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खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
भी मिलते हैं । बुद्ध अपने साधनाकाल में ऐसे ही एक ध्यानसाधक श्रमण आचार्य रामपुत्त के पास स्वयं ध्यानसाधना के अभ्यास के लिए गये थे । रामपुत्त के सम्बन्ध त्रिपिटक साहित्य में यह भी उल्लेख है कि भगवान बुद्ध ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् भी अपनी साधना की उपलब्धियों को बताने हेतु उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे, किन्तु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी । 24 इस प्रकरण से इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि बौद्ध परम्परा में विपश्यना की जो विधि आज तक सुरक्षित रही है वह रामपुत्त से पूर्णतः अप्रभावित रही होगी । यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि बौद्ध परम्परा में इस विधि में कुछ परिष्कार हुए होंगे किन्तु विपश्यना की यह विधि बौद्ध परम्परा की मौलिक विधि हो, यह कहना कठिन है। उसके समरूप उल्लेख आचारांग और अन्य जैन आगमों में भी मिलते हैं।
इससे यह फलित होता है कि रामपुत्त की यह विधि जैन परम्परा में समानांतर रूप से विकसित होती रही है । आगम साहित्य में रामपुत्त का उल्लेख हमें तीन स्थानों पर मिलता है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग 2' में रामपुत्त का उल्लेख है और उनका ऐसे ऋषि के रूप में उल्लेख है जो आचार के स्तर पर निर्ग्रन्थ परम्परा से भिन्न होते हुए भी मान्य रहे हैं। रामपुत्त का दूसरा उल्लेख 'अंतगड़दशाओ 26 में रामपुत्त नामक अध्ययन के रूप में मिलता है। किन्तु खेद है कि वर्तमान 'अंतगड़दशाओं' में यह अध्ययन अनुपलब्ध है । किन्तु 'स्थानांग सूत्र' में दस दशाग्रन्थों का उल्लेख करने के पश्चात् प्रत्येक ग्रन्थ के अध्यायों की सूची दी गई है। वहाँ 'अन्तगड़दशाओं' के एक अध्ययन का शीर्षक रामपुत्त है। विद्वानों का ऐसा मानना है कि 'अन्तगड़दशाओ' की प्राचीन विषय वस्तु में परिवर्तन हुआ है और किन्हीं अज्ञात कारणों से वह अध्ययन वहाँ से विलुप्त हो गया । रामपुत्त का तीसरा उल्लेख ऋषिभाषित 7 में मिलता है। ऋषिभाषित में रामपुत को अर्हत् ऋषि कहा गया है। मात्र यही नहीं उनके उपदेश को भी सार रूप में प्रस्तुत किया गया है। वे कहते हैं कि "मैं असमाधित अशुभलेश्या वाला हूँ,
24. Dictionary of Pali Proper Names, By J. P. Malal Sekhar Vol. 1 P. 382-83
25. सूत्रकृतांग सूत्र 1.3.4.2-3
26. स्थानांग 10.133 इसमें अन्तकृतदशा की प्राचीन विषयवस्तु का उल्लेख है। 27. इसिभासियाइं अध्याय 23
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