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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
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रहा है। इसलिए उसका विवेचन 'विसुद्धिमग्ग' जैसे बहुत ही कम ग्रन्थों में प्राप्त होता है । विनयपिटक, सुत्तपिटक एवं अभिधम्मपिटक ये तीन बौद्ध धर्म के आधारभूत ग्रन्थ हैं। सुत्तपिटक के अनेक सूत्रों में भगवान बुद्ध ने समाधि की शिक्षा दी है। आगे चलकर आचार्य बुद्धघोष ने 'विसुद्धिमग्ग' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें इस विषय का सुन्दर प्रामाणिक रूप में वर्णन है । हीनयान की दृष्टि से उसमें ध्यान योग का विस्तार से विवेचन हुआ है। महायान सूत्रालंकार तथा योगाचार में, दसभूमिशास्त्र में ध्यान योग का निरूपण हुआ है।
बौद्ध साधना में ध्यान के साथ ही समाधि, विमुत्ति, समथ, भावना, विसुद्धि, विपस्सना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठान, पधान, निमित्त, आरम्भण आदि शब्दों का भी उपयोग और विश्लेषण हुआ है। इनमें ध्यान और समाधि प्रमुखत: पारिभाषिक शब्द माने गये हैं। भगवान बुद्ध ने चित्तशुद्धि के लिए ध्यान का प्रतिपादन किया है। पालिभाषा में ध्यान को 'झान' कहा जाता है। इसकी व्युत्पत्ति 'झायति' क्रिया से हुई है, जिसका अर्थ होता है - चिन्तन करना अथवा भावना करना । बुद्धघोष ने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से की है
झायति उप-निज्झायति - ज्ञानं ।
इमिना योगिनो झायन्तीति - झानं । 1
ध्यान का दूसरा अर्थ वृत्तियों को जलाना भी किया गया है।
पच्चीका धम्मे झायतीति झानं अथवा
पच्चनीक धम्मे दहति गोचरं वा चिन्तेतीति अत्थो || 2
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खण्ड : प्रथम
समाधि ( सम् + आ + धा) शब्द का प्रयोग चित्त की एकाग्रता (चित्तस्स
एकग्गता) या समता के संदर्भ में किया गया है। 3 बुद्धघोष ने इस परिभाषा में 'कुसल' शब्द और जोड़ दिया है कुसल चित्तेकग्गता । यहाँ " सम्मा समाधीति यथा समाधि, कुसल समाधि । 94 कहकर बुद्धघोष ने स्पष्ट करने का
91. समन्तपासादिका, पृ. 145-146
92. वही, पृ. 145-46
93. धम्मसंगणि, पृ. 10 94. विसुद्धिमग्ग पृ. 4
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