________________
प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
___ महर्षि पतंजलि के अनुसार यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है, जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा विचार और निर्विचार समाधि हो जाती है।32
यह तुलना केवल बाह्य स्वरूप की दृष्टि से है। शुक्ल ध्यान की स्थिति इनसे और अधिक सूक्ष्म एवं अन्त:स्पर्शिनी होती है। स्थानांग सूत्र की संस्कृत वृत्ति में आचार्य अभयदेव सूरि ने एकत्ववितर्क अविचार संज्ञक शुक्लध्यान के दूसरे भेद का विश्लेषण करते हुए कहा है कि उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व - अभेद वृत्ति से किसी एक पर्याय का चैतसिक एकाग्रता के साथ चिंतन करना, उस पर स्थिर होना एकत्व है। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता। पवन रहित स्थान में सन्निहित दीपक जैसे स्पन्दनादि क्रियाओं से रहित होकर प्रकाश करता है, उसी भाँति आत्मा योगादि में संक्रमण न करते हुए ध्यान में समवस्थित रहती है।
इस ध्यान के परिणामस्वरूप मोहकर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है। द्वादश गुणस्थानवर्ती साधक में यह ध्यान घटित होता है।33
सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान : तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी जिन का आयुष्य जब अन्तर्मुहर्त प्रमाणमात्र शेष रहता है और उसी की बराबर स्थिति वाले वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म रह जाते हैं तब वे सयोगी जिन बादर तथा सूक्ष्म सर्व मनोयोग और वचन योगों का निरोध कर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियअनिवृत्ति ध्यान ध्याते हैं। इस समय श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है और इस अवस्था से निवृत्ति या वापिस लौटना नहीं होता है, अत: इसे सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति कहते हैं।
समुच्छिन्न क्रिय अप्रतिपाती : यह शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग का निरोध होने पर चौदहवें गुणस्थान में होता है और योगों की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो जाने से आत्मा अयोगी जिन हो जाता है। इस चौथे शुक्ल ध्यान द्वारा वे अयोगी जिन अघाति कर्मों की शेष रही 85 प्रकृतियों की प्रतिक्षण असंख्यात गुणित क्रम से निर्जरा करते हुए अन्तिम क्षण में कर्म-लेप से सर्वथा विमुक्त होकर सिद्ध परमात्मपद को प्राप्त 32. वही, 1.44 33. स्थानांगसूत्र (4.1.247) वृत्ति पृ. 191 । ~~~~~~~~~~~~~~~ 24 ~~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org