Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Swarup Library
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ॐ श्री जैनधर्म- शिक्षावलिका Į ( भाग सातवां ) लेखक पाध्याय जैन मुनी श्री आत्मारामजी (पानी) प्रकाशक श्री जैन स्वरूप लायनरी, म्याचरोद ( ग्वालियर ) मुद्रक - सरदार प्रिंटिंग वर्क्स, इदोर ** Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य। प्रिय सुज्ञ पुरुपा । जैन दर्शन में सग्रह नय के मत से जीव और अजीव द्रव्य ये दोनों अनादि अनन्त माने गए हैं। किन्तु साथ ही यह वर्णन कर दिया है कि भन्यात्माओं के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि सात्त है। सो जिन जीवों को मोक्ष के योग्य द्रव्य, क्षेन, काल __ और भाव मिल जाते हैं वे जीव अनुकूल सामग्री के द्वारा आत्म विकास करते हुए अनुक्रम से निर्वाण पद प्राप्त कर लेते हैं। वास्तव में निर्वाण पद की प्राप्ति के लिये सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र ही हैं किंतु इन तीनों का समावेश दो अकों में किया गया है जैसे कि "ज्ञान क्रियाभ्या मोक्ष " मान और क्रिया से ही मोक्ष पद प्राप्त हो सक्ता है। सो मुमुक्षु आत्माए सदैव उक्त दोनों पदार्थों के आराधन में लगी रहती हैं । परन्तु काल की घडी विचित्र गति है जो वह अपना प्रभाव दिसाये बिना नहीं रहता जैसे कि -इस काल में प्राय• लोगों की रुचि धार्मिक क्रियाओं की और दिन प्रति दिन न्यून होती जारही है। यद्यपि इसमें काल दोष भी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना जाता है किन्तु माथ ही यह कहे बिना भी नहीं रहा जाता कि धार्मिक शिक्षाओ की और जनता का ध्यान बहुत न्यून है इसीलिये दिन प्रति दिन सदाचार के स्थान पर पदा. चार अपना आसन जमा रहा है। जाता का ध्यान फिर पदाचार से हटकर सदाचार की और झुक जाय इसी आशा से प्रेरित होकर इस जैन धर्म शिक्षावटी नामक पुस्तक की रचना की गई है। इस भाग में सूक्ष्म और स्थूल दोनों विपयों का समावेश किया गया है जो विद्यार्थियों के लिये अत्यन्त उपयोगी समझा गया है। इस बात में कोई भी मदेह नहीं है कि यावत्वाल पयंत विद्यार्थियों को योग्यता पूर्वक शिक्षण न दिया जायगा, तावत्काल पर्यंत वे धार्मिक क्रियाओं मे अपरिचित ही रहते है। अतएव अध्यापको को उचित है कि वे विद्यार्थियों को जो सूक्ष्म विषय मी हो वे बही योग्यता पूर्वक सिखलायें जिससे वे धार्मिक तत्वा से पूर्णतया परिचित होजार । यदि विचार कर देखा जाय तो यह मली भाति विहित हो जाता है कि धार्मिक शिक्षा ही के बिना देगा या धर्म का अध पतन हो रहा है। यदि योग्यता पूर्वक धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार किया जाय तब निस प्रकार वर्षा के होने पर पुष्प विकसित होने लग जाते है ठीक उसी प्रकार धार्मिक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ शिक्षाओं के मेवन से आत्माएं भी विकास के मार्ग में प्रविष्ट होने लग जाती हैं जिससे फिर कदाचार कोसों दूर भागने लगता है । इस लिये प्रत्येक व्यक्ति को सबसे प्रथम धार्मिक शिक्षाओं की ओर ही ध्यान देना चाहिये । तथा ---- इन सात भागों में यथा योग्य और जिस प्रकार बालक धार्मिक शिक्षाओं से विभूषित होकर अपने आत्मा को विकास मार्ग की और लेजा सके उसी प्रकार से उद्योग किया गया है । तथा जिस प्रकार श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन समाज ने इस पुस्तक के छ भागो को अपनाया है ठीक उसी प्रकार इस पुस्तक के सातवें भाग को भी अपनाकर अपने होनहार बालकों को जैन धर्म की परम मार्मिक शिक्षाओं से विभूपित करें जिससे उन बालकों का स्वभाव सदाचार की ओर ही लगा रहे । 1 शास्त्रों में श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने धर्म प्राप्ति के मुख्यतया दो कारण ही प्रतिपादन किये हैं जैसे कि सुनना और फिर उसका अनुभव द्वारा विचार करना | इन दोनों कारणों से धर्म प्राप्ति हो सक्ती है । क्योंकि जन सुनते हैं किंतु अनुभव नहीं करते तदपि धर्म प्राप्ति से यचित ही रहना पड़ता है । यदि अनुभव के Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ द्वारा ठीक विचार कर सकते हैं किंतु किसी धार्मिक शिक्षाओं को सुनते नहीं तो फिर धर्म से वचित रहना पडता है । अतएव सिद्ध हुआ कि धर्म का सबसे प्रथम श्रवण करना मुख्य कर्तव्य है फिर उसका अनुभव द्वारा निश्चय करना विशेष कार्य साधक है । 1 अतएव श्री भगवान की परम शिक्षाओं का अनुपालन हुए प्रत्येक प्राणी को चाहिये कि वह धार्मिक शिक्षाओं से करते विभूशित होकर मोक्षाधिकारी पर्ने । सुझेषु किं बहुना । भवदीय, उपाध्याय - जैन मुनि आत्माराम పొంచి Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन धर्म शिक्षावली. सातवा भाग नमोत्युण समणस्स भगवतो महावीरस्स (ण) प्रश्न -जोर क्मेि कहते है ? उत्तर ---जो आयुष्य कम रे नाग अपना जीवन व्यतीत स्ता है। प्रश्न -नीव मादि है या अनादि ? उत्तर -जीव अनादि है प्रश्न --सादि किसे कहते है ? उत्तर -निसकी आदि हो प्रश्न.-अनादि किसे कहते हैं ? उत्तर --जिसकी आदि न हो प्रश्न-जन आयुग्य कर्म के क्षय होनेसे जीन की मृत होना सिद्ध है तो फिर जीन अनादि किस प्रकार रहा ? उत्तर --आयुष्य कर्म के क्षय होजानेसे शरीर और जीय फा जो परस्पर सम्बन्ध हो रहा था उसका वियोग हुआ परतु आत्मा का नाश नहीं हुआ क्योंकि आत्मान Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ उस शरीर को छोडकर फिर अन्य शरीर धारण कर लिया परंतु जीव का नाश किसी प्रकार मे भी नहीं माना जा सकता कारण कि अनादि पदार्थों का नाश नहीं होना - नीव नित्य है या अनित्य ? -- प्रश्न उत्तर न किसी अपेक्षा से नित्य भी है और अनित्य भी है प्रश्न -म अपेक्षा का वर्णन कीजिये जिसमे जीव की नित्यता या अनित्यता भली प्रकार से जानो ना सके? उत्तर - नीवद्रव्य की अपेक्षा से जब हम विचार करते हैं तय द्रव्यार्थिक नय के मत मे सिद्ध होता है कि जीवद्राय स्वकीय द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, शाश्वत है, न है तीनों काल में एक रस मय है tितु जब हम क्मों की अपेक्षा स इसकी पयार्यां पर विचार करते है तन निश्चित होता है कि जीव द्रव्य अनित्य है जैसे कि - जन जीव स्वक्मीनुसार चारों गतियों में परिभ्रमण करता है तत्र गतिया की पर्यायों की अपेक्षा से जीव में अनियता आजाती है क्योकि " उप्ताद, व्यय, भौव्य " द्रव्य का लक्षण माना गया है अतएव जब पूर्व पर्याय का नाश होता है तब उत्तर पर्याय का उप्ताद माना जाता है जैसे कि कोई जीव मनुष्य जन्म की पयाय को - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोडकर देव पर्याय को प्राप्त होगया तब उसके मनुष्य पर्याय का तो नाश और देव पर्याय का उप्ताद माना जाता है किंतु जीवद्रव्य की धौव्यता दोगों पर्यायों में सदाप रहती है अतण्व द्रव्यत्व की अपेक्षा जीवद्रव्य नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से जीवद्रव्य अनित्य है. प्रश्न-जीव द्रव्य अनादि क्यों है ? उत्तर ---इसके कारण की अनुपरधना है क्योंकि जिन कायां का कारण सिद्धये कार्य अपनी अनादिता सिद्ध नहीं कर सके अन जिन २ पदार्थों के कारणता का अभाव माना जाता है वे पदार्थ अनादि होते हैं प्रश्न --अनादि रिम पहते हैं उत्तर --जिसकी आद उपर ध न हो प्रश्न -रोमा कोई रात दो ? उत्तर से जीवद्रव्य यो ही ले लीनिये क्योंकि यह द्रव्य भी अनादि माना गया है प्रश्न -इसके अतिरिक्त कोई अन्यभी हेतु है । उत्तर --हा जैसे आकाशास्तिकाय वा धर्मास्तिकाय, अध. मास्तिकाय इत्यादि प्रश्न -जीवनय " Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर --जीप द्रव्य तो पट व्या म येयर एक ही भेद नाग है परतु मुग्यतया इसके दो भेट हैं जैसे कि बद्ध और मुर प्रश्न ---गुक्त जीय फे कितने भेट है? उत्तर --मुत्र आत्मा भेदों स रहित है पातु म्यपदार य की अपेक्षा स ( प्रकार के जीय मिद्भगति प्रान करते हैं प्रश्न- १५ भेद कोन २ मे " उत्तर --एकातना से प्रवण कीनिये १ नित्य सिध्दा-निगममय भातीयर देव अपन धमापन व्दारा माधु, माची, भाया और पारिका रूर चाग नीर्थों की स्थापना करते हम नीयम जो जात्मा ज्ञानाचरणीय, रशनावरणीय, बन्नाय, मोहनीय, आयुष्यकम, IITम, ग नाम जार अत राय इन आठों वर्मा को सय कर निवाण पर प्राप्त करते हैं ग्न जीया यो ताथमिट कहते हैं • अतित्थ सिटा--नवतय श्री भगवान ने अपने धमापदश व्दारा तीथ स्थापन नहा पिया म ममा कोई आत्मा मोक्ष पद प्राप्त कर रेघ २५ उमको अतीय मित काम हैं जैसे कि भगवान अपभन्न प्रभु की मरदवा माता ने निया पद प्राप्त किया था Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तित्थयर सिध्दा तीवर पद पाकर जो जीन मि पद प्राप्त करते हैं यह तीरसि कहते हैं क्योंकि यह पद एक विशेष होता है - पुण्य के कारण में माप्त ५ ४ अतियरत्थ सिद्ध जो मामान्यकेवली होकर राग और द्वेष के य मोers होते हैं क्योंकि होने से ही ज्ञान की प्राप्ति प्रत्येक जीव कर महा है किन्तु तीर्थकर नाम विशेष पुण्य के य से प्राप्त होता है वैवज्ञान प्रत्येक जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनी, और उतराय कर्म के जय करने से प्राप्त कर मरता है • स्वयबुध्द सिध्दाः -- कमी के उपदेश के निना arrana are afar होजाना और फर बलवान पाकर मोन पर प्राप्त करना इसे स्वयद्व मि कहते