28 पृ. 38
75. द्रव्यसंग्रह गा. 47, 48
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