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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
खण्ड : तृतीय
संयम, नियम, तप पूर्वक तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा जो आत्मा का ध्यान करता है उसे परमसमाधि सिद्ध होती है । 46
इस गाथा का विवेचन करते हुए टीकाकार ने समाधि के माहात्म्य को निम्नांकित श्लोक द्वारा सूचित किया है
निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये । द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानं तं नमाम्यहम् ॥
जो आत्मा निर्विकल्प, चिन्मय समाधि में संस्थित है, द्वैत और अद्वैत के भाव से निर्मुक्त है उस आत्मा को मैं नमन करता हूँ। 47
ध्यान से उद्भूत होने वाले समत्व से रहित साधक चाहे वन में निवास करें, चाहे कायक्लेश आदि करें, मात्र उपवास, अध्ययन, मौन आदि क्या उनको कल्याण कर सकते हैं 148
आ रौद्र ध्यान के परित्याग का विशेष रूप में उपदेश करते हुए ग्रंथकार ने कहा है कि जो साधक आर्त्त एवं रौद्र ध्यान का नित्य वर्जन एवं त्याग करता है उसमें सामायिक रूप आत्मभाव स्थिर हो जाता है । केवलीप्रभु के शासन में ऐसा बतलाया गया है । 49
अन्तरात्मा और बहिरात्मा की भेद विवक्षा में ग्रंथकार ने कहा है कि जो श्रमण धर्मध्यान एवं शुक्ल ध्यान में परिणत होता है वह अन्तरात्मा - अन्तरात्मस्वरूप कहा जाता है। जो ध्यान से विहीन होता है वह बहिरात्मा
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बहिरात्मस्वरूप है। संस्कृत टीकाकार ने इस प्रसंग में निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया है :कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल - ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ । ताभ्यां विहीनमुनि को, बहिरात्मकोऽयं पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये ॥
46. वही, गा. 123 पृ. 249 47. वही, टीका पृ. 250 48. वही, गा. 124 पृ. 250 49. वही, गा. 129 पृ. 260 50. वही, गा. 151 पृ. 304
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