हैं । - ६ पनेय व सिद्धा किसी एक नस्तु को देयार जो नो ग्राम करता है हमे प्रत्येक द्ध कहन हैं जिस प्रकार नमराजपि चूडियो का सुनहर नोद्ध प्राप्त होगए इस प्रकार अनेr व्यक्ति ऐसे होगए हैं जो प्रत्येrद्ध होकर मोलारुढ हुए हैं ७ बुद्ध बोहिय सिध्दा:- जो गुरु के उपदेश Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्दारा धर्म के मर्म को समझकर फिर दोजित हुए और फिर कर्म क्षयकर मोक्ष पद जिन्हाने प्राप्त किया है उन्हषो बुद्ध योधिन सिद्ध कहते हैं ८ इत्थलिंग सिध्दा:-नो स्त्री ये येप (रिन्छ ) में फेवलज्ञान पाकर मोक्ष होगा है उन्हें स्रोलिंग सिद्ध कहते है जैसे चदनयालादि अनेक आर्याएँ मोक्ष गई हैं क्योंकि श्रीयेद मोक्ष पद या याधक है नाके स्त्रीलिंग ९ पुरिस लिंग गिध्दा - जो पार्टिंग में मोक्ष गए है जैसे गौतमस्वामी आदि अनेक महापुर राग द्वेषादि अतरंग शत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान प्राप्त किया फिर धारा अघातिये मे क्षयवर मोक्ष पक्ष पाया उन्ह पुरुपटिंग सिद्ध पहते है ★ १ नपुंसक लिंग सिध्दा -जो नपुमकलिंग में रहने वाले जीव हैं जन उहाने आठों कमी को क्षयवर दिया तब वे मोक्षारू होगए अत उनका नाम नपुसकलिंग सिद्ध है ११ सर्टिंग सिध्दा -जैन मुनि के वेप म जो ज्ञाना वरणीय, दर्शनावरणीय, वेन्नीय, मोहनीय, आयुष्य धर्म, नाम कर्म, गोत्रकर्म और अतराय क्म को क्षयवर मोक्ष होते हैं उन्हीं का नाम स्वलिंग सिद्ध है Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अन्नालग सिद्धा-नैन मत से अतिरिक्त जो अन्य मत हैं उनके क्षेप में जो मिद्ध होते हैं उन्हीं का नाम अन्यलिंग सिद्ध है क्योंकि मोन पद किसी मत के अधीन नहीं है किन्तु निस आत्मा का राग और द्वेप नष्ट होगया हो तथा जो आत्मा आठौं कमा से विमुक्त होगया हो यही मोक्ष प्राप्त कर सकता है १. गिहिलिग सिन्दा-गृहस्थ के वेप में सिद्वपन प्रामसर मक्ता है क्योंकि बाहा थेप, मोन पर पा नावर नई है किन्तु अतरंग अनु वा आमा कर्म मोक्ष पर के राधक है अत राग और द्वेप के सय करने वाले गृहस्थ लोग भी मोक्ष पद प्राप्त कर मकत हे एग सिध्दा--एक ममय एक ही जीव मिद्धपद प्राप्त कर तर एक मिद्धा कहानाता है १५ अणेग सिध्दा-गक समय मे यदि अनेक जीय सिद्धपद की प्राप्ति करते हैं तर अनेक सिद्ध कहे जाते हैं प्रश्न-मिद्ध आत्माओं के कौन से प्रसिद्ध नाम हैं। उत्तर-मिद्ध आत्माओं के अनक शुभ नाम प्रसिद्धि में आरहे हैं जैसे कि:-अजर, अगर, पारगत परम्पग' - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत, सिद्ध, युद्ध, मुा, परमात्मा, परमेपर इधर, शुद्वात्मा, मश, मर्वदर्गी, केरली "त्यादि अनेर नाम सिद्धारमाआ क सुप्रमिति में आरहे है प्रश्न-मिद्ध भगार या परमात्मादि नामा ये उपो मे दिम फल की प्रानि हासी १ उत्तर - आत्मा की शुद्धि होनाती है क्यापि श्री भगवान का जाप करने मे निर्मल और विशुद्ध भार पन्न हो जाते है और उन भास रेशरण में जमा अपनी रिगुद्धि का रता है प्रश्न -भा नाम रटने म आत्मा अगी विगुद्धि किम प्रचार कर सत्ता है क्यामिः यदि परमात्मा फर प्राता मानानाय र वो रिगुद्धि होता भी युति युक्त मिद्ध हो नायगा सो इश्वर पर प्रदाता तो मारा नाता ही नहा तो नाम करने में विशुद्धि रिम प्रसार मानी जा सकी । उत्तर ---जिम प्रकार एक यम्न मर युक्त लय कोइ व्यक्ति उस वस्त्र को जर पा क्षागदि के द्वारा धोता है तन उसके योग्य पुरुषार्थ के कारण मे यह यस्त्र युद्ध - हो जाता है ठीक उसी प्रकार जीय जन मिद्ध भगयान का अन्त करें +करता है तब उम प्रदेश Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथक हो जाता है जिसमे वह आत्मा विशुद्धि को प्राप्त हो जाता है । प्रश्न -भला नाम रटने से कर्म रूपी सर्प किस प्रकार भाग सकते हैं ? हुए उतर:- जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष को सर्प चिपटे होते हैं जब वे मयूर (मोर) वा गरुड के शब्द को सुनते हैं तब वे शब्द को सुनकर भाग जाते हैं । ठीक उसी प्रकार जब आत्मा अहंत वा सिद्ध भगवतों का नाम स्मरण कर लेता है तब उसके अत, करण, मे समभाव उत्पन्न होजाता है फिर उस समभाव के उत्पन्न होजाने से उसकी प्राणी मान से निर्वैरता होजाती है । जिस समय निर्वैरता हुई तब उस समय उस आत्मा के राग द्वेष के भाव > सम होजाते हैं जिस कारण से फिर वह अत्मा कर्म क्षय वा प्राय शुभ कर्मों का ही बंधन करता है । अतएव, अहं वा सिद्ध आत्माओ का आत्म विशुद्धि, के लिये पाठ अवश्य करना चाहिये - 1 , प्रश्न – कर्म शत्रु नष्ट करने के लिये ९ष्ण भावों की अत्यव आवश्यकता है क्योंकि यावत्काल पर्यंत शत्रु को उप्रभाव न दिखाया जावे तावत्काल पर्यंत' वह शत्र Jay Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पीछे नहीं छूट गयता | अत समभाव में ओं को किस प्रकार पराजय पर सकता है ? 1 उत्तर प्रियवर समभाव से द्वारा एक प्रकार की अविर शाति आत्म प्रदेश में मार में आनावी है । जिस प्रकार शीतल पल यदि किमी नीव म aft पाय तव यह उस नीति कर देता है जिसके कारण मेरि उस पर क्ष प्रामादादि ही टदर सपने है तथा पिन प्रयार हमपुत्र (यफ का ढेर) पढे २ वृक्षा को सुम्मा देता है ठीक उसी प्रकार आत्मा का समभाव कर्मों क पराजय करने में अपनी समर्थता रसता है । तथा रिम प्रकार अत्यत उष्ण और प्रचड अभि ये शार करने के लिये मेघ का जल, वार्य साधन होता है ठीक उसी प्रकार आत्मा मे समभाव में दाशुआ ये उपशम वा क्षयोपशम तथा क्षय करने में समर्थ होते हैं । प्रश्न -आत्मा में समभाव किस प्रकार उत्पन्न किया जाय ? उत्तर -- जय श्री भगवान ये जाप करने का समय उपस्थित हो जाये तब प्रथम ही प्राणि मात्र के साथ निर्वैरता ये भाव धारण करने चाहिये। फिर पाठ करने समय उनक गुणा की ओर विशेष ध्यान रखना Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ 'चाहिये क्याकि उनके गुणों के आश्रित होकर ही अपने आत्मा में गुण उत्पन्न करलेने चाहिये । समझाओ ? पक्ति की ओर एक प्रश्न - इस विषय में कोई दृष्टात देकर उत्तर -- जिस प्रकार कोई व्यक्ति पुष्प दृष्टी लगाकर देखता रहे तथा चन्द्रमा या जल की ओर देखता रहे तब उस आत्मा के चक्षुओं में शाति के परमाणुओं का राधार होजाता है जिसके कारण मे उसके चक्षुओं में धाति आजाती है। ठीक उसी प्रकार श्री भगवान का स्मरण करते हुए एकतो आत्मा में शाति का सचार होजाता है, द्वितीय वर्ग विपर्यय करने से आत्म क्ल्याण होजाता है जैसे कि - जिन ध्यान करते २ जब वर्ण विपर्यय किया गया तब निज ध्यान वन जाता है। जब निज ध्यान होगया तब जिन ध्यान करते समय जो २ गुण जिनेद्र भगवान में अनुभव द्वारा अनुभव करने में आय थे फिर वे सर्व गुण निज आत्मा मे माने जा सकते हैं प्रश्न -- इसमे कोई प्रमाण दो ? उत्तर - जिस प्रकार सिद्ध भगवान सर्वेक्ष ना सर्व दर्शी है ठीक उक्त गुण मेरे आत्मा में भी विद्यमान हैं किंतु ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के माहाम्य मे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ छुपा हुआ है। जिम प्रकार मिस मगपारित और मानमियदुनों ग रग मी प्रमा मग आत्मा भी उE गुण घाण करने में समर्थ ।। जिस प्रकार मिद भगया धाया मायावर गुणमे युग है टीक उसी प्रकार मोदनीय धर्म भय करने में वह उक्त गुग मेग आत्मा में भी उत्पन्न हो सकता है। प्रश्न --आत्म विगुद्धि परी के रिय मुख्य पान उपाय उतर --न स्त्रों में आत्म विशुद्धि पग्ने पे लिय मुग्य दो दो उपाय पधन किय गए हैं। प्रदन ---उन दो सपाया के ग पतलाय ? उत्तर-शान और प्रिया। मन --हा कि पात? उत्तर --पराया को यथाया जाना अथाा प्रत्यर पदाध में उत्पाद, व्यय और धो र य तीर गुण देख जाते है क्योकि वोय उग पाय या निज गु पितु उत्पाद और व्यय येता उम पाथ पयायिर गुण हैं मोजिम प्रसार पदार्थ म निश्चय और व्ययहार नाय से गुण पाये जाते हैं उन गुणाका उमी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार जानना यही आत्मा का ज्ञान गुण कहाजाता है सो प्रत्येक पार्थ का ठीक ज्ञान होजाना फिर क्रियाओं द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि करना इससे आत्मा विशुद्ध होकर निर्माण प्राप्त करता है जैसे कल्पना करो कि एक वस्र मलसे मलीयस होरहा है तर ज्ञान से जान लिया गया कि यह वन मल्से मलीन होगया है फिर क्रियाओं द्वारा उसे शुद्ध किया जासत्ता है जैसे कि भार पदार्थ या स्वच्छ जलादि की पूर्ण सामग्री के मिल जाने से वह वष अपने निज गुण को धारण कर लेता है ठीक उसी प्रकार असरय प्रदेशी आत्मा अनत कर्म वर्गणाओं से लिप्त होरहा है तब वे वर्गणाए तप सयमादि के द्वारा आत्म प्रदेशो से प्रथक की जासकती हैं जब वे वर्गणा सर्वथा आत्म प्रदेशों से प्रथक होजाती है सन आत्मा अपने निज स्वरूप में प्रविष्ठ होजाता है जिससे फिर उसके आमिर गुग भी प्रस्ट होजाते है। प्रश्न -निया रे द्वारा कर्म किये जाते है जब तक क्रिया का निरोधन नहीं दिया जायगा तबतक कर्म भी आने से नहीं रूकेंगे अतग्व, यह मानना मि निया से जीव कमां से रहित होजाता है यह पल्प म्वय वाधित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर -प्रिय मित्रयायं । यह पा रहाद मिसात पर अवलम्बित। पगाशि स्यादाद में प्रत्येक पदार्थ मापेक्षिक भाष में रहता है जो कि जीप सत्रिय भी है और अक्रिय भी क्यापि 37 भूमों में जीवधिया और अजीपरिया इस प्रकार किया के भेद