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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
रूप के प्रति मूर्च्छा रहित बनकर ध्यान - निरत रहते । छद्मस्थ काल में धर्ममूलक उत्तम अनुष्ठान में पराक्रमशील रहते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद का सेवन नहीं किया। 17
आचारांग सूत्र की शीलांकाचार्य टीका में, आचारांग चूर्णि एवं आवश्यक चूर्णि में भगवान महावीर की ध्यानसाधना के संदर्भ में विवेचन करते हुए बताया गया है कि वे मुख्यतया ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक में विद्यमान जीव - अजीव आदि तत्त्वों का आलम्बन कर ध्यान करते थे ।
ऊर्ध्वलोक के अन्तर्गत आकाशदर्शन, अधोलोक के अन्तर्गत भूलोकदर्शन, मध्यलोक के अन्तर्गत तिर्यक् भित्ति दर्शन, इन लोकों में विद्यमान तत्त्वों का आलम्बन लेकर भगवान ध्यान करते थे। क्योंकि लोकचिन्तन में उत्साह, पराक्रम और चेष्टा या सक्रियता का आलम्बन आधार होता है । ऊर्ध्वगति, अधोगति एवं तिर्यक् ति के हेतु बनने वाले भावों का लोकत्रय के दर्शन से परित्याग कर लिया जाता है ।
नेत्रों को निर्निमेष विस्फारित, उद्घाटित रखते हुए ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक के बिन्दु पर स्थिर करने से तीनों लोकों को परिज्ञात किया जा सकता है।'
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और भी कहा गया है - भगवान महावीर निष्कषाय तथा आसक्तिरहित, शब्द एवं रूप आदि में मूर्च्छाशून्य आत्मसमाधि में अभिरत होकर ध्यान करते थे । ध्यान के संदर्भ में उनका समय, स्थान या वातावरण विशेष का कोई आग्रह नहीं था ।
वृत्तिकार के अनुसार भगवान महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में कषायादि प्रमादों का सेवन नहीं किया। चूर्णिकार ने इस संदर्भ में विशेष रूप से भगवान की छद्मस्थ अवस्था में अस्थिक ग्राम में एक बार अन्तर्मुहूर्त के अतिरिक्त निद्रारूप प्रमाद के सेवन करने का उल्लेख किया है। 19 प्रमाद के पाँच भेदों में मद- विषय - कषाय, निद्रा और
17. आचारांग सूत्र 1.9 107-108
18. (क) आचारांग शीला. टीका, पत्रांक 315
(ख) आचारांग चूर्णिमूल पाठ टिप्पण सूत्र 320 (ग) आवश्यक चूर्णि पृ. 324
19. चूर्णि ( 1 ) (क) आचारांग शीला, टीका पत्रांक 315
(ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 321
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