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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
प्रज्ञाशील जनों की तो और बात है, साधारण व्यक्ति को अपने पठन में कहीं भी शंका, जिज्ञासा हो तो उसे ज्ञानी गुरुजन से उनका निवारण करना, समाधान पाना अपेक्षित है । प्रतिपृच्छना का यही अभिप्राय हैं।
श्रुत, शास्त्र या विद्या तभी भलीभाँति अधिगत होती है, जब उसकी बारबार आवृत्ति की जाय, अभ्यास किया जाय। ऐसा करने से उसका तात्पर्य अच्छी तरह हृदयंगम हो जाता है। अभ्यास नहीं करने से विद्या विष के तुल्य हो जाती है अर्थात् वह अध्येता के लिए उपयोगी नहीं रहती । अपरिपक्व या अधूरा ज्ञान हानिप्रद भी होता है । जिस तरह पाचन न होने से भोजन विष जैसा प्रभाव करता है उसी प्रकार अपरिपक्व या अधूरा ज्ञान हानिप्रद होता है ।
उसे हृदय
पुनरावर्तन का भाव मूल वाणी को बार-बार आवर्तित करते हु में जमा लेना, कंठस्थ कर लेना है। उससे आगे की भूमिका उसके अर्थ का अनुप्रेक्षण कर उस पर चिन्तन-मनन करने की है। चौथे आलम्बन अनुप्रेक्षा का यही आशय है। धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ :
(1) एकत्वानुप्रेक्षा (2) अनित्यानुप्रेक्षा (3) अशरणानुप्रेक्षा ( 4 ) संसारानुप्रेक्षा ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आगमकार ने आर्त्त, रौद्र ध्यान का जो परिचय कराया है वह ज्ञेयत्व, हेयत्व की दृष्टि से है, अर्थात् उन्हें जानना चाहिए और उनका परित्याग करना चाहिए ।
धर्मध्यान का परिचय उपादेयत्व की दृष्टि से है अर्थात् उसे स्वीकार करना चाहिए, उसका अभ्यास करना चाहिए, उसमें तन्मय होना चाहिए । अतएव उनके लक्षणों के साथ-साथ उनके आलम्बनों का कथन किया गया और उनकी अनुप्रेक्षाओं का भी त्रिधान किया गया जो एकत्व, अनित्यत्व, अशरणत्व तथा संसारानुप्रेक्षा के रूप में चार प्रकार की हैं। ये अनुप्रेक्षाएँ साधक के ध्यानोपक्रम को सुदृढ़ और सशक्त बनाती हैं।
यह तथ्य है कि जीव अकेला ही जन्म लेता है, स्वकृत कर्मानुरूप सुखमय, दुःखमय फल भोगता है और अकेला ही वह संसार - सागर में परिभ्रमण करता है। इस अनुप्रेक्षा की उपादेयता यह है कि मानव बड़ा दिग्भ्रान्त रहता है, वह समझता है मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे कितने सम्पन्न सम्बल पारिवारिक मित्रजन हैं। इस अज्ञानजनित
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