प्रतिपादन किये गए हैं साथ ही यह भी प्रतिपादन पर दिया है कि मायाल किया और मिग्यात्य रिया यह दोनों जीय किया के भेद परतु इयांपथिली और ममुदान की रिया यह दोनों अजीय प्रिया के भेदो आत्मा सम्यक्त्य प्रिया ए दाग अजीय पिया से रहित होकर निर्याण पर प्राप्त कर देता है किन्तु जीय मिया में अपेग से जीय मोम में भी अधियता ही धारण पिये रहता है जैसे कि-य आत्मा नर्यश और सदी दो जाता है तय उम आत्मा पे माय एक उपयोग आत्मा भी रहता है। जो कि आमिर सम्यस्त्व हो नाने मे पिर आनशान में धल्पीयर्यातगय कर्म ये भय पे कारण से उपयुक्त पराता है वही जीर की अनियता (ठा) सिद्ध करता है जिन्तु निनो द्वाग आठ धमाका आत्मा के साथ अपन होनाव नपा आरमा पुगर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 के सम्बन्ध में फसा रहे उस निया के फलरूप धर्म से आत्मा विमुक्त होजाता है Į प्रश्न - आत्मा सय ज्ञानस्वरूप नहीं है किन्तु ज्ञान पाय से उत्पन्न होता है जैसे किसी को प्रथम घट का ज्ञान नहीं था जब उसने फिर किसी घट को देना तव उसको घट का ज्ञान उत्पन्न होगया तो इससे स्वत सिद्ध होजाता है जन कि घट से पूर्व उस व्यक्ति को घट का ज्ञान नहीं था किन्तु जन उसने घट को देख लिया तर उसको घट का ज्ञान होगया इसलिये आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है किन्तु ज्ञान पदार्थगत ही सिद्ध होता है । उत्तर -प्रियवर ' यह कथन आपका युक्ति बाधित है क्योंकि जन आत्मा स्वय ज्ञानस्वरूप न होता तर यह घटात पदार्थों का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त कर सक्ता? जिस प्रकार आमो को निर्मल होनेपर ही पार्थो का ठीक ज्ञान हो सक्ता है ठीक उसी प्रकार आत्मा ज्ञानस्वरूप होने पर ही पदार्थों का अवयोध प्राप्त कर सकता है क्योंकि जिस प्रकार दीपक स्वय और पर प्रकाशक होता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के विषय में भी जानना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार दीपक पदार्थों से न उत्पन्न होने पर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी परायों का प्रकाशक देसा जाता है ठीक उर्मा प्रकार आत्मज्ञान भी पदा थों से उत्पन्न न होने पर मी पदार्थों का प्रकाशक मानाजाता है। प्रश्न --शान नित्य है किन्वा अनित्य ? उतर--कथाचित् नित्य और क्थचित अनित्य भी है प्रश्न-यह दो पातें किस प्रकार मानी जाय कि ज्ञान नित्य भी है और अनित्य भी है ? । उत्तर -न मत में सर्व पदार्थों का वर्णन स्याहाद के आश्रित होकर किया गया है जैसे कि--आत्मद्रव्य निय होमेपर. उसका ज्ञागुग भी नित्य ही माना जा सकता है परतु जिन पदार्थों का ज्ञान हुआ है ये पदार्थ अनत पर्याय युक्त हैं अत “नके पूर्व पर्याय का व्यपछेद और उत्तर पर्याय का उमाद समय २ पर होता रहता है। जब पदार्थों की इस प्रकार की दशा है तथ उनके समान उताद और व्यय नयकी अपेक्षा से ज्ञान गुग में भी नित्य पक्ष और अनित्य Gr की संभावना की जासकती है। सो उक्त न्याय से मिद हुआ कि मानगुण नित्य भी है और अनित्य भी है। लिस प्रकार प्राग भाव और प्रध्वमा भार का ज्ञान रित्य और अनित्य माना जाता है, ठीक उसी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ex १७ प्रकार अन्य पदार्थों के विषय में भी जानना चाहिये प्रागभाव किसे कहते हैं ? मन - उत्तर - जिस पदार्थ का वर्तमान काल मे उम आकृति रूप का अभाव हो जैसे मिट्टी में घट । यद्यपि वह घट मृतिका रूप में सद्रूप है परंतु वर्तमान मे घटाकार में उसका अभाव माना जाता है सो इसी • का नाम प्रागभाव है wedlog प्रश्न -- प्रध्वसाभाव किसे कहते हैं ? उत्तर- जन वह घट अपने घटाकार को छोड़कर अन्य रूप को प्राप्त होजाता है अर्थात् फूट जाता है सा उमी का नाम प्रध्वसाभान है । जिस प्रकार प्रथम प्रागभाव का ज्ञान सद्रूप है ठीक उसी प्रकार प्रध्वमा भाव में भी ज्ञान सद्रूप विद्यमान रहता है। परंतु errera और प्रध्वसाभाव का परस्पर महा विरोध रहता है सो इसी में नित्य पक्ष और अनित्य पक्ष की सभावना की जासकती है । प्रश्नः -- आत्मा अनुरूप है या विभुरूप १ jyo उत्तर -यदि आत्मा को अनुरूप माना जाय तब उसके रहने का एक स्थान भी शरीर के भीतर मानना ค पडेगा । जय उस आत्मा का एक स्थान M Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगया है तब उसी स्थान पर ही मुख या दुस की मभावना की जामवेयी, नतु सर्व शरीर पर । सो यह पक्ष प्रत्यक्ष में विरोध रखता है क्योंकि ऐसा देखने में नहीं आता है कि शरीर के किसी नियत स्थान पर ही सुस या दुस का अनुभव किया जा सकता हो। अतण्व सिद्ध हुआ कि आत्मा को अनुरूप मानना युक्ति सगत नहीं है । यदि ऐमा कहा जाय कि जिस प्रकार दीपक एक स्थान पर ठहरने पर प्रकाश सर्वत्र करता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के विषय में भी जानना चाहिये। सो यह क्थन भी युक्ति शून्य हैं क्योंकि वायु आदि के आपात मे दीपक को हानि पहुच मक्ती है नतु प्रकाश को। इस क्थन से तो हमारा प्रथम पक्ष ही सिद्ध होगया जो कि हमने कहा था कि नियत स्थान पर ही सुख या दुख का अनुभव होना चाहिये । अण्व अनुरूप जीय मानना युक्तियुक्त नहीं है। अपितु जिस प्रकार अनुरूप जीय मानने पर आपत्ति भाती है ठीक उसी प्रकार विमु मानने पर भी दोषापत्ति आजाती है जैसे कि- जय जीव को विमुरूप माना गया सब सुख षा दुस का अनुभव Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १९. शरीर के अतिरिक्त वाहिर होना चाहिये मो एमा नहीं होन से यह पक्ष भी प्रत्यक्ष से विरोव रखता है तथा जन अनत आत्मा के मानने पर फिर प्रत्येक आत्मा से " विभु " रूप माना जाय तब उन आत्माओं के आत्म प्रश व कर्मों की परस्पर ममता अवश्य होजायगी । जिससे फिर सकट रोप की प्राप्ति सहज में ही होजायगी । अतएव विरूप मानना भी युक्ति युक्त नहीं है । तथा जब हम देखते हैं तय वुद्धि आदिका अनुभव शरीर के भीतर ही किया जाता हे न तु शरी से बाहर यदि ऐसा कहा जाय कि - जय किसी वस्तु का अनुभव करना होता है वन एकान्न स्थान या उ दिशा की ओर ही देखा जाता है इसमें म्पत सिद्ध है कि यदि आत्मा विमुन होता तो फिर एमन्त या उने दिशा के देखने की क्या आवश्यकता थी ? सो यह कथन भी युक्तिवाधित ही है क्योंकि जब आत्मा सर्व व्यापक ही मानलिया गया तय फिर एकान्त वा उ दिशा के देखने की आवश्यक्ता ही क्या है ? क्योंकि आत्मा सर्व व्यापक एक रसमय ही मानना पड़ेगा : नतु न्यूनाधिक । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतण्य किसी एकान्त स्थान की तो इसलिये आव श्यस्ता पडती है कि निससे कोलाहल या शादि का विशेष सकुल न हो क्योंकि तु कारणों से चिवृत्ति स्थिर न रहने से कार्य सिद्धि का प्राय अभाव सा प्रतीत होने लगता है सो उन कारणों में विभुरूप भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकी है। तय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि फिर आत्मा का प्रमाण किम प्रकार मानना चाहिये । इस प्रश्न के उत्तर में कहा जासता है कि यदि हम द्रव्यआत्माके प्रदेश की ओर देखते हैं तब तो वे प्रदेश धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा लोकाकाश के यापन-मान प्रदेश है तारमत्रा प्रदेश एक आत्मा के प्रतिपादन किये गए है। इस क्थन से तो कथचित आत्मा विभु भी माना जा सकता है। किंतु आत्म प्रदेश समुचित और विकास होने के स्वभाव के कारण से मध्यम प्रमाणवर्ती प्रतिपादन किया गया है। “नमे निम शरीर में आत्मा प्रविष्ट होता है तय " उस आत्मा के आत्म प्रदेश तारन्मान शरीर में ही व्याप्त हो जाते हैं जिससे सुरस या दुस का अनुभन करने वाला सर्व [ सारा ] शरीर देखा जाता है, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ क्योकि ज्वरादि के आवेग हो जाने पर शरीर + सर्व गोपा दुस का अनुभव करते हुए दृष्टि गोचर होते हैं । अतएव व्यवहार पक्ष मे आत्मा मध्यम परिमाणवर्त मानना युक्ति युक्त सिद्ध होता है । प्रश्नः - क्या कभी आत्मा लोक के समान लोक में व्यापक हो जाता है ? उत्तर -हा हो मता है । मठन कब ? उत्तर - जिस केवली भगवान का आयुण्यकर्म न्यून हो किंतु असातावेदनीय कर्म आयुष्यकर्म की अपेक्षा afar होवे तब उस केवली भगवान को केवलीसमुद्रात होजाता है जिसके कारण में उनके आत्म प्रदेश शरीर मे बाहिर निकलकर सर्व लोक में व्याप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार तेल का बिंदु जलोपरि विस्तार पाजाता है ठीक उसी प्रकार आत्म प्रवेश ★ Free में व्याप्त हो जाता है । यद्यपि प्राय असातावेदनीय कर्म के भोगने के लिये ही यह क्रिया होती है तथापि लोकाकाश परिमणा आत्म प्रदेशों का विस्तार हो जाना उस अपेक्षा से आत्मा त्रिभु कहा जा सका है। यद्यपि यह शा जीवकी w Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ समय तक ही रा सही है क्योंफि फिर यह आत्म प्रदेश स्वशरीर में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। तथापि क्यचित् आत्माप्रदेशों के गणना की अपेक्षा में आत्मा विमुरूप भी कहा जा सका है। पटना-जो लोक प्रकुति पता और पुरुप भोक्ता इस प्रकार मानते हैं तो क्या उनका कथन सत्य नहीं है । उत्तर-किसी प्रकार से भी उन पथन मे मत्यता प्रतीत नहीं होती। क्याकि प्रकृति जडा गुण सयुक्त है तो फिर बह का शुभाशुभ मियाओं फी किस प्रकार मिद्ध हो सकी है ? तथा जडता गुण धाली प्रकृति की