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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
के प्रसंग में ध्यान का विस्तार से निर्देश हुआ है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक का वैशिष्ट्य यह है कि वह ध्यान के भेदों के साथ ध्यान के लक्षण और स्वामित्व के संदर्भ में विशेष रूप से चर्चा करता है। इस चर्चा में श्लोकवार्त्तिककार आचार्य विद्यानन्द ने न केवल जैनधर्मसम्मत प्रतिपादन ही किया है अपितु ध्यान के काल विवेचन के अन्तर्गत बौद्धों को पूर्वपक्ष के रूप में रखकर यह बताने का प्रयास किया है कि जो पहले समय में उत्पन्न हुआ है वही जब तीसरे समय में नष्ट हो जाता है तो ध्यान में स्थायित्व कैसे होगा? बौद्ध दर्शन में ध्यान के क्षणस्थायी होने से वस्तुतः ध्यान की अवस्था ही संभव नहीं होगी। इसलिए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त माने बिना ध्यान की सिद्धि ही संभव नहीं।
___इस प्रकार आचार्य विद्यानन्द ने ध्यान की कालावधि का स्पष्टीकरण करते हुए बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन किया है। ध्यान के चिन्तानिरोध लक्षण को स्पष्ट करते हुए विद्यानन्द ने वैशेषिक मत की भी समीक्षा की है। जैन दार्शनिकों का यहाँ उत्तर है कि वस्तुत: यहाँ एकाग्रचिन्तानिरोध का तात्पर्य किसी एक विषय पर चित्त को केन्द्रित करना है। अत: ध्यान अभाव रूप नहीं है। इस प्रकार तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में ध्यान के विविध आयामों की चर्चा करते हुए उन पर अन्य दार्शनिकों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर उनके समाधान का भी प्रयत्न किया गया है। इस संबंध में सुप्रसिद्ध जैन मनीषी पं. सुखलाल संघवी का ऐसा अभिमत है
सामान्यत: क्षण में, एक क्षण में, दूसरे क्षण में, तीसरे ऐसे अनेक विषयों का अवलंबन करके प्रवृत्त ज्ञानधारा भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहती हुई हवा में स्थित दीपशिखा की भाँति अस्थिर होती है। ऐसी ज्ञानधारा चिन्ता को विशेष प्रयत्नपूर्वक शेष विषयों से हटाकर किसी एक ही इष्ट विषय में स्थिर रखना अर्थात् ज्ञान-धारा को अनेक विषयगामिनी न बनने देकर एक विषयगामिनी बना देना ही ध्यान है। ध्यान का यह स्वरूप असर्वज्ञ (छद्मस्थ) में ही संभव है। इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है।
सर्वज्ञत्व प्राप्त होने के बाद अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में भी ध्यान स्वीकार तो अवश्य किया गया है, पर उसका स्वरूप भिन्न है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त
5. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ. 257-280 ~~~~~~~~~~~~~~~
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