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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
अतिचारों का स्मरण हो सकेगा। सम्यक् चिन्तन ही वास्तव में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। स्मरण रहे कि जैसा चिन्तन ध्यानावस्था में किया जा सकता है वैसा बिना ध्यानावस्था के प्राय: नहीं किया जा सकता। ध्यानावस्था में चित्तवृत्तियाँ चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाती हैं, चित्त वृत्तियों की स्थिरता में ही सम्यक् चिन्तन संभव है।
दशाश्रुतस्कंध सूत्र :
__दशाश्रुतस्कंधसूत्र में बारहवीं भिक्षु प्रतिमा के अन्तर्गत कायोत्सर्ग का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि संयमी साधक किसी एक पौद्गलिक पदार्थ पर दृष्टि रखते हुए ध्यानपूर्वक उसे निष्पादित करे।56 आवश्यक सूत्र :
आवश्यक सूत्र में अतिचारों की विशेष शुद्धि के लिए विधिपूर्वक कायोत्सर्ग के स्वरूप का वर्णन किया गया है। अन्त में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख हुआ है। कायोत्सर्ग करने वाला साधक अपना मन:संकल्प व्यक्त करता हुआ कहता है कि जब तक मैं अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार न कर लूँ तब तक एक स्थान पर स्थित हुआ मौन रखता हुआ धर्मध्यान में चित्त को स्थिर कर अपनी देह को सावध कार्यों से पृथक् करता हूँ। इस प्रकार देह का व्युत्सर्जन करता हूँ। यह बात कायोत्सर्ग में ध्यान के अन्तर्निवेश पर प्रकाश डालती है। अरिहंतों को वन्दन-नमन न करने तक ध्यान में अवस्थित रहने का जो उल्लेख हुआ है वह साधक को अन्तर्जगत् में ले जाने की एक विशेष प्रक्रिया का सूचक है। उससे प्रतिफलित उज्ज्वल निर्मल मनोभाव जब अरिहंतों के वन्दन-नमन में क्रियान्वित होते हैं तब वह वन्दन-नमन आत्मविकास की दृष्टि से बड़ा चामत्कारिक हो जाता है। ध्यान कायोत्सर्ग की इस प्रक्रिया में एक ऐसा वैशिष्ट्य जोड़ देता है जिससे साधक काय से अतीत होने के आन्तरिक उद्यम में सक्षम बनता है।57 कायोत्सर्ग ध्यान का ही एक परिष्कृत रूप है। षड़ावश्यकों अर्थात् अनिवार्य रूप से करणीय छह कर्त्तव्यों में ध्यान या कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
56. दशाश्रुतस्कंध सूत्र भिक्षुप्रतिभा 57. आवश्यक सूत्र आगार सूत्र पृ. 15
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