प्रिया का फर पुरुप को मानना यह न्याय सगत नहीं है। __ क्योकि प्रत्यक्ष मे देखने में आता है कि पत्ती की क्रिया का पल पती को ही भोगना पडता है। जिस प्रफार शयन रूप प्रिया का फल उस कता फो ही होता है जिसने शयन किया था नतु अन्य को ठीक इसी प्रकार यदि प्रति पो ही पर्ता माना जाये तय प्रकृति को ही भोका मानना चाहिये न कि पुरुप को । यदि ऐसा कहा जाय कि आप [जैन मत म मी योगात्मा और पायात्मा को ही कर्ता माना गया है इसी प्रकार यहापर भी प्रकृति विषय जानना Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये । क्योंकि दोनो की समानता परस्पर मम है। इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है कि जो जैन मत में योगात्मा और पायात्मा किसी नय की अपेक्षा से कर्ता मानी गई है. क्योंकि उनमें भी द्रव्यात्मा का परिणमन माना गया है सो द्रव्यात्मा का परिणमन होने से ही उन आत्माओं की फर्ता मक्षा हो गई है। क्योंकि मन वचन और काय तथा शोध मान माया और लोभ यह द्रव्यात्मा के आश्रित होने से ही इनकी आत्मा सज्ञा बन गई है। सो सिद्धात यह निकला कि प्रकृति कर्ता और पुरुष भोक्ता मानना यह पक्ष युक्ति युक्त नहीं है। द्वितीय पाठ। आत्मा । शास्त्रकारों ने आत्मा विषय अनेक प्रकार से वर्णन किया है। क्योंकि आत्मा की सिद्धि हो जाने से ही फिर बद्ध और मोक्ष की मिद्धि की जा सकेगी। कारण कि बद्ध और मोक्ष कर्मों की अपेक्षा से आत्मा कथन किया गया परतु आत्मा तो एक अजर अमर अविनाशी आदि गुणों के धारने वाला है। इसमें, 5 सदेह नहीं है कि जब आत्मा" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पी मिद्धि भली प्रकार में होना तय उस ममय ही आत्मा को पुण्य और पाप आश्रर और भयर पद्ध और मुध इत्यादि विपयों को भली भांति बोध हो सका है। यपि प्रत्येक आस्तिक मत ने आत्मा का स्वरूप अपनी इच्छानुसार वर्णन किया है किंतु १६ स्वरूप मर्यज्ञान न होने से यथार्थ आत्मा का योध नहीं करा सकना है। क्याकि ये लोग स्यय ही आत्मा विपय मे भ्रम युक्त है। तो भरा पिर वे आत्मा का यथार्थ वर्णन पिम प्रकार पर मत हैं । अतएष उन रोगों का आत्मा विषय क्थन फासतोप प्रद निश्चित नहीं होता। ___ जैसे कि किमीन आत्मा अनुरूप मान लिया है तो पिर दूसरे आत्मा को विभुरूप वर्णन कर दिया है, फिमी ने यवाकार आत्मा स्वीकार किया है। तो फिर किसीने पांच स्कंधों का ममुदायरूप आत्मा मान लिया है। इतना ही नहीं किंतु किमी ने आत्मा को परमेश्वर का अश-माना, हुआ है, तो फिर किसी ने आत्मा को ब्रह्मरूप मान रक्सा है। ___किमी.ने आत्मा ज्ञानस्वरूप क्थन किया है तो फिर दूसरे ने आमा ज्ञानगुण से शून्य मान रक्सा है या किसी ने आत्मा को पर्ता माना है तो फिर फिमी ने इसका Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¦ | कर्तापन परमात्मा के समर्पण कर दिया है क्योकि जब किमी ने आत्मा को ईश्वराधीन किया तो दूसरे ने इसको भवितव्यता के आधीन कर दिया है । इतना ही नहीं किंतु अनेक प्रकार ये मन्तव्य अत्मा विषय में सुने जाते हैं जो परस्पर विरोध रखनेवाले है । } अत विचार करना पडता है कि जिन = वादियां ने आत्मा वर्णन किया है वास्तव में उन यादियांने आत्मा का विषय भली भांति अवगत किया ही नहीं। क्योंकि यह विषय युक्ति सहन नहीं करता है । अतएव श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने स्याद्वाद के आश्रित होकर उक्त विषय को यथार्थ भाव से वर्णन किया है जिसमें किसी कार में भी शक को स्थान नहीं मिल सकता | $ 3 1 हा, यह बात दूसरी है कि जहा पर हेतु काम न करे यहा हेलाभास से काम लिया जाये मो वह क्दामह कहलायगा नतु न्याय । अत जैन सूनकारों ने सामान्यतया द्रव्य प्रतिपादन किये हैं जैसे कि एक आत्मद्रव्य और दूसरा अनात्मद्रव्य । यद्यपि जीवद्रव्य को आठ गुण युक्त माना गया है जैसे कि मधेश, सर्वदर्गी आत्मि 2 - * 1 अक्षय सुग्न, क्षायिक सम्यक्त्व, निरायु, अमूर्तिक, अगोनीय और अनत शक्तिमान | } *} { Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ इन मूल गुणों के अतिरिक्त उत्तर गुण भान इस आत्मा के प्रतिपादन किये गए है 1 किंतु जब आत्मा वर्मा स युक हे सव के गु प्राय क्मों के आयरणों मे आच्छादित है। मोवी उपाधि भेद स आभा एक होने पर भी आत्मद्रव्य आठ प्रकार से वर्णन कियागया है जैसे कि - 1 १ व्यात्मा पापात्मा ३ योगात्मा ४ उपयोगात्मा १ ज्ञानात्मा, ६ दमनात्मा, ७ पारियात्मा और ८ वीर्यात्मा । जो निरंतर स्वपयाय को प्राप्त होता रहता है उसे आत्मा कहते हैं तथा जो निरंतर ज्ञानादि अर्थों में गमन करता रहता है उपयोग लक्षण से युक्त है उसी का नाम आत्मा द्रव्य है । । मोमीन काल में जो अपने द्रव्य की अम्नित्व रखता है किसी काल में भी द्रव्य से अद्रव्य नहीं होता और पायादि से युक्त है उसीको द्रव्यात्मा कहते हैं । F पर्याय कारण कि द्रव्य की अपेक्षा में दी आत्मद्रव्य अना बहाजाता है क्योकि द्रव्य नित्य और य माना जाता है सो द्रव्य नित्य प्रतिपादन किया गया है । अतण्य आत्मद्रव्य भी नित्य ही सिद्ध होगया। यद्यपि द्रव्य शब्द अर्थ द्रव्य से अद्रव्य नहीं हो सका । इसलिये' द्रव्यात्मा का अनादि प्रतिपादन किया गया है। जब द्रव्यात्मा पुगल का सम्बन्ध हो जाने से चार वस्तुओं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म गमन करने लग जाता है तब उस समय हव्यात्मा गोग रूप होकर प्रधान कपायात्मा नाम से फिर उसे कहा जाता है। क्योंकि कषाय सज्ञा शोध, मान, माया और लोभ की कथन की गई है जैसे कि यह क्रोधी आत्मा है, यह मानी आत्मा है यह मायी ( छल करने वाला ) आत्मा है या लोभी आत्मा है । मो इन चारों नामसे उन नमय द्रव्यात्मा उक्त चारों में परिणित हो जाता है । उक्त ही अपेक्षा मे फिर उमे पायात्मा कहा जाता है। ♥ 1 फिर जिस समय इन्यात्मा मन, वचन और पाय के व्यापार में प्रविष्ठ होता है उस समय उस द्रव्यात्मा को चोगात्मा कहा जाता है। इसी नय की अपेक्षा मे कहाजाता है कि अपनी आत्मा ही वा करना चाहिये । सो यहापर आत्मा शब्द से मन आदि का वर्णन किया गया है । क्याकि मनयोग, वचनयोग और काययोग में द्रव्यात्मा का ही परिणमन हुआ है । इसी कारण से दले मन योग कहते हैं 1 ! मो मनमें चार प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं उभी कारण से मन के भी चार ही भेद प्रतिपादन किये गए हैं जैसे कि जिस समय मन में सत्य सकल्प उत्पन्न होता है तब उन समय मत्यमनः योग कहाजाता है। जिस समय मन में असल्य सक्स्प उप्तन्न होता है तब उस समय असत्य मन योग कहा । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता हैपिर जय सत्य और अमन्य इस प्रकार के समन्य उमस होने लगते हैं तय उस ममय मिमिन मनायोग कहा जाना है। अपितु जय असन्य अमृषा मरस्प ना होने लगता है नत्र उम ममय व्यवहार मन योग कहा जाता है। क्योंकि " अमत्यामृपा " उमका म! जो पास्सय में असत्य ही होये परतु व्ययहार पक्ष में उसे अमत्य भी 7 पहा जा सके । अमे किमी पथिक ने कहा कि यह " प्राम आगया " सोस क्थन से यह तो भरी भानि भिर ही जाता है कि पथिक दी जा रहा है नतु प्राम उमफे पाम आ है । परतु व्यवहार पक्ष में यह याक्य पहने में आता ही है कि यह प्राम आगया है मो इस प्रकार के पन्नों का नाम " असत्यामृपा " सफल्म कहा जाता है। माँ इस प्रकार चार प्रसार के सपल्प मन योग में कहे जाते है। जन आत्मा या मन से मम्य प होगया तय उपचारक नय पी अपेक्षा से या परस्पर सम्बंध की अपेक्षा मे मन या भी आत्मा कहा जाता है। पिस प्रकार आत्मा गा मनमे मम्यप है ठीक उसी प्रकार पचन और काय के सम्पय विषय म भी जाना चाहिये । क्योकि मन योग घचनयोग और काययोग केयर आत्मा के सम्बन्ध से ही कहे जाते हैं। अतः द्रव्यात्मा को कपायारमा भीम नय की अपेक्षा से कहा जाता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो यह कपाय और योग के सम्बन्ध मे द्रव्यात्मा का परिणमने जर कपाय और योग के साथ होता है तर आत्मा की कृपयास्मा वा योगात्मा सज्ञा बन जाती है। तथा आत्मा का चेतना लक्षण और उपयोग युक्त है सो इसी न्याय से उपयुक्त होकर शास्त्रकारने एसा प्रतिपादन किया है कि -- जिम समय आत्मा ज्ञान वा दर्शन के उपयोग से उपयुक्त होता है त उसी ममय उस द्रव्यात्मा की उपयोगात्मा सशा होजाती है। , यद्यपि ऐसा कोई भी समय उपस्थित नहीं होता जर कि आत्मा ज्ञान दर्शन के, उपयोग मे शून्य होजाये तथापि सामान्य अवरोथ दान का नाम है और विशेष अवबोध, ज्ञान का नाम है । सो द्रव्यात्मा सदैव-काल ज्ञान दर्शन के उपयोग से युक्त रहने से आत्मा की उपयोगात्मा सहा बनगई है। । ___ मो उपयोग युक्त होने से उपयोगात्मा कहा जाता है तथा उपयोगात्मा के क्थन करने से ज्ञाने दर्शन की सक्रिया "सिद्ध की गई है। क्योंकि बहुत मे आत्मा को मेक्षिावस्था में ज्ञान और दर्शन मे शून्य मानते हैं सो उनका वह कथन हास्यापद है क्योकि जब मोक्षावस्था को जीव प्राप्त हुआ तत्र वह अपनी मूल की भी चेतना यो धैठा ?' ! Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इममे मिद हुआ रि उप मोश से उम आत्माको सामारिफ अवस्था ही अन्टी थी जिससे यह पता युग था और माप या दुरा पा अनुभव करता था। यदि ऐमा कहानाय कि "जाने न पानीमा मे शायी बनता है सो इम पथन मे मिद आदि सप मान का जीप से सयोग हुआ तय ही जीय पो शानी पदागया। मो जय सर आमा के साथ बात का मगोग नहीं भाया तय नम आत्मा शान मे शून्य ही माना पहा । अमाप सिद्ध हुआ कि -मानगुण आत्मा का नहीं हेमा मोक्षावस्या म ज्ञानसे शून्य आत्मा का मानना न्याय समत दे क्योकि शानसे श्रेष्ठ या निष्ठ पदायाँ पा पोध किया जाता है। जय श्रेष्ठ वा निषष्ठ पदायों का बोध हुआ तप आरमा को राग पा उप में फमा स्वाभाविक ही है। 