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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनं आगम: आप्त वचन से उत्पन्न अर्थज्ञान आगम कहा जाता है। जिससे उचित दिशा व विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, उसे आगम या श्रुतुज्ञान कहते हैं।' आगमों के कर्ता :
तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश करते हैं और गणधर उसे ग्रंथबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं। अर्थात्मक ग्रंथ के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। एतद् अर्थ ही आगमों में यत्रतत्र (तस्स णं अयमढे पण्णते) ऐसा पाठ प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार जैनागमों को तीर्थंकर प्रणीत कहा जाता है, यह भी ज्ञातव्य है कि जैन आगमों की प्रामाणिकता केवल गणधर कृत होने से ही नहीं है, अपितु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वार्थसाक्षात्कारित्व के कारण है। जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येकबुद्ध निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं।' आगमों का विभाजन :
__ आचार्य देवर्द्धिगणिक्षमा-श्रमण ने आगमों को अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो भागों में विभक्त किया है।12 अंगप्रविष्ट और अंग-बाह्य का विश्लेषण करते हुए जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने तीन हेतु बतलाए हैं
अंगप्रविष्ट वह श्रुत है : 1. जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ होता है। 2. जो गणधरों के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित होता है
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6. स्याद्वादमंजरी श्लोक 38 टीका 7. विशेषावश्यक भाष्य गा. 559 8. प्रमाणनय तत्त्वालोक 4,1 9. नंदीसूत्र गा. 40 10. मूलाचार गा. 5-80 (ख) जय धवला पृ.153 11. विशेषावश्यक भाष्य गा. 550 (ख) बृहत् कल्पभाष्य गा. 144 12. अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तंजहा - अंग पविट्ठ अंगबहिरंच नंदी सूत्र 43
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