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खण्ड : द्वितीय
_जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
साधक को साँप आदि ने डस लिया हो ऐसी स्थिति में साधक को चाहिए कि वह समय के पूर्व ही कायोत्सर्ग खोल दे। क्योंकि किसी को सहयोग देने का प्रसंग उपस्थित हुआ हो, उसे उस समय सहयोग न देना अनुपयुक्त है। उस समय उसको सहयोग देना अधिक श्रेयस्कर है।
आवश्यकनियुक्ति' में भगवान महावीर की साधना का वर्णन करते हुए उल्लेख हुआ है कि उनका साधना काल बारह वर्ष तेरह पक्ष का रहा। उसमें वे अनशन, आसन, ध्यान आदि की साधना में संलग्न रहे। इस अवधि में उन्होंने मात्र तीन सौ उनचालीस दिन (339) आहार-पानी ग्रहण किया तथा उत्कटिकासन, निषधाकायोत्सर्ग प्रतिमायें आदि कई सौ बार आराधित की।86
____ भगवान महावीर के जीवन-प्रसंगों के अन्तर्गत 'आवश्यक चूर्णि' में उल्लेख हुआ है कि भगवान महावीर विहार करते हुए मोराक् सन्निवेश में पधारे, वहाँ दुईजंतक नामक परमतवादियों का एक आश्रम था। आश्रम का कुलपति भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ का मित्र था। भगवान महावीर ने एक रात्रि आश्रम में व्यतीत की। कुलपति के अनुरोध पर भगवान आस-पास के स्थानों में विचरण करते हुए चातुर्मास प्रवास हेतु आश्रम में आये, कुलपति ने उन्हें घास - फूस की कुटिया में ठहराया। भगवान महावीर वहाँ रहते हुए समग्र समय ध्यान में व्यतीत करने लगे।
पर्याप्त वृष्टि के अभाव में वन में गायों के खाने योग्य घास नहीं उगी थी; गायें आश्रम में आ जाती तो उनको मार-पीट कर भगाने लगे। भगवान महावीर तो सदैव अपने ध्यान में ही तन्मय रहते थे। आश्रम के भीतर-बाहर कौन क्या कर रहा है, इस ओर उनका कदापि ध्यान नहीं जाता था। फलत: भगवान की पर्णकुटीर की घास गायें खाती रहतीं। भगवान की इस उपेक्षा की शिकायत तापसों ने कुलपति से की। इस पर कुलपति ने आकर भगवान से कहा - "कुमार ! अपने घोंसले की तो पक्षी भी रक्षा करता है आप राजकुमार होते हुए भी आश्रम की रक्षा नहीं कर सकते, बड़ा आश्चर्य है" भगवान ने कुलपति का कथन सुन कर विचार किया, “मेरे यहाँ रहने से आश्रमवासियों को कष्ट होता है।" वे आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर वर्षाकाल में ही वहाँ से विहार कर गये। उस समय उन्होंने 'अप्रीतिकर : 86. वही, गा. 534
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