'अत इस कारण से आत्मा को शान शून्य मााना युधिः युक्त है। मो इम शा या समाधान इस प्रकार किया जाता है कि शान फो गुण प्रत्येक पादीने स्त्री किया है सो गुग द्रव्य के आश्रिा होता ही है अत फिर ज्ञानरूप गुग का द्रव्य कौनसा स्वीकार किया जाय ? यदि ऐमा का आय कि --शान पदायों से होता है तो इसका यह समाधान है कि वह ज्ञान किमयो होता है ? क्योंकि पदार्थ दो है जैसे कि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ जीव और अजीव । यदि जीव को होता है तन जीव चैतन्यता गुण युक्त मिद्ध हुआ सो चैतन्यता ही ज्ञान का नाम है। सो इस कथन से हमारा पक्ष ही सिद्ध होगया । यदि ऐसा कहा जाय कि जड पदार्थों को ज्ञान होता है तो यह कथन तो प्रत्यक्ष ही विरुद्ध है । यदि ऐसा कहा जाय कि जड पदार्थों से ज्ञान होता है तयतो यह उक्त प्रश्न ही फिर उपस्थित हो जाता है कि किस पदार्थ को ज्ञान उत्पन्न होता है ? अतथ्य सिद्ध हुआ कि आत्मा को ज्ञान युक्त मानयुक्ति युक्त है । सो इमी की अपेक्षा से द्रव्यात्मा जब ज्ञान और दर्शन के उपयोग सयुक्त होजाता है तब उस आत्मा को उपयोगात्मा कहा जाता है । तथा उपयोग की अपेक्षा से ही आत्मा को सर्व व्यापक माना जाता है । क्योकि उपयोग की अपेक्षा से 'Hear 'आत्मा लोपालोक को हस्तामलक्वत् जानता और देखता है । जिस प्रकार सूर्य एक- आकाशवर्ती क्षेत्र में होने पर नियमित रूप से भूमि पर प्रकाश करता हुआ ठहरता है । ठीक उसी प्रकार द्रव्यात्मा एक नियमित क्षेत्र मे रहने पर भी उपयोगात्मा द्वारा सर्व व्यापक होजाता है । J I तथा जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य जिस क्षेत्रको भली प्रकार देस या उस क्षेत्र (स्थान) का अनुभव कर चका ** Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी नियमित स्थान पर बैठार आरम पुति माग बम स्थान पो भरी प्रकार अपन आत्मा द्वारा ना ! इतना ही नहीं गुि किसी पय द्वाग उम आत्मा को उम स्थान में उपयागारमा द्वाग यदि घ्यापर भी पीकार दिया जाय तो अत्युक्ति न होगी। मो पिम प्रसार मनि. शान द्वारा पदार्थों का अमर किया जाता है टीर उसी प्रयार जा परम रिशुद्ध और शिद (म) करतान३ उम के द्वारा तो पिर पाना ही क्या है " अतएप निमर्प यह फिला कि-यामा पोशान और दान तथा उपयाग युक्त मानना युधियुत सिद्ध होगा। परतु अब प्रभ यह उपस्थित होता है कि "मार का नाग या ज्ञान किसे पाहते हैं?' सो म प्रभया ममाधान अगले पाठ म किया जायगा। तृतीय पाठ ज्ञानात्मा. जिस प्रकार द्रव्यात्मा कपायारमा योगास्मा और उपयोगारमा का पूर्व पाठ में वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार इस पाठ में जानात्मा का वर्णन किया जाता है। प्रश्न-शान शब्द का अर्थ क्या है? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + - ३ उत्तर -जिसके द्वारा पदार्थों का सरूप जाना जाय उसे ही ज्ञानात्मा कहते हैं। .. प्रश्न-ज्ञान शब्द करण,मावन है या अधिकरण साधन है ? उत्तर -रणांसाधन भी है और अधिकरण साधन भी है । प्रश्न:-इस विषय में कोई प्रमाण दो |-- , उत्तर -जर ऐमा कहा जाय कि अमुफ, पदार्थ, का स्वरूप -~- . मानसे जाना गया वन तो मान,शब्द को करण....माधन माना जायगा और...अर. यह माना जाय कि ज्ञान ज्ञायक है ना ज्ञान में, प्रदार्थ ठहरते हैं . . . तब उस समय ज्ञान को अधिकरण साधन माना जायगा। .. . - प्रश्न-परण को तो साधकतम माना गया है सो करण क्ता की रिया मसिहायक होता है किंतु जब पर्ता “अपना अभीष्ट क्रिया से निवृत्त होता है तब उसकी महायता करनेवाला करण भी उस कर्ता से पृथक होजाता है। जिस प्रकार किसी ने इस वाक्य का 1 प्रयोग किया कि यह पुरुप पशु मे काष्ट (को) भेदता है, । सो पुरुष की भेदन क्रिया,मे पशु (कुन्हाडा) महायक है। परंतु जय, वह अपनी निया से निवृत्त होता है तब उस पुरुष की क्रिया - में, सहायक पशु भी फिर उस पुरुष मे पृथक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होजाता है । सो इसी प्रकार जय ज्ञान को करण साधन माना जायगा तब उसमें भी उक्तही दोषापत्ति आजायगी। अतएव ज्ञान पो करणं साधन मानना भी युक्ति युक्त नहीं है। इस शका का समाधान इस प्रकार किया जाता है कि - शान को करण साधन मानना युक्तियुक्त है क्योंकि शास्त्रम कारण दो प्रकार से माना गया है जैसे कि . एक पाह्य करण और द्वितीय अतरग रण सो जो बाह्य करण होता है वह तो कर्ता की क्रिया को समाप्ति हो जाने पर कर्ता से पृथक हो ही जाता है जैसे पशु को ही मानलो परतु जो आभ्यन्तरिक करण होता है यह कता की शिया में सहायक पनकर भी कर्ता से पृथक नहीं होता। किसी पुरुषने कहा f "अमुफ पदार्थ मैने अपनी आखों से देखा है" इस पाक्य में आ करण बन गई है सो यह आस पदाथ में से जाने के पश्चात पर्ना से पृथक नहीं होती तथा किसीने यह कहा कि " मैं अमुक वस्तु को मनमे जानता हू" सो इस कथन से वस्तु के जानने म मन करण यनगया है परतु जब वस्तु फा धोध होगया तो फिर कर्ता से मन पृथक भी नहीं होमला तथा किसीने कहा कि " ज्ञान से आत्मा जाना जाता है" सो इस कथन से आत्मद्रव्य जानने के लिये ज्ञान करण क्थन किया गया है सो जब ज्ञान द्वारा आत्मद्रव्य को जान Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लिया तो फिर ज्ञान आत्मा मे प्रथफ नहीं होता। निम प्रकार किसी ने कहा कि “ अमुक पुरुप ने कहा कि अमुक शब्द मैंने अपनी कर्णेद्रिय (कानों द्वारा सुना है.)" तो क्या फिर शट सुनने के पश्चात यह सुनने ? याला आत्मा कर्णद्रिय से रहित होजायगा ? कदापि नहीं ।। F · सो उक्त युक्तियों से ज्ञान को करण साधन मानना युक्ति युक्त है तथा इमी प्रकार ज्ञान को अधिकरण मानना भी न्याय मगत है कारण कि ज्ञानसे कोई भी पनार्थ बाहर नहीं है । इम न्याय के आश्रित होकर यह भली माति से कहा जासक्ता है कि ज्ञान में ही मय पार्थ ठहरे हुए हैं। . . . . असण्य निरुप यह, निकरा कि ज्ञानात्मा मानना युतियुक्त मिद्ध है। ___ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्मा ज्ञानरूपही है तो फिर परसर बुद्धि आदि की विभिनता क्यों है ?, इसके उत्तर में कहा जा सका है फि ज्ञानावरणीय कर्म के कारण से शान "दय मे जीवो की विभिन्नता देसी जाती है जैसे कि -- कोई मद बुद्धि वाला है और कोई आशु प्रमावाला है। इसी क्रम से उत्तरोत्तर विषय संभावना कर लेनी चाहिये । क्योंकि अससारी आत्मा छद्मस्थ और मुक्त आत्मा सर्यज्ञ और सर्वदशी है। । सो उक्त कारण से मानावरणीय कर्म के पाच भेद वर्णन किये गये हैं, जैसे कि --मति ज्ञानायरणीय १ श्रुत Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अवधि ज्ञानावरणीय ३ मन पर्यव [य] पानावरणीय ४ और केवल मानावरणीय ५ । जब आदि के चार ज्ञान प्रकट होते हैं सव ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम भाव में होता है परतु जब फेयल ज्ञान प्रकट होवे तर ज्ञानावरणीय कर्म सर्वथा भय हानाता है क्योंकि चार शान तो अयोपशम भाव में प्रतिपादन किये गए हैं और केवलझान भायिक भाव में रहता है। जब आत्मा के ज्ञानावरणीय कर्म का आयोपशम होता है वय उसी प्रकार का ज्ञान प्रगट होगाता है जैसे कि -- ___ जब मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होगया सय मतिज्ञान प्रकट हो जाता है, जैसे कि - मतिज्ञान के मुग्य दो भेद कथन किये गए हैं। श्रुत निश्रित और अश्रुत निश्रित । भुत निश्रत मतिज्ञान उसफा नाम है पायों के विषय को मुनार जो मति उत्पन्न होती है उसीका नाम श्रुत निश्रित ज्ञान है किन्तु जो पिना सुने किसी विषय को फिर उम विषय पर प्रभ दिये जाने पर शीघ्र ही उस विषय का समाधान कर सके इसी का नाम अधुन निश्रित मतिशान है। ___ यद्यपि यह शान इद्रिय और नोइंद्रिय ('मन ) के सनिक से उत्पन्न होता है तथापि मति में विशेष उपयोग Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ देने पर यह ज्ञान विश्वरूप से भासमान होने लगजाता है । *** इसी कारण से श्रुत निश्रित मतिज्ञान के मुख्यतया चार भेद प्रतिपादन किये गए हैं जैसे कि - अवग्रह १ ईहा अवाय ३ और धारणा ४ । ई f १ अवग्रह - सामान्य बोध का नाम अवग्रह है, जिसके मुक्य दो भेद हैं जैसे कि व्यञ्जनावमह और अर्थावग्रह। जब श्रुतेन्द्रिय के साथ अव्यक्त रूप से शब्दादि के परमाणुओं का ear होता है उसीका नाम व्यञ्जनावमह है परन्तु जब उस शब्द के द्वारा कुछ अव्यक्त रूप से अर्थ की प्रतीति होने लगे तब अर्थावह होता है । जैसे -कल्पना करो कोई पुम्प शयन किये हुए है तब उस पुरुष को किसी पुरुष ने प्रतिबोध ( जगाया ) किया तर वह अव्यत रूप को सुनकर देवल 'हुकार' ही करता है सो उसी समय, का नाम अयम है क्योंकि अवग्रह के समय में केवल सामान्य अवबोध ही रहता है सो वह भी अव्यक्त रूप से 1. T t [ ri I ईहा - जय अवग्रह के अनन्तर ईहा का समय आता है है तय अवम से विशिष्ट अवरोध ईहा का होजाता # t जैसे कि "उसी शब्द पर वह फिर विचार करता है कि यह अमुक शब्द है क्योंकि प्रथम तो केवल शब्द को सुनकर उसने केवल " हुंकार” ही किया था। जब उम शब्द पर युद्ध " ईहा " मतिमान का प्रभाव पडा तय उसने wh Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मद अमुक व्यक्ति पर इस प्रकार से अवग्रह से विशिष्ट ईहारूप ज्ञान को प्राप्त कर लिया। ३ अवाय-जय इहा द्वारा अमुर का शब्द है इस प्रकार का अवयोध हो चुका तर फिर यह -अवाय द्वारा निश्चय करता है कि यह शन्ट अमुक व्यक्ति का ही है या यह अमुक पदार्थ हो । अन्यथा नहीं है। इस प्रसार के निश्चयात्मक वाक्य अवाय मतिज्ञान के भेद ये होते हैं "क्योंकि इहा के अों का निर्णय अयाय द्वारा ही किया जाम्पत्ता है । इसलिये भतिज्ञान का तृतीय भेट अयाय रूप है वर्णन किया है। धारणा-नय पदाय? या अयाय द्वारा निर्णय भली प्रकार किया जा चुगा तो फिर उस निर्णात अर्थ की मन से धारणा करनी उसीश नाम धारणा है और वह सरयात पार वा अरियात काल की प्रतिपादन कीगई है क्योंकि धारणा का सम्बन्ध आयुष्कर्म के साथ है सो यदि नख्यात फाल की आयु तो धारणा भी सख्यात काल पर्यत रहसक्ती है । यदि अरियात काल की आयु है तो धारणा भी असंख्यात काल की हो मफ्ती है। ., अताग्य धारणा घे दो भेट किये गए हैं तथा अधिन्युति १ वासना और स्मति ३ इस प्रगर धारणा के तीन भेद वर्णन किये गए हैं। इनका अर्थ निम्न प्रकार जानना चाहिये। