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होगया है तब उसी स्थान पर ही मुख या दुस की मभावना की जामवेयी, नतु सर्व शरीर पर ।
सो यह पक्ष प्रत्यक्ष में विरोध रखता है क्योंकि ऐसा देखने में नहीं आता है कि शरीर के किसी नियत स्थान पर ही सुस या दुस का अनुभव किया जा सकता हो।
अतण्व सिद्ध हुआ कि आत्मा को अनुरूप मानना युक्ति सगत नहीं है । यदि ऐमा कहा जाय कि जिस प्रकार दीपक एक स्थान पर ठहरने पर प्रकाश सर्वत्र करता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के विषय में भी जानना चाहिये।
सो यह क्थन भी युक्ति शून्य हैं क्योंकि वायु आदि के आपात मे दीपक को हानि पहुच मक्ती है नतु प्रकाश को। इस क्थन से तो हमारा प्रथम पक्ष ही सिद्ध होगया जो कि हमने कहा था कि नियत स्थान पर ही सुख या दुख का अनुभव होना चाहिये । अण्व अनुरूप जीय मानना युक्तियुक्त नहीं है।
अपितु जिस प्रकार अनुरूप जीय मानने पर आपत्ति भाती है ठीक उसी प्रकार विमु मानने पर भी दोषापत्ति आजाती है जैसे कि- जय जीव को विमुरूप माना गया सब सुख षा दुस का अनुभव