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भारतीय संस्कृति में ध्यान परम्परा
इनके सिद्धान्तों के प्रतिपादक ग्रन्थ आज प्राप्त नहीं हैं। सम्भव है, इनका भी साहित्य रहा हो और उत्तरोत्तर अनुयायियों के घटते जाने से और फिर न रहने पर सार-संभाल के अभाव में नष्ट हो गया हो ।
श्रमण परम्परा और नहीं तो ऐतिहासिक दृष्टि से ऋषभदेवकालीन तो है ही । ऋषभदेव के बाद तेबीस तीर्थंकर और हुए, जिन्होंने इस परम्परा के विकास में अपना योग दिया। इन तीर्थंकरों में विशेष रूप से पार्श्वनाथ की परम्परा के उल्लेख पालित्रिपिटक में उपलब्ध होते हैं। वहाँ 'सामण्ण - फलसूत्त' में पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर का उल्लेख है पर उसका विवेचन नहीं । किन्तु 'अंगुत्तर निकाय' में इस सम्बन्ध में आये हुए उल्लेख से चातुर्याम संवर का कुछ स्पष्टीकरण हो जाता है। स्थानांगसूत्र' आदि आगमों से भी इसका समर्थन स्पष्ट रूप से होता है । अतः श्रमणसाधना में जैनसाधना, बौद्धसाधना से पूर्ववर्ती सिद्ध होती है।
चातुर्यामधर्म- पंच महाव्रत
जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों की संयममूलक साधना का क्रम तो वस्तुतः एकसा ही रहा है किन्तु शाब्दिक दृष्टि से वहाँ चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म के रूप में कथनभेद दृष्टिगोचर होता है । प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के शासनकाल में पंच महाव्रत - मूलक धर्म प्रचलित रहा । प्राणातिपातवर्जन अहिंसा, मृषावादवर्जन सत्य, अदत्तादानवर्जन अचौर्य, अब्रह्मवर्जन - ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहवर्जन अपरिग्रह के रूप में प्रसृत रहा। द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ से तेबीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ तक चातुर्याम धर्म संप्रवृत्त रहा ।
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8. अंगुत्तरनिकाय भा. 3 पृ. 276-77
9. स्थानांग सूत्र 266
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खण्ड : प्रथम
दोनों में तत्त्वतः समानता थी किन्तु चातुर्याम धर्म में चौथे याम में चौथे और पाँचवें महाव्रत का समावेश किया गया । अतः ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह दोनों को एक ही याम में परिगृहीत किया गया । तदनुसार स्त्री को भी एक प्रकार का परिग्रह ही माना गया। ऐसा क्यों हुआ, इस सम्बन्ध में 'उत्तराध्ययन सूत्र' में बड़ी ही सुन्दर चर्चा
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