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खण्ड: द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आज्ञाविचय ध्यान में जिनप्रवचन के चिन्तन में एकाग्र होना बतलाया गया है। यहाँ उसकी पहचान की ओर संकेत है। जिन-आज्ञाविचय पर जो चिन्तन सतत जुड़ा रहता है उसे अपने ध्यान का विषय बना लेता है उसमें सहज ही जिनप्ररूपित तत्त्वों के विचार, चिन्तन-मनन में रुचि उत्पन्न होती है। उनके प्रति श्रद्धा का भाव उद्भूत होता है तथा भक्ति भाव का स्रोत उमड़ने लगता है। जब यह व्यक्ति में दृष्टिगोचर होता है तो यह ज्ञात हो जाता है कि यह जीव धर्मध्यान का आराधक है।
जब सर्वज्ञप्ररूपित तत्त्वों में अभिरुचि, विश्वास और भक्ति उत्पन्न हो जाती है तो उसके मन में धार्मिक कृत्यों के प्रति जो जिनवाणी में व्याख्यात हुए हैं, सहज ही रुचि उत्पन्न हो जाती है।
आगम भगवत् वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि जिनेन्द्र द्वारा अर्थरूप में भाषित और उनके प्रमुख अन्तेवासी गणधरों द्वारा शब्द रूप में संकलित आगम हमें वह बोध प्रदान करते हैं जिससे हमारी आत्मा का कल्याण होता है। धर्मध्यान के आराधक की सूत्र-आगम के पठन-पाठन और परिशीलन में अभिरुचि रहती है क्योंकि वह यह जानता है कि इससे उसको तत्त्वों का बोध प्राप्त होगा, जिससे धार्मिक कृत्यों को भलीभाँति साध पाने का यथार्थ पथ प्राप्त हो सकेगा। चौथे लक्षण में अवगाढ़ रुचि शब्द आया है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। पठन-पाठन, चिन्तन-मनन तब सार्थक्य पाता है जब आराधक उनमें डूब जाता है, निमग्न हो जाता है, वैसा होने से उसे तत्त्वदर्शन सम्यक् आत्मसात् हो जाता है। धर्मध्यान के आराधक में ऐसा भी भाव बना रहता है कि वह सूत्रानुशीलन में तन्मयता प्राप्त कर ले। धर्मध्यान के चार आलम्बन :
1. वाचना 2. प्रतिपृच्छना 3. परिवर्तन 4. अनुप्रेक्षा।
आलम्बन का अर्थ आधार या टिकाव है। किसी भी पदार्थ की अवस्थिति के लिए आधार या आलम्बन की नितान्त आवश्यकता रहती है। वीतरागदेव की आज्ञा पर चिन्तन, उसमें अभिरुचि और उसमें निमग्न हो जाने की भावना के पनपने के चार आधार हैं।
पहला आधार वाचना है। वाचना का अर्थ पढ़ना, समझपूर्वक पढ़ना है। ~~~~~~~~~~~~~~~ 19 ~~~~~~~~~~~~~~~
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