Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library

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Page 189
________________ पीडा ही है तथा शरीर का कापना, अत्यत परिश्रम [ थकावट ] मानना, पमीना थारम्बार आना, सिर मे चपर आने, चित्त भ्रमण करते रहना' प्रत्येक कार्य के परते ममय मन म ग्लानि उप्तन्न होनाना और अत्यत निपल होजाना इतनाही नहीं किंतु दिना महारे से थैठा भी न जाना, फिर क्षयादि रोगों का उत्पन्न होजाना यह सर मैथुन क्रीडा के ही पल हैं। अतएय तेज के घट जाने से कौनसा शारिरीक दोप है जो इसके सेवन से उत्पन्न नहीं होसता? जिनदास -इसके अतिरिक्त क्या फोई और भी शरीर को हानि पहुचती है ? जिनदत्त-प्रिय । जब क्षयादि रोग उतन्न होगए तो फिर उनसे बढकर और क्या हानि होती होगी। क्योंकि जप गरीर का ही तेज घट गया तो फिर शेप रहा ही क्या ? तथा जब स्वाभायिक पल का नाश हो गया तो फिर उस व्यक्ति को कृत्रिम बल क्या पना सत्ता है ? क्याकि जो पुष्पों पर स्वाभाविक्ता से सौंदर्य होता है यह सौंदर्य क्या घस्रों पर आमता है ?

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