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खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
नियमसार' पर श्रीपद्मप्रभमलधारीदेव द्वारा संस्कृत में विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका में इस गाथा की व्याख्या करते हुए शुक्लध्यान के सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया गया है
निष्क्रिय करणातीतं, ध्यानध्येयविवर्जितम्। अन्तर्मुखं तु यद्धयानं, तच्छुक्लं योगिनो विदुः॥
जो क्रियारहित, करणातीत, ध्यान और ध्येय के भेद से विवर्जित एवं अन्तर्मुखीन होता है अध्यात्मयोगियों ने उसे शुक्लध्यान बतलाया है।41
आत्मा उत्तमार्थ परम उत्तम शुद्ध पदार्थ है उस समय आत्मभाव में स्थित संयमी साधक कर्म का घात-नाश करते हैं। आत्मभाव में स्थिति ध्यान रूप ही है। यही पारमार्थिक प्रतिक्रमण हैं - बहिमुर्खता से आत्मोन्मुखता की ओर प्रत्यावर्तन होना है।42
___ ध्यान ही वस्तुत: समस्त अतिचारों का प्रतिक्रमण है। सबसे हटकर अपने आप में लौटना या स्थित होना ही ध्यान है।43
संस्कृत टीकाकार ने इस गाथा का विवेचन करते हुए निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया है
शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ। स योगी, तस्य शुद्धात्मा, प्रत्यक्षो भवति स्वयम्॥
शुक्ल ध्यान रूपी दीपक चित्त रूपी आलय-घर में प्रकाशित होता है, उस योगी के शुद्धात्म भाव स्वयं प्रकाशित होता है।4
मोह. राग, द्वेष आदि परभावों के विध्वंसक आत्मा के परम समाधिभाव का विश्लेषण करते हुए ग्रंथकार ने लिखा है - वचनोच्चारण क्रिया का परित्याग कर वीतराग भाव में अवस्थित होकर जो आत्मा का ध्यान करता है उसके परम समाधिभाव निष्पन्न होता है।45 41. वही, (टीका) पृ. 169 42. वही, गा. 92 पृ. 174 43. वही, 92 पृ. 177 44. वही, टीका पृ. 178 45. वही, गा. 122 पृ. 247 ~~~~~~~~~~~~~~~ 15 ~~~~~~~~~~~~~~~
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