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३६ : जैनधर्म का यापनीथ सम्प्रदाय
है । इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख हमें कडब के सन् ८१२ ई० के एक अभिलेख में प्राप्त होता है। इस अभिलेख में इस गण के आचार्यों को परम्परा इस प्रकार दी गई है-श्री कित्याचार्य, इनके पश्चात् अनेक आचार्यों के होने पर श्री कूविलाचार्य, श्री विजयकीर्ति और श्री अर्ककीर्ति । इस अभिलेख की विशेषता है कि इसमें स्पष्ट रूप से 'श्रीयापनीय नन्दीसंघपुन्नागवृक्षमूलगणे' श्री कित्याचार्यन्वये' ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इस अभिलेख में यह भी बताया गया है कि अर्ककीति ने चाकिराज के भानजे विमलादित्य की शनिबाधा दूर की थी और उसी चाकिराज को प्रार्थना पर गोविन्दराज 'तृतीय' ने शिलाग्राम में जैन मंदिर के प्रबन्ध के लिए जालमंगल नामक ग्राम प्रदान किया था। इस शिलालेख में उल्लिखित अर्ककीर्ति को श्री नाथूरामजी प्रेमो ने शाकटायनव्याकरण के कर्ता पाल्यकीति का गुरु या सधर्मा होने की सम्भावना व्यक्त की है।
। इसके पश्चात् 'पुन्नागवृक्षमूलगण' से सम्बन्धित रढ्वग का सन् १०२० ई० का अभिलेख प्राप्त होता है। इस अभिलेख में पुन्नागवृक्षमलगण के कुमारकीर्ति पण्डितदेव का उल्लेख है । पुनः हासुर (धारवाड़) के सन १०२८ के एक अभिलेख में यापनीय संघ के पून्नागवक्षमलगण के आचार्य जयकीति का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार हलि के अभिलेख में भी यापनीय पुन्नागवृक्षमूलगण भट्टारक बालचन्द्रदेव और रामचन्द्रदेव के उल्लेख मिलते हैं।' सन् ११०८ ई० के कोल्हापुर के शिलहारवंशीय बल्लालदेव और गण्डरादित्य के शासनकाल में मूलसंघ, पुन्नागवृक्षमूलगण को आर्यिका रात्रिमतिकन्ति की शिष्या बम्मगउण्ड ने एक मंदिर का निर्माण करवाया था। उस अभिलेख में पुन्नागवृक्षमूलगण को मलसंघ से सम्बन्धित बताया गया है इस आधार पर गुलाबचन्द्र चौधरी ने
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, ले० ० १२४ २. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी, पृ० १६७ । ३. Journal of Bombay Historical Society Vol.53 p. 102.
देखें, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृष्ठ २४८ । ४. साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शन्स, खण्ड १२, नं० ६५, मद्रास १९४० ५. जनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, लेख क्र० १३० ६. वही भाग २, ले० क्र० २५०
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