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे कि जिस विषय के अर्थ को जान लिया है फिर उस अर्थ के विषय सदैव उपयोग लगे रहना उसीका नाम अविच्युति है । V स्मृति के हेतुभूत सरकार का नाम वासना है अर्थात् किसी पदार्थ की स्मृति करने की सदैव वासना लगी रहना तथा उसी प्रकार उपयोग विषय भूतार्थ पदार्थ की कालान्तर में स्मृति होना कि यह वही पदार्थ है सो यह सय श्रुत निश्रित मतिज्ञान के भेद हैं। J जिस प्रकार न निश्रित मतिज्ञान के चार भेद वर्शन किये गए हैं ठीक उसी प्रकार अद्भुत निश्रित मति ज्ञान के भी चारों ही भेद प्रतिपादन किये गए हैं जैसे कि -- औत्पातिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि कार्मिकी बुद्धि और पारि णामिकी बुद्धि अर्थात् जिस बुद्धि द्वारा वादी की तर्क सर्व प्रकार से सबुद्धि द्वारा पूर्ण कीजाय उसीका नाम औत्पतिकी बुद्धि है । धर्म, अर्थ, और काम शास्त्र में निपुणता उत्पन्न करने वाली गुरु की विजयसे जो बुद्धि उत्पन्न होजाती है उसीका नाम वैनयिकी बुद्धि है । किन्तु जिस कर्म का अधिक फिर उसी कर्म में निपुणता भी अधिक इस बुद्धि का नाम कार्यकी बुद्धि है । अभ्यास किया जाय बढजाती है इसीलिये Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध वा प्रतिज्ञा के हेतु मान से माध्य साधिका रूप अवस्था ये परिपाक से पुनीभूत, अभ्युदय और मोन पे देनेपाली जो युद्धि है उसका नाम पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं । - यद्यपि मतिज्ञान के अनन्त पर्याय है तथापि इस स्थान पर यकिंचित यह विषय वर्णन लिया गया है।' यहा पर येग्ल मतिज्ञान का यही रमण सिर्स करना था । पतिज्ञानावरणीय फर्म पे क्षयोपशम से मति नि होजाती है जिस प्रकार उक्त ज्ञान का वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म पे क्षयोपशम होजाने से श्रुतगान प्रगट होताता है जैसे कि अभर श्रुतादि इस ज्ञान के अनेक भेद प्रतिपादन किये गए हैं। - वैसेही जर किमी गुरु आदि के मुख से कोई सत्व विपय पाता सुनी जागे फिर उस वार्ता के तत्व का अपनी निर्मल बुद्धि द्वारा अनुभव किया जाय तय अनुभव द्वारा ठीक निश्चित होजाय सो उसी का नाम श्रुत शान है। परतु स्मृति रखना चाहिये कि एक तो सम्यगश्रुत होता है और एक मियाश्रुत होता है। जय नय षा प्रमाणों द्वारा पदार्थों का ठीर २ स्वरूप सुना जाता है उसे सभ्य श्रुत कहा जाता है किंतु जो नया ..भास और प्रमाणाभास द्वारा पदार्थों का स्वरूप, सुना जाता है. वहीं, मिथ्याश्रुत Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘર ही होता है । जिम प्रकार प्रत्यय आत्मा के कर्तापन को देखकर उमे तो अस्वीकार करना जो सर्व प्रमाणो से मान देना जेने कि ईश्वर सिद्ध नहीं होता उता अकर्ता होता है बने कर्ता जगत् की भी प्रमाग मे कर्ता निरच जो आत्मा प्रत्यक्ष मे किया फर्ता ि है उसे अकर्ता मानना यही मिया का ई 7 स i [ " श्रु तथा निस से धर्म और मोच का फल तो उपलब्ध न होये किंतु अर्थ और काम की सर्वथा सिद्धि की जाये उपका नाम भी मिध्याश्रुत है क्योंकि मिध्याश्रुत से ससारवृद्धि हो जाती है और सम्पश्रुत पार होने का उपाय ढूंढता है । + चत्र में परिभ्रमण की मे आत्मा समाचन से + 1 तथा संसार की सर्व क्रियाए मतिज्ञान शान वा मनिअज्ञान या श्रुतअज्ञान के आधार पर चल रही हैं । r 1 ।। 7 अतएव प्रत्येक आत्मा उच्च ज्ञान वा अज्ञान मे सयुक्त है । येंगे है + किंतु यह ज्ञा मनी 1 जन अवधिज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम होना है 'तब आत्मा अवधिज्ञान युक्त होनाता है सहायता से कार्य साबक होता है के देखने की शक्ति रसता है क्योंकि इसीलिये यह रूपी द्रव्यो I - کی - अवधिज्ञान में रूपी द्रव्य इसीलिये कि यह ज्ञान मन की महायता से अपने I t अभिगत होते हैं कार्य की सिद्धि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है । इमीलिये इसे प्रमाण पूषक रूपी द्रव्यों के जानने या देखने घाला अवधिज्ञात यहा जाता है। परतु जब मन पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम हो जाता है तब आत्मा को मन पर्यय ज्ञान प्रकट हो जाता है। इस ज्ञान के द्वारा आत्मा मनोगत द्रव्यों के जानने की गति रखता है। अर्थात् मनुष्यनेनसी यावन्मान सनी (मनपारे) पचन्द्रिय जीव हैं उनके मारे जो पर्याय है उनके जानने की शक्ति इसी ज्ञान को होती है। यापि इस ज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार के दो भेद प्रतिपादन किये गए है तथापि उनका मुरय उद्देश सामा य योध था विशप घोध ही है तथा ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमीन पदार्थों के स्वरूप का विशद रूप से जानता या देसता है । थाम्ने ये चारा ही ज्ञान क्षयोपशम भाव के भावों पर ही अपलयित है । परतु जब आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्गनावरणीय, मोहनीय तथा अतराय इन चारा ही कमां को क्षय करता है तथा क्षायिक भार में प्रविष्ट होता है तय उम आत्मा को मर्य प्रत्यक्ष करलनान की प्रालि होजाती है जिससे फिर यह केयली आत्मा मव भागे को हस्तामर यत् जानने और सने लग जाता है। परतु फेवरी भगवान् दो प्रकार से वर्णन किये गए हैं। जैसे कि एक भवस्थ (जीयन युक्त ) और दूसरे सिद्धस्थ सो Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફર્ I जीवनमुक्त केवली भगवान् हैं। उनके शुभ नाम अर्छन्, पारगत, जिन, सर्वेश, सर्वदर्शी, वीतराग इत्यादि नाम कहे जाते हैं ये मदैवकाल अपने सत्योपदेश द्वारा भव्य जीवां पर परोपकार करते रहते हैं । उनके अमृत मय उपदेशों से लाखों प्राणी अपना उद्धार करलेते हैं किंतु वे आयुष्यकर्म, वेन्नीय कर्म, नामकर्म और गोन कर्म इन चारकमी से सयुक्त होने हैं। परंतु जो सिद्धभगवान हैं वे सर्वथा कर्मों के वचनों मे विमुक्त है | उनका आत्मा कर्म कलक से रहित होने मे सर्वज्ञ वा सर्वदर्शी अनंत शक्ति वाला होता है। ये सदैव आत्मिक सुल का अनुभन करते रहते हैं । वे ज्ञानात्मा से सर्व व्याप माने जाते हैं, उनके शुभ नाम अनत है और उन्हीं को ईश्वर, परमात्मा, अजर, अमर, भिद्ध वा बुद्ध, पारगत वा परम्परागत ज्योतिस्त्ररूप इत्यादि नामों से कहा जाता है । च भव्य प्राणियों के शरण भूत हैं । इस प्रकार उक्त पाचों झाना की अपेक्षा से द्रव्यात्मा को नानात्मा भी कहते है । जिन लोगोने द्रव्यात्मा को ही सर्व व्यापक मान लिया होजाता है क्योंकि व्यापक हो • हे उनका मत सत् युक्तियों से सडित जय द्रव्यात्मा ही सर्व अपने अवयों से Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ता फिर अन्य जारमा सार स्थिति मागे ? अनन्य ज्ञान द्वारा सब व्यापर मानना युक्त मपन हे frम प्रसार सूर्य मडल जामाग पर स्थित होनपर भी अपन परिनिक्षेपको प्रमागिन करता है ठीर की प्रकार अनर अमर आमा समान भाग में स्थित होने पर भी अपने परिमित पा अपरिमित क्षेत्र को प्रमाणित र सा है। मेही वह असाथिर होने पर भी रूपी अरूपी मय दया के भागो को हस्तामयत जानना और देयता है मो उक्त कपन म द्रव्यात्मा या नात्मा मानना युति युक्त मिद्ध हुआ अतपदयात्मा को हमज्ञानात्मा भी कह पर चतुर्थ पाठ। दशनात्मा। जिस प्रकार नदी का पार करने के लिये नावकी आवश्यक्ता होती है तया विस प्रसर पायों के देखने के लिये आपा की आवश्यक्ता होती है वा निम प्रकार सुख अनुभव करने के लिये पुण्य कर्म की आवश्यकता होती है तथा किस प्रकार घोष प्राप्त करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता होती है या जिस प्रकार विद्या प्राप्ति के लिय गुरु की। भती की भावश्यक्ता है नथा यशोकीन मपादन करने के लिये Page #52 --------------------------------------------------------------------------  Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाला मृग मृत्यु पी शरण गत क्यों होता है ? 