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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ३५ 'मूलगण' कहते रहे होंगे-जिसका आगे विभाजन होने पर उपर्युक्त तोन गण बने, किन्तु सभी ने 'मुलगण'- यह पद सुरक्षित रखा। कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण
इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख कोल्हापुर के सन् ४८८ ई० के एक अभिलेख में हुआ है । इसमें कनकोपल आम्नाय के जिननन्दि को एक जैन मंदिर हेतु गाँव तथा कुछ जमीन देने का उल्लेख है। इसमें जिननन्दि के साथ ही सिद्धनन्दि, चितकाचार्य और उनके गुरु के रूप में नागदेव का उल्लेख हुआ है। यह कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण यापनीय संघ से सम्बन्धित था, इसका एक प्रमाण यह हो सकता है कि कडब के अभिलेख में जो आचार्यों की सूची दी गयी है उसमें कित्याचार्यान्वय (चितकाचार्यन्वय) का भी उल्लेख है।२ कित्याचार्य या चितकाचार्य का यह अन्तर उच्चारण भेद या लेखन की भूल के कारण हो सकता है । यापनीय परम्परा से ही आगे कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण, श्रीमूल मूलगण और पुन्नागवृक्ष मूलगण निकले । कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण का उल्लेख हमें इसके पश्चात् कहीं नहीं प्राप्त होता है, अतः यह गण कब विलुप्त हो गया, यह कहना कठिन है। श्रीमलमूलगण
देवरहल्लि (देवलापुर प्रदेश) में पटेल कृष्णय्य के ताम्रपत्रों पर सन् ७७६ ई० के एक अभिलेख में श्रीमूलमूलगण का उल्लेख मिलता है । इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि इस गण में एरेगित्तर गण और पूलिकल गच्छ भी था । इस अभिलेख में इस गण की आचार्य-परम्परा इस प्रकार दी गई है-चन्द्रनन्दी, कीर्तिनन्दी और विमलनन्दी। श्रीमलमूलगण का भो आगे कोई उल्लेख नहीं मिलता है अतः आगे इस गण का भी क्या हुआ-यह ज्ञात नहीं जैसा कि पूर्व में सूचित कर चुके हैं प्रो० गलाब चन्द्र चौधरी ने इन दोनों गणों के साथ स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का उल्लेख न होने पर भी इन्हें यापनीय संघ का ही गण माना है । पुन्नागवृक्ष मूलगण
यापनीय संघ के गणों में पुन्नावृक्षमूलगण सबसे अधिक दीर्घजीवी
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, ले० क्र० १०६ । २. वही, भाग २, ले० क्र. १२४ । ३, वही भाग २ ले० क्र० १२१
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