________________
खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवती आराधना' और उसकी विजयोदया टीका में मुख्यत: आगम परम्परा के अनुसार ही चारों ध्यानों, उनके प्रकारों आदि का विवेचन किया गया है। आगमिक धारा से इसकी समरूपता यही सिद्ध करती है कि भगवती आराधना के रचना और उसके टीकाकार मूलत: आगमिक धारा का ही अनुसरण करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द :
__ आचार्य कुन्दकुन्द जैनधर्म के महान् प्रभावक महापुरुष माने गये हैं। दिगम्बर परम्परा में निम्नांकित मंगल श्लोक बहुत प्रसिद्ध है -
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलम् कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥
इस श्लोक में गणधर गौतम के पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द का जो नामोल्लेख हुआ है उससे उनकी महत्ता स्पष्ट है। उनके सम्बन्ध में ऐसा प्रसिद्ध है कि विदेहक्षेत्र में जाकर वहाँ विहरणशील तीर्थंकर सीमंधर स्वामी की दिव्य ध्वनि सुनने का उन्हें सुअवसर प्राप्त हुआ था। उनका वास्तविक नाम पद्मनन्दी था। कोण्डकोण्डपुर के निवासी होने के कारण वे कोण्डकुण्डाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी का परिवर्तित रूप कुन्दकुन्दाचार्य है। प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, और नियमसार इनके अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने अनेक पाहुड़ों-प्राभृतों की रचना भी की। उनमें आठ पाहुड़ वर्तमान काल में उपलब्ध हैं। बोध प्राभृत की एक गाथा के अन्त में उन्होंने अपने की आचार्य भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है। कर्नाटक में स्थित श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में इनका यशस्वितापूर्ण वर्णन है। ये भद्रबाहु कौन थे
और कुन्दकुन्द उनके साक्षात् शिष्य थे या परम्परागत शिष्य थे, इस पर विद्वानों में मतभेद है। हाँ, इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहु प्रथम के साक्षात् शिष्य नहीं थे, परम्परागत शिष्य ही हो सकते हैं। इनके काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। वह ईसा की प्रथम शती से छठी शती के मध्य रहा है।
पचास्तिकाय
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी महत्त्वपूर्ण कृति पंचास्तिकाय में ध्यान के सम्बन्ध में लिखा है कि जिसके राग, द्वेष, मोह और योग-परिकर्म-योगसेवन नहीं है, दूसरे
Mmmmmmmm 13 mmmmmmmmmmmmm
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org