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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय की भी अपनी उपयोगिता है। यहाँ 'उड्ढजाणु अहोसिरा' पदों का जो प्रयोग हुआ है वह उनकी आसनगत स्थिति का द्योतक है। यहाँ प्रधानता तो ध्यान की ही है, आसन की उसमें सहकारिता रहती है। ध्यान और आसन की मुख्य - गौण स्थिति सदैव ध्यान में रखनी चाहिए ।
उत्तराध्ययन सूत्र :
उत्तराध्ययन सूत्र का पहला अध्ययन 'विनय सूत्र' संज्ञक है । विनय शब्द बड़ा व्यापक है। वह विनम्रता के साथ साथ धर्मसंगत आचार का भी द्योतक है। इस अध्ययन में संयती साधक को विनयशील पवित्र साधनामय आचार युक्त होने का विविध रूपों में उपदेश दिया है।
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एक स्थान पर कहा गया है कि नव प्रवर्जित संयमी साधक को चाहिए कि वह कभी चाण्डालिक कर्म चाण्डाल जैसे दूषित, निन्दित कर्म नहीं करे और उसे बहुत आलाप - संलाप, निरर्थक भाषण भी नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह यथासमय अपने स्वाध्याय में लगा रहे, तत्पश्चात् वह एकाकी ध्यानाभ्यास करे ।
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आगमकार के इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि सावद्य कर्मों से बचते हुए अहिंसा के परिपालन, निरर्थक आलाप - संलाप के वर्जन और स्वाध्याय के परिशीलन के साथ-साथ ध्यानाभ्यास का भी एक संयमी साधक के लिए आवश्यक रूप में विधान रहा है। ध्यान दैनंदिन साधनामय जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहा है ।
उत्तराध्ययन के अठारहवें अध्ययन में एक ध्यान योगी गर्दभाली नामक संयमी साधक का वर्णन आया है जो धर्मध्यान में अत्यन्त निमग्न थे। संजय नामक राजा ने जो आखेट हेतु वहाँ आया था, उनके सामने ही एक मृग को मार डाला । जब उसकी दृष्टि मौन ध्यानरत मुनि की ओर गई तो राजा भयभीत हो गया । मुनि अपने ध्यान में संलग्न रहे। उन्होंने राजा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया । पुनः राजा ने अपने पापपूर्ण कृत्य के लिए उनसे क्षमायाचना की । जब ध्यानयोगी साधक
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मन को दुष्कृत पृथक् होकर सुकृत की और मुड़ते हुए देखा तो उसे धर्मोपदेश दिया । उसके परिणामस्वरूप वह राजा धर्मानुरागी बना और फिर उसने संयम - जीवन
45. उत्तराध्ययन सूत्र 1-10
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