1 RE उसर म कहा जा सका है कि - विश्वाम भी सीन प्रगर मे वर्णन किया गया है अमेसि, १ सम्यग विभास २ मिया विश्वास, मिश्रित निधाम । इनका तासर्य इस प्रकार जाना चाहिये। १ सम्यग् विश्वास --विम प्रशार ये पाय हो उसी प्रकार का उतरा AITER यि जाने पर फिर तदन ही उन्हा पर विश्वास किया जाय इसी का नाम सम्यगू विधाम है। जैसे विनीय को जीय ही जा जड पो नई हो मान तथा सामायि पदायों के विषय में भी यथाय बुद्धि का धारण करना उमी नाम यथार्थ मिदिर उसी का परिणाम भी विधान तुल्य ही माल होना। अमे किनार रुपये को रुपयादी माननाद तय उमया पर भी उसके समान ही उसको मिल जाता है। परंतु यदि पाइ रुपये को मुवर्ण मुद्रा मानने लगजाय इतना ही पर बह अपना हद विश्वास भी फरलेवे परप जब व्यापारादि प्रिया में पर पुरुष प्रयत्न शील होकर उस रुपये को सुबग मुद्रा घे रूप में प्रयत्नशील होगा तो यह कदापि मफर मनोरथ नदी अन सकेगा क्योंकि उसका प्रयन्न यथार्थ नहीं है। अतय शिकर्ष यह निकला कि सम्यग् पदाथों पर सम्यग् ही विश्वास किया जाय तयही फलीभूत कार्य हो सत्ता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ __ • मिथ्या विश्वास-जिम प्रकार के पदार्थ ही उन पदार्थों से विपरीत निश्चय धारण करना उसी का नाम मिथ्या विश्वास है जैसे कि कल्पना करो कि जीर को अजीर मानना तथा आत्मा को अरता और परमात्मा को क्र्ता इसी प्रकार अन्य पदार्थों के विषय में भी जानना चाहिये क्योंकि मिया विश्वास इमी का नाम है कि यथार्थ निश्चय का न होना। कल्पग करो कि कोई व्यक्ति माता, भगिनी. पुन तथा भार्या को एररूप मे नेयता है। सो यह मिथ्या विश्वाम है। तथा ईश्वर म कतृत विश्वास धारण कर लेना एक आत्मा को ही में व्यापक मान लेना, नास्तिर न जाना इत्यादि ये सन मिा या विधाम कहलाते हैं। इसमें कोई भी मन्देह नहीं है कि विश्वास का होना असा आवश्यकीय है परत यदि सम्यग् विश्वाम होगा तो वह कार्य की सिद्धि में एक प्रकार माधकतम करण बन जायगा। यतिनिध्या विश्वास होगा तो वह कार्य भिद्धिमें विश्न के रूप म उपस्थित बन गडेगा। ___अतण्य निरर्प यह निकला कि मिल्या विधास कापि धारण न करना चाहिये। ३ मिश्रित विश्वास -सर पदार्थों को एक ममान ही जानना, मत्य और असत्य का निर्णय न करना, चाहे साधु हो वा अमाधु,' श्रेष्ठ या नियष्ट, भद्र हो या कुटिल, धम हो वा पुण्य की क्रिया हो या पाप की, . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो या पापहोत्यय मय र ममातही जानना उसी गा नाम मिश्रित विश्राम । म विश्राम रे द्वारा प्राणी असा फरयाग परत में अनमय हो नया न्याय पाने भी इम प्रनि याला आगा अपनी अयाग्या मिद्ध पाता है पा यह मासा मम नाम अतण्य मम्यग दगा प्रत्येक मुमुक्षु आत्माआ को धारण परले चाहिय । निम प्रकार सभेप प में उन नीनों दर्गा या यर्गन किया गया। ठीक उसी प्रकार मामाय अपोध थी अपेरा से चार दर्शना रा पितार निम्न प्रकार में किया गया है। जैने कि १ चक्षुटशन - आगों में कमी पार्थ को दया जाता हे तर प्रथम सामान्य अवरोध होता अमेरि क्या यह अमुक पदार्थ है ? इस प्रकार से जो पदार्थों में देखने में योध पैदा होता हैं उसी का नाम चक्षुश्शन है। 1 M दर्शन इसे इमलिय कहा गया है कि जन सामान्य पोष होगया सदा फिर उसी पदार्थ का विशेष योध हा जाता है। फिर उनी पदाध को भान द्वारा निर्मात किये जाने पर विशेष Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोध के नामसे कहा जाता है। जिसे फिर वह पदार्थ ज्ञान के उपयोग मे आजानेसे साकारापयोग में आनाता है। २ अचक्षुदर्शन:-आसों के विना चारों इहियों द्वाग वा मन के द्वारा जिन २ पदार्थों का निर्णय बिना किये मामान्य बोध होता है उमे ही अच सुदर्शन कहते हैं। जैसे कि यह किमका गट है ? आदि । इसी प्रकार जब घ्राणेंद्रिय में किसी गध के परमाणुओ का प्रोग होता है तर उसीके निपय में भी प्रागवत् जानना चाहिये। तमा जन रमनेंद्रिय में पुद्गल प्रविष्ट होते हैं तर भी पहिले उनका सामान्य बोध ही होता है । इसी प्रकार जर स्पमंद्रिय में पुद्गलों का स्पर्श होता है तब भी उम सर्ग द्वारा शीत वा उणादि स्पों का सामान्य बोध ही होना है। सो इस प्रकार के चोय का नाम मामान्य घोध है। तथा जन कोई स्वप्न आता है ता प्रतिमोध हो जाने पर उस पर विचार किया जाना है कि मुझे क्या यही स्वप्न आया है वा अमुक ? इस प्रकार के गोप को नोइद्रियदर्शन कहा जाता है तथा ये सर भेद अचक्षुदर्शन के ही हैं। - जव अवधिदर्शनावरणीयः क्षयोपशम 'वर अरधिदर्शन प्रकट Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधात् वा अपने अनरण भावों से रूपी पदार्थों में देखने साल उमादन परलेता है । जय यह आत्मीय उपयोग | सामान्य प्रकार मे पदायों को देखता है उस समय मे अवधि दानी कहा जाता है। कारण जि आत्मशात द्वारा मामान्य प्रकार में पदार्थ क स्वरूप को देखना यही अवधिदशी का मुख्य भण? । इस पिया के परते समय मरकी महायसा आत्मा को अवश्य ऐनी पड़ती है। इसी कारण से अपधिस द्वारा भात्मा, रूपी पदार्थों के देखने मी शक्ति र पता है क्योंकि मन, रूपी पार्थ है अतण्य या रूपी पदार्थों का ही देर मक्ता है। ४ फेवर दर्शन --जय सावरणीय, पर्शनावरणीय माहनीय और अतराय कर्म, य चारा धर्म भय होनाते है तब आत्मा का केवलज्ञान और फेवरदान प्रकट होजाना इसके कारण से अनतक्षान, अनतदर्शन, वायिर सम्यक्त्व और अत शति यह निमकीय चारों गुण आत्मा में प्रगट होते हैं इसी कारण से फिर उसक आत्मा को । सर्वज्ञ और सवदी या अनत शक्तिवाला कहा जाता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परतुं जहा पर केवल वर्णन इस बातका है कि केवल| दर्शन द्वारा पदार्थों का सामान्य रूप से स्वरूप जाना ' जाता है तब उस ममय आत्मा में केवल दर्शन होता है तथा । इद्रीदर्शनों व्दारा आत्मा को दर्शनात्मा कहा जाता है । क्याकि जय आत्मा उक्त दर्शनों से युक्त होता है तब __ उमकी दर्शनात्मा सज्ञा बन जाती है। ___ यदि ऐमग कहा जाय कि जब बान ही आत्मा में प्रकट होगया तो फिर दर्शन के मानने की क्या आवश्यक्ता है? इस का के उत्तर में कहा जाता है कि --ज्ञान में पूर्व दर्शन अवश्यमेव होता है तदनु ज्ञान होता है इसलिये दर्शन के मानने की अत्यत आवश्यक्ता है । तथा जवतक सम्यम् (अथार्थ ) विश्वास ( दर्शन ) किसी पदार्थ पर है ही नहीं सव तक उम पदार्थ का ज्ञान भी यथार्थ नहीं कहा जामक्ता । अतएव दर्शन का होना सर्व प्रकार मे अत्यत आवश्यकता रसता है। __ यदि एसा कहा जाय कि प्रत्येक मत अपने • दर्शन में दृढ हैं तो फिर क्या उनको दर्शनी न कहा जाय ? इसके उत्तर में कहा जा सक्ता है कि प्रत्येक मत को दर्शनी तो कहा जा सत्ता है परतु उक्त तीन प्रकार के जो दर्शन क्थन किये गए हैं उन तीनों में सम्यग्दर्शन ही अपनी प्रधानता रखता है नत अन्य। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર क्योंकि मुद्धि की सिद्धि में सम्यदर्शन ही क्रिया सावरता है अन्य दर्शन | तु इसलिये सिद्धानयादियों ने लिया है कि पारिव तो कदाचित मुक्ति की प्रति भी करले परंतु दर्शन हीन का तो retina गामी हो ही नहीं गया। सो उही कारणों से दर्शन की अपेक्षा मे श्रज्यात्मा को दमा भी कहा जा सभा है । साथ में यह भी पहना अनुचित of होगा कि सम्यग a ft अश्यमेव साध्यान दान के लिये अ वरना राहिये । f पाठ पाचवाँ । चारित्रात्मा । निम प्रकार दर्शनात्मा विषय घणन किया गया है ठीक उसी प्रकार चारित्रात्मा विषय वणन किया जाता है । आत्मा की रक्षा करने वाला और सुगति मार्ग को दिग्बलाने पाला शेर और परलोक में यश उत्पादन करने वाली आत्मा की एक मात्र अतरग लक्ष्मी सदाचार ही है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन आत्माओंने मदाचार से मुख मोडलिया है वे नाना प्रकार के दुपयों का अनुभर कर रहे हैं। कारण कि मदाचार के विना मनुष्य का जीवन निरर्थक माना जाता है क्योंकि यह थपने जीवन का सर्वस्व सो घेठता है । जिस प्रकार तिलों से तेल के निकल जाने पर शेप सी रह जाती है तथा दधि से माखौ ( नमनीन) के निकल जाने पर पिर तुन्छ रूप तक छाम (छा) रह जाती है या इशु रस के निक्ल जाने पर फिर इशु का तुन्छ फोक रह जाता है या उदन् (चावलों के निकल जाने पर फिर केवल तुप रह जाता है ठीक उसी प्रकार मदाचार के न रहने स शेप जीवन भी निरथर रह जाता है। अन प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मदाचार किये कहते है ? इमके उत्तर में कहा जाता है कि जिन क्रियाओ के करने मे आत्मा अपने निज सरुप में प्रविष्ट होजाय उसीका नाम माचार पा धारिन है क्योकि आत्मामा अनानि पाल से कमां का मग होने से नाता प्रसार के दुमा का अनुभव कर रहा है परतु जर यह भात्मा कर्ममल से विमुक्त होता है तय ही यह आत्मा अपने निन स्वम्प में प्रविष्ट हो सका है। सो उस स्वरूप में प्रविष्ट होने के लिये सर्वत्रनत और देयत इस प्रकार के दा प्रकार से चारित्र का वर्णन किया गया है जैसे कि -- Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ at म है जिसके द्वारा सर्व ear after प्रकार से हमें का आना पद किया जाय। जिस प्रकार मगेवर के पाच नालों (माग) म पानी आता रहता है और जब यह जल आने पे माग निरोध किये जायें तप यह जल आपा यह होता है। उसी प्रकार आत्मा रूपी मरावर में कर्म रूपी जल आता रहता है । जब मागों का रोध किया जाय तब वह धर्म रूपी जल आग पूर्व कर्म रूप जल ध्यार, तपादि द्वारा मुवा दिया जाता ६ जिसमे आत्मा फिर विशुद्धि का प्राप्त होता है । परंतु त्रियाण भी प्रकार मे यदि की जायें तो, जे होनाता है और फिर १ सब प्रकार से प्राणातिपात या परित्याग - अधात सूक्ष्म या स्थूल अपने लिये या परके लिये अथवा दोना के लिये किसी