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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
जैन दर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। इसी को लक्ष्यित कर आचार्य उमास्वाति ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसलिए इसे मोक्षशास्त्र के नाम से भी अभिहित किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस पर तत्त्वार्थाधिगम नामक स्वोपज्ञभाष्य भी है। तत्त्वार्थसूत्र पर अनेक श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्यों ने व्याख्या-ग्रन्थों की रचना की है जिनमें आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धि, भट्ट अकलंकदेव द्वारा प्रणीत तत्त्वार्थ राजवार्तिक तथा आचार्य विद्यानन्द द्वारा रचित-तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार नामक टीकाएँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं इनमें तत्त्वार्थसूत्र के विषयों का बहुत ही मार्मिक विश्लेषण है। श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र ने भी इस पर गंभीर टीकाएँ लिखी हैं।
इस ग्रन्थ के सूत्र बड़ी ही सरल, प्राञ्जल संस्कृत में रचित हैं, इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था। यह ग्रन्थ दस अध्यायों में विभक्त है। इनमें नव तत्त्वों या सप्त पदार्थों का सूत्रशैली में विवेचन है। ध्यान की परिभाषा :
तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा तत्त्व के अन्तर्गत ध्यान का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानम्' अर्थात् उत्तम संहनन वाले व्यक्ति का किसी एक विषय में चिन्तन करने हेतु मन को एकाग्र करके निरुद्ध करना ध्यान है।' इस परिभाषा में कही गई एक बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है। आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि ध्यान को साधने के लिए व्यक्ति का दैहिक संहनन भी उत्तम कोटि का होना चाहिए। उत्तम संहनन में 'भाष्य' में दो संहनन स्वीकार किये गये हैं। वज्रऋषभनाराच संहनन और वज्रनाराचसंहनन। किन्तु दिगम्बर परम्परा में तीसरा नाराच संहनन भी उत्तम माना गया है। ध्यान के अधिकारी :
संहनन जैन शास्त्रों का एक पारिभाषिक शब्द है, जो शरीर के जोड़ों की संरचना 1. तत्त्वार्थ सूत्र 9.27
(क) प्रज्ञापना सूत्र 23/299 (ख) स्थानांग सूत्र 6.3.494
(ग) कर्मग्रन्थ 1.38.39 rammmmmmmmmmmm 4 ~~~~~~~~~~~~~~~
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