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खण्ड : तृतीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्याता चिन्तन करता है। इसलिए इसको एकत्ववितर्कध्यान कहा गया है।
3. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती : क्रिया का अर्थ योग है। वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका उल्टा अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है, वह सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है और सूक्ष्मक्रिया होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। यहाँ केवलज्ञान होने से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है इसलिए यह अवितर्क है और अर्थान्तर की संक्रान्ति का अभाव होने से अवीचार है अथवा व्यंजन और योग की संक्रान्ति का अभाव होने से अवीचार है।
4. समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती : इस ध्यान में क्रिया अर्थात् योग सम्यक् प्रकार से उच्छिन्न हो जाता है अत: वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है और समुच्छिन्नक्रिय होकर जो अप्रतिपाती हो वह समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान है। यह श्रुतज्ञान से रहित होने से अवितर्क है। जीवप्रदेशों के परिस्पन्द का अभाव होने से अवीचार है अथवा अर्थ, व्यंजन, और योग की संक्रान्ति का अभाव होने से अवीचार है। चार कर्मों का विनाश इस ध्यान का फल है। सब कर्मों से मुक्त हुआ जीव एक समय में सिद्धि को प्राप्त होता है।
___इस प्रकार हम देखते हैं कि षट्खण्डागम मूलतः कर्मसिद्धान्त का ग्रंथ है। उसमें कर्म सिद्धान्त के साथ - साथ गुणस्थानों का भी संयोजन किया गया है और इसलिए उसमें गुणस्थानों की अपेक्षा से ध्यान का वर्णन है।
___ ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका मुख्यत: धर्मध्यान और शुक्लध्यान की ही चर्चा करती है। उससे यह फलित होता है कि षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका में साधनात्मक दृष्टि से ही ध्यान का विचार किया गया है। अत: उसमें आर्त और रौद्रध्यान का विशेष विचार नहीं है। पुन: ध्यान को गुणस्थानों के साथ जोड़ते हुए यह कहा गया है कि धर्मध्यान का प्रारम्भ अविरत सम्यक्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से सम्भव है और ग्यारहवें गुणस्थान तक हो सकता है। यहाँ ज्ञातव्य तथ्य यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र में धर्मध्यान का प्रारम्भ अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से माना गया है। यह मतभेद विशेष रूप से विचारणीय है। इससे ऐसा लगता है कि षट्खण्डागम मूलत: कर्म सैद्धान्तिकों की परम्परा का अनुसरण करता है, यही कारण ~~~~~~~~~~~~~~~ 7 ~~~~~~~~~~~~~
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