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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
खण्ड: प्रथम
पद्धति को जानने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। 'विपश्यना' और 'प्रेक्षा' इसी के विकसित रूप हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में अभ्यन्तर तप के भेदों का जो उल्लेख उपलब्ध होता है उस पर उत्तराध्ययन की टीकाओं में विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग को, जो ध्यान का ही एक अग्रिम चरण है, जैन परम्परा में छह आवश्यक कर्तव्यों में माना गया है। अत: आवश्यक सूत्र पर लिखी गई आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि आदि में इस संबंध में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। आवश्यक सूत्र पर अनेक टीकायें लिखी गई हैं, वे सभी कायोत्सर्ग के संबंध में विस्तार से प्रकाश डालती हैं। इसी प्रकार स्थानांग और समवायांग तथा उनकी टीकाओं में भी ध्यान के प्रकार, लक्षणों और आलम्बनों आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है।
आगमों के पश्चात् आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय में ध्यान पर विशेष प्रकाश डाला है, यद्यपि मूल सूत्रों में जो विवेचन है वह स्थानांग और समवायांग के अनुरूप ही है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का विशेषावश्यक भाष्य यद्यपि षड़ावश्यक की विवेचना की दृष्टि से ही लिखा गया था किन्तु संयोग से विशेषावश्यक भाष्य सामायिक की विवेचना तक ही सीमित रह गया। संभवत: यही कारण रहा होगा कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यान जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर अलग से एक ग्रन्थ की रचना की जो ध्यानशतक - झाणाज्झयण के नाम से जाना जाता है। संभवत: ध्यान के संबंध में यह प्रथम स्वतंत्र रचना है।
जिनभद्रगणि के इस 'ध्यान शतक' या 'झाणाज्झयण' से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे जैन परम्परा की ध्यान साधना विधि के एक मर्मज्ञ साधक एवं विवेचक थे।
पूज्यपाद देवनंदि का समाधितंत्र आध्यात्मिक अनुभूतियों का अजस्र स्रोत है। इष्टोपदेश में भी पूज्यपाद ने गहरी डुबकियाँ लगायी हैं। उसे पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति अध्यात्म से तादात्म्य किए बिना नहीं रह सकता। पूज्यपाद योगानुभूति की परम्परा के आदि स्रोत हैं।
आचार्य हरिभद्र सूरि वे पहले मनीषी हैं जिन्होंने योग को एक स्वतंत्र विषय के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने संस्कृत में योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु तथा प्राकृत ~xxxxxxxxxxxxxx. 20 ~~~~~~~~~~~~~~~
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