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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
3. स्तेयानुबन्धी : निरन्तर चोरी करने - कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी
एकाग्रता। संरक्षणानुबन्धी : परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी
तन्मयता। रौद्रध्यान के चार लक्षण :
1. उत्सन्न दोष : हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना। 2.
बहुदोष : हिंसादि सभी पापों में सदा संलग्न रहना। अज्ञानदोष : कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि अधार्मिक कार्यों को
धर्म मानना। 4. आमरणान्त दोष : मरण काल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना। रौद्र का अर्थ रुद्रता या क्रूरतापूर्ण आचरण है। हिंसा ऐसा कर्म है जिसे करते समय व्यक्ति अत्यन्त क्रूर होता है। उसमें करुणा या दया का भाव सर्वथा लुप्त हो जाता है। इसलिए वह निरन्तर वैसी प्रवृत्ति में संलग्न रहता है। वह कुत्सित, दोषपूर्ण या मिथ्याशास्त्रों के संस्कार के कारण हिंसादि पापपूर्ण कार्यों को धर्म मानता हुआ उनमें संलग्न रहता है। इन प्रवृत्तिमूलक चिह्नों या लक्षणों को देखने से यह परिज्ञात होता है कि अमुक व्यक्ति रौद्रध्यान की स्थिति में है।
आर्त्त, रौद्रध्यान के स्वरूप, लक्षण, दुष्परिणाम इत्यादि का जब भलीभाँति ज्ञान हो जाता है तब व्यक्ति उन पर गहराई से चिन्तन करता है, फलस्वरूप उसके मन में यह भावोद्रेक प्रकट होता है कि वह अपने आप को इनसे बचाये।
धर्मध्यान : धर्मध्यान चार प्रकार का कहा गया है, (1) आज्ञाविचय (2) अपायविचय (3) विपाकविचय (4) संस्थानविचय।
आज्ञा का अर्थ तीर्थंकर देव की धर्मदेशना या धर्मोपदेश है। विचय शब्द विचार का सूचक है। इस ध्यान में साधक जिनप्ररूपित तत्त्वों, सिद्धान्तों के चिन्तनविमर्श में अपने आपको संलग्न करता है, अन्य सब ओर से उसकी दृष्टि हट जाता है। इसी में वह अपने को लीन बना देता है। ~~~~~~~~~~~~~~~ 17 ~~~~~~~~~~~~~~~
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