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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
खण्ड : तृतीय
के आलम्बनों से भरा हुआ है, ध्यान का इच्छुक क्षपक मन से जिस ओर देखता है वही उस धर्मध्यान का आलम्बन हो जाता है । 32
शुक्लध्यान :
धर्मध्यान में परिपूर्ण हुआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्लध्यान ध्याने में समर्थ होता है क्योंकि प्रथम सोपान अर्थात धर्मध्यान के नहीं होने पर दूसरा सोपान चढ़ना असम्भव
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शुक्ल ध्यान के भी चार भेद हैं: (1) पृथक्त्ववितर्क वीचार (2) एकत्ववितर्क अवीचार (3) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ( 4 ) समुच्छिन्न अप्रतिपाती । 34 चारों शुक्ल ध्यान में अन्तर :
आगे शुक्ल ध्यान के इन चारों भेदों का स्वरूप समझाया गया है। 35 टीकाकार ने इन चारों ध्यानों में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि एकत्ववितर्कअवीचारशुक्ल ध्यान एक ही द्रव्य का आश्रय लेता है जबकि पृथक्त्ववितर्कवीचार में परिमित अनेक द्रव्यों एवं पर्यायों का आलम्बन लिया जाता है। तीसरा सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती ध्यान और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान सभी वस्तुओं को विषय करते हैं क्योंकि केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और सब पर्यायें हैं। पहले शुक्लध्यान का स्वामी उपशान्तमोह होता है, जबकि दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी क्षीणकषाय माना गया है। तीसरे शुक्लध्यान का स्वामी सयोगकेवली कहा गया है जबकि चौथे शुक्लध्यान के स्वामी को अयोगकेवली कहा गया है। इस प्रकार द्रव्य, पर्याय एवं स्वामी की अपेक्षा दूसरा शुक्लध्यान विलक्षण है एवं शेष तीनों ध्यानों से भिन्न है। इस भिन्नता के साथ साथ इन ध्यानों में कुछ समानता भी है जैसे पहले शुक्लध्यान की तरह दूसरा ध्यान भी सवितर्क है । 36
32. वही, गा. 1774-76
33. वही, गा. 1871
34. वही, गा. 1872-73
35. वही, गा. 1874-83
36. (क) वही, विजयोदया टीका पृ. 837/4
(ख) वही, गा. 1778-79
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