प्रकार से भी जीव की हिंसा न की जाय । साथ ही मन से, पाणी मे या वाया मे न स्वय F जाय तथा जो हिंसा हिंसा की जाय न औ करते हैं उनकी अनु यात सामाधिक मानी किसी प्राणी से की प्राप्ति क्यों समाधि अवश्यमे - - अतएव प्राप प्रथम उक्त प्रत क्योंकि यह 'किसी प्राणी का उसे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृषावाद का परित्याग -सर्व प्रकार मे असत्य भापण न करना चाहे मरणातिक कष्ट क्यो न उपस्थित होजाय परतु अपने मुस से कदापि असत्य वचन का प्रयोग न करना । कारण कि असत्य वादी पुरुप अविश्वसनीय बन जाता है अत वह फिर धर्म के भी अयोग्य होता है क्योंकि धर्म का मुरय उद्देश सत्य पदार्थों का वर्णन करना है। उसका उद्देश सत्य के छिपाने का होता है अतएव धर्म के अयोग्य ही कथन किया गया है। मो मत्य के माहात्म्य को समझते हुए अमत्य वचन का प्रयोग कदापि न करना चाहिये। अदत्त का परित्याग-साधुवृत्ति के योग्य जो माझा पदार्थ भी है उनको भी बिना आज्ञा न उठाना जैने कि --- कल्पना करो कि माधु को किसी सण के उठाने की आवश्यक्ता हुई है तो उसको योग्य है कि वह तण भी किमी की विना आज्ञा न उठाये। चौर्य कार्य का जो अतिम परिणाम होता है यह लोगों के मन्मुख ही है। कारागृहादि सर अन्याय करने वालों के लिये ही बने हुए होते हैं फिर उन स्थानों में उनकी जो गति होती है उसमे भी लोग अपरिचित नहीं है । अतएव सिद्ध हुआ कि चौर्य कर्म कनापि न करना चाहिये । सर्व प्रकार से मैयुन कर्म का परित्याग - सर्व प्रकार से मैथुन फर्म का परित्याग करना अर्थात् ब्रह्मचारी पनना, कारण कि शारीरिक या आत्म शाक्ति इस नियम पर ही निर्भर है। परतु जो पुरुष ब्रह्मचर्य के आश्रित नहीं होते.... Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ये अपमृत्यु, रोग और शोकादि मयुक्त दे रहा करते है । उनके शरीर की याति या आत्मve neा निषेट पर जाता है । अपने यन्याण के लिये इस प्राये भित होकर अपने अभीष्ट पी सिद्धि करनी चाहिये क्योंकि यावन्मात्र स्वाध्याय या ध्यानादि तप है ये सब इस की स्थिरता में ही स्थिर या कार्य साधक यन सकते है । अत वियप यह निफ्लाय भवश्यमेव धारण करना चाहिये । मथ प्रकार से परिग्रह का परित्याग करना धर्माप वरण को छोडकर और किसी प्रकार का भी सचय न करना तथा समार म य धन्मान ऐश उमस हो रहे हैं उनमें प्राय मुख्य कारण परिषद का ही होता है क्योंकि ये मत्र धनादि ष्ठे के कारणी भूत यथा किये गए हैं। इसके कारण से सम्बधियों का सम्बन्ध छूट जाता है परसर मृत्यु के कारण मे विशेष दुःखों का अनुभव करते है, अतएव महर्षि परिग्रह के धन से सर्वथा विगुप्त रहे । सर्व प्रकार से रात्रि भोज का परित्याग करना - जीय रक्षा के लिये या आत्म समाधि या तप कम के लिये रात्रि भोजन भी करना चाहिये । कारण कि प्रथम तो रात्रि भोजन करने से प्रथम प्रत का सर्वधा पालन दो दी नहीं मता । द्वितीय समाधि आदि क्रियाओं के करते समय ठीक पाचन न होने से रात्रि भोजन एक प्रकार का विघ्न उपस्थित कर देता है । T Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ तथा लौकिक में यावन्मांत्र शुभ कृत्य माने जाते हैं वे । भी रात्रि को नहीं किये जाते जैसे श्राद्धादि कृत्य । अतएव .. रात्रि भोजन से सदैव काल निवृत्ति करनी चाहिये । 1 तदनु अपना पवित समय ज्ञान या ध्यान में ही । व्यतीत करना चाहिये क्योंकि शुक्लध्यान द्वारा अनत जन्मों 1 के सचय किये हुए कर्म अत्यत स्वल्प काल में ही क्षय किये जा सक्त हैं। . सर्व प्रतिरूप धर्म में सर्व प्रकार की क्रियाओं का । निषेध किया जाता है। जिससे शीघ्र ही मोक्ष उपलब्ध हो जाता है। इस प्रकार की क्रियाआ के करने से उसे चारिजात्मा कहाजाता है क्योंकि यह व्यवहारिक में भी सुप्रसिद्ध है कि अमुक सदाचारी आत्मा है और कदाचारी (दुराचारी) आत्मा है। जव सर्ववृत्ति का कथन किया गया है तो इस कथन से खत ही सिद्ध होजाता है कि देशव्रत्ती का भी कथन होना चाहिये । जिस प्रकार सर्वव्रत का कथन सूनों म किया गया है ठीक उसी प्रकार प्रसगवश से देशव्रत का भी कथन किया गया है। जैसे कि जर कोई आत्मा गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होना चाहे तय . याती का अवश्यमेन ध्यान करना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ● चाहिये जैसे कि --- आहार ( आचार ( आचार और व्यवहार ३ जिनका मक्षेप से नीचे वर्णन किया जाता है । L " १ आहार शुद्धि - गृहस्थ को योग्य है कि वह अपने आहार में विशेषतया सावधानी रक्खें क्योंकि आहार के सूक्ष्म परमाणु रम रूप परिणत होते हुए पानी इन्द्रियाँ जैसे कि श्रुतेन्द्रिय, चरिन्दिय, घाणेन्द्रिय, रमनेन्द्रिय और स्पर्शद्रिय तथा मन, वचन काया या श्वासोश्वास या आयुष्कर्म पर अपना प्रभाव डालते हैं । यदि मतोगुणी भोजन किया गया है तब उक्त प्राणों को वे परमाणु शात रस के प्रदान करने वाले धनजाते हैं । जिस प्रकार उष्णता मे पीडित पुरुष ने जब स्नान कर लिया तब जल के परमाणु उसका शात रस प्रदान करने वाले यनजाते हैं । यदि उसने अपनी उक्त ही दशा म मदिरा पान ही कर लिया तब वे परमाणु तमोगुण के उत्पादन करने वाले बन जाते हैं जिससे किमी र समय म तो किसी पुरप को अपने उक्त कथन किये गए १० प्राणों से ही हाथ धोने पडते हैं 1 ६ अत शरीर रक्षा के लिये भोजन निना सावधानी से न होना चाहिये और साथ ही तमोगुणी भोजन घा रजोगुणी भोजन सद्गृहस्थ को कदापि सेवन न करना चाहिये । कारण कि तमोगुणी भोजन मे वा रजोगुणी भोजन से आत्मा सद्गुणों से विमुक्त होता हुआ विकार भाव को Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ प्राप्त हो जाता है। जिससे उसकी पाप वृत्तिया विशेप बढ़ जाती हैं। जैसे कि क्रोध मान माया और लोभ, राग न्देप, क्लेश, निंदा, चुगली और छल, झूट इत्यादि वृत्तियों के बढ जाने से फिर वह जीव अपनी उन्नति के स्थानपर अननति कर वे । अतएर तमोगुणी या रजोगुणी भोजन सद्गृहस्थों को कदापि न करना चाहिये। अब प्रश्र यह उपस्थित होता है कि सतोगुणी वा रजोगुणी या तमोगुणी भोजन की परिक्षा क्या है ? इस शका के ममाधान में कहा जाता है कि स्वच्छ, शुद्ध और मन या इद्रियों को प्रसन्न करने वाला प्राय स्निग्ध और उष्ण गुणों से युक्त जैसे मर्यादानुकुल और शीघ्र पाचक गुणपाला वा घृतादि का भेषन है इरो सतोगुणी भोजन कहा जाता है। परतु चरित रस अस्वच्छ और अशुद्ध, अत्यत तीक्ष्णादि गुणों से युक्त वा गीत रक्षादि गुणों से युक्त इत्यादि भोजन तमोगुणी होता है। दोनों की मध्यम वृत्ति वाला भोजन रजोगुणी होता है । इसमें कोई भी सदेह नहीं है कि जिस प्रकार प्राय अमदपुरुप दूसरे की निंदा और चुगली आदि श्यिाआ के करने से बड़े प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार रजोगुणी भोजन वा तमोगुणी भोजन करते समय तो बड़ा प्रिय लगता है परतु जिस प्रकार निंदादि कियाओं का अतिम फल दुस-प्रद ही निकलता है ठीक उमी प्रकार तमोगुणी या 504tat Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनोगुणी आदि भोजन करने का फल भी रम विकार होने से सुस-प्रद नहीं होता। अतण्य सन्महस्थों को उक्त प्रभार के भोजनों मे संदेव बचना चाहिये और साथ ही जो मादक द्रव्य है उनका भी सेवन न करना चाहिये जैसे कि मदिरा पान, अफीम, भाग, परस, मुल्फा, गाना, तमासू, सिगरेट इत्यादि । तात्पर्य यह है कि जिन पदार्थों के सेवन मे बुद्धि में विप्लव पैदा होता है और सदाचार की दशा निगडती हो तो इस प्रकार के पदार्थों को पदापि सेवन न करने चाहिये । २ आचार शुद्धि --जब आहार की शुद्धि भली प्रकार से होजाय तो फिर आचरण की शुद्धि भी भली प्रकार की जाती है जैसे कि -आचरण शुद्धि मे प्रथम मात व्यसनो पा परित्याग कर देना चाहिये क्याकि उनके सेवन मे परम पष्ट और धर्म से पराइमुस होना पड़ता है। जिम प्रकार साप से कौतुहल या उपदामादि दिया हुआ कभी भी मुस प्रद नहीं होता, ठीक उसी प्रकार सात व्यसन सेवन किये हुए सुखप्रद नहीं होते। तथा जिस प्रकार सम्राट का अविनय किया हुआगीन ही अशुभ फल देने में उपस्थित होजाता है ठीक उसी प्रकार सात व्यसन भी सेवन किये हुए शीघ्र ही विपत्तियो का मुह दिग्पलाते हैं। अत सद्गृहस्थ इन्हें कदापि सेवन न करें। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके नाम ये हैं जैसे कि -जुआ, माम, मदिरा, आखेट कर्म (शिकार ),वैश्या संग, परस्त्री मेवन और चार्य कर्म । इनका फल प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो ही रहा है । अतएप इनका सविस्तृत स्वरूप नहीं लिखा, किंतु इतना हम लिख देना उचित ममझते हैं कि प्रथम व्यसन के अन्तर्गत (सट्टाभी है) सर ही यमन आजाते हैं । जो इस व्यमन में पडगए हैं पे भी प्राय: अपनी स्वकीय लक्ष्मी को सोकर निर्धन दशा को प्राप्त होगए हैं जिसमे वे नाना प्रकार के कष्टो या अन मुह देस रहे हैं। यदि कल्पना भी करलो कि कोई व्यक्ति उक्त क्रिया मे कुछ समय के लिये लक्ष्मीपति बन भी गया तो उसकी वह विभूति चिरस्थायी नहीं रह मक्ती । जिस प्रकार यदि थोड़ी। दें क्सिी खेत (क्षेत्र) में पडती हों तो वे बूद सेती की वृद्धि में अमृत के ममान काम करती हैं किंतु यदि उमी सेत में परिमाण से अधिक वर्षा पड़ती हो और साथ ही रिसी नदी की वर्षा अधिक होने के कारण से वाढ आजाय तो वह पाढ खेती का नाश करती हुई जो उस सेत में कोई अन्य जाति के वृक्ष हो तो उनको भी हानि पहुचाती है। । तथा यदि वