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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
हो जाता है। इसका आशय यह है कि यदि ग्राहक सम्यक् ज्ञान, सद्बुद्धि सचिन्तन युक्त हो तो वह अपनी परम्परा से भिन्न मान्यताओं से भी किसी सद्वस्तु को गृहीत करता है तो उसके लिए वह उपादेय है। ऐसा करने में सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती। इस तात्त्विक मान्यता ने जैन धर्म एवं दर्शन को अत्यन्त व्यापक विस्तार पाने का अवसर प्रदान किया है।
भगवान महावीर ने जन-जन के कल्याण के लिए अपने सिद्धांतों के प्रसार हेतु प्राकृत भाषा को स्वीकार किया, जो उस समय धार्मिक क्षेत्र में शास्त्रीय भाषा के रूप में स्वीकृत नहीं थी। निम्नांकित श्लोक से यह स्पष्ट होता है :
बाल-स्त्री-वृद्ध-मूर्खाणां, नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥'
भगवान महावीर ने बालक, स्त्री, वृद्ध एवं अशिक्षित उन सभी लोगों पर जो चारित्र की आकांक्षा करते हैं, अनुग्रह करते हुए उनके कल्याण के लिए प्राकृत भाषा में धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश दिया।
“भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ''3
इत्यादि उक्तियाँ इसी भाव की द्योतक हैं। भगवान महावीर ने भाषा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रान्ति की। यहाँ इसका उल्लेख करने का यही आशय है कि प्राणिमात्र के हित के लिए, आध्यात्मिक उत्थान के लिए अपने सिद्धान्तों के अनुरूप किसी भी विधा को स्वीकार करने में जैन परम्परा के महापुरुष कभी उदासीन नहीं रहे।
___ यही बात योग के क्षेत्र में भी योजनीय है। जैनाचार्यों के मन में निस्सन्देह यह चिन्तन उभरा हो कि यदि अपने धर्म व दर्शन के आत्मशुद्धिमूलक कर्मक्षयकारक सिद्धांतों को योगसाधना के रूप में प्रस्तुत करें तो उनके आध्यात्मिक अभियान में एक नया आयाम जुड़ सकता है। इस क्षेत्र में सबसे पहले पादन्यास करने वाले महामहिम आचार्य श्री हरिभद्रसूरि थे। वे स्वभाव से ही महान् उत्क्रान्तचेता थे। विद्वान् ब्राह्मण कुल में उनका जन्म हुआ था। वेद-वेदांग आदि विभिन्न शास्त्रों के वे पारगामी विद्वान् 2. दशवैकालिक वृत्ति पृ. 223 3. समवायांग सूत्र 34.22, 23
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