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खण्ड : द्वितीय
नवतत्त्व में निर्जरा के रूप में तप का ही विवेचन हुआ है। निर्जरा और तप लगभग एकार्थकता लिये हुए हैं। इनके बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैं। ध्यान आभ्यन्तर तप में है। अनशन आदि बाह्य तप का सम्बन्ध विशेषतः दैहिक उपक्रमों के साथ है। आन्तरिक तप अन्तरात्मा से जुड़े हुए हैं। ध्यान अन्तरात्मा का परिशोधक है। इसलिए उसे आभ्यन्तर तपों में परिगणित किया गया है।
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
हुआ
प्रस्तुत सूत्र में लेश्याओं के स्वरूप, भेद, उपात्तता आदि का जहाँ विस्तृत विवेचन है वहाँ साधक के शुक्ल लेश्या में परिणत होने का उल्लेख आया है। लेश्याओं सर्वोत्कृष्ट, परम शुद्ध शुक्ललेश्या है, जो आत्मा की निर्मलता, निष्कलुषता पवित्रता
पृक्त है। जब साधक उसे प्राप्त कर लेता है तो वह आध्यात्मिक उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त करता है। शुक्ललेश्या किस प्रकार उपात्त होती है इसे प्रकट करते हुए लिखा है कि जब साधक आर्त्त और रौद्र ध्यान का परित्याग कर देता है, धर्मध्यान की ओर क्रमश: बढ़ता हुआ शुक्लध्यान में लीन बनता जाता है, चित्त में सर्वथा विषाद रहित होता हुआ इन्द्रियों का दमन करता हुआ वह समिति और गुप्ति युक्त होता है, प्रशान्तता युक्त होता है तो वह शुक्ललेश्या में परिणत होता है। 51
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यहाँ शुक्ल लेश्या में परिणत होने के जिन हेतुओं का उल्लेख किया गया है उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आर्त्त और रौद्र ध्यान का वर्जन कर धर्म - शुक्ल ध्यान में संलग्न होना है। यह ध्यान - संलग्नता इतनी प्रवाहकारी होती है कि अन्यान्य हेतु स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं। ऐसी पवित्र ध्यानावस्था में विद्यमान साधक का चित्त सहज ही प्रशान्त रहता है, साधक की इन्द्रियाँ और मन अनायास वशीभूत हो जाते हैं 1 समितियाँ और गुप्तियाँ भी सिद्ध हो जाती हैं। उच्चध्यान के सिद्ध होने से यह सब प्रतिफलित होता ही है। ध्यान की यह अपनी अनुपम विशेषता है
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दशवैकालिक सूत्र :
सूत्र
दशवैकालिक आत्मा के निर्मल स्वरूप के के सम्बन्ध में कहा प्राकट्य है कि जो त्राता समस्त प्राणियों का रक्षक-अहिंसक साधक, स्वाध्याय तथा ध्यान मेंरत रहता है, निष्पाप भाव युक्त तप में संलग्न रहता है उसके पूर्वकृत पापमल के नष्ट हो जाने से विशुद्धि होती है तथा उसे अपने निर्मल शुद्ध आत्मस्वरूप का
51. वही, 34-31
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