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खण्ड : प्रथम
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में योगशतक (जोगसयण) और योग - विंशिका ( जोगविहाण वीसिया ) नामक ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थों में अनेक प्रकार से जैनयोग का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है, फिर भी रचनाकार को सन्तुष्टि प्राप्त न होने से उन्होंने पातंजल योगसूत्र में वर्णित योगसाधना और उसकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन योग साधना की तुलना की है। 30
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
'योगबिन्दु' में योग की भूमिका पर विचार करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय ये पाँच प्रकार बताये। साथ ही योग के अधिकारी के अपूर्वबन्धक, सम्यकदृष्टि, देशविरति और सर्वविरति ये चार विभाग किये। 'योगदृष्टिसमुच्चय' में उन द्वारा निरूपित - आविष्कृत मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कांता, प्रभा एवं परा नामक आठ योगदृष्टियाँ योग के क्षेत्र में निःसन्देह उनके मौलिक चिंतन की देन हैं। 31
'योगशतक' में योग के निश्चय और व्यवहार ये दो भेद किये गये हैं । 'योगविंशिका' में धर्मसाधना के लिए की जाने वाली साधना को योग की संज्ञा से अभिहित किया गया है और योग के स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन ये पाँच भेद बतलाये हैं ।
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हुए।
आचार्य हरिभद्र के पश्चात् आचार्य हेमचन्द्र इस परम्परा में मील के पत्थर उनके द्वारा प्रणीत योगशास्त्र एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें पातंजल योगसूत्र अष्टांगयोग की तरह श्रमण एवं श्रावक जीवन की आचार - साधना का उल्लेख है । साथ ही इसमें आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है । पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के चार भेदों का भी बड़ा गम्भीर विवेचन किया गया है। पिण्डस्थ ध्यान की उन्होंने पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी, वारुणी तथा तत्त्वभू नामक पाँच धारणाओं का प्रतिपादन किया है। इसमें पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आत्मस्वरूप के आधार पर ध्यान करने का बड़ा विलक्षण विश्लेषण है । 32
'ज्ञानार्णव' आचार्य शुभचन्द्र की प्रसिद्ध रचना है। इसमें प्राणायाम और
30. योगबिन्दु 419-420
31. योगदृष्टिसमुच्चय 21.186
32. योगशास्त्र 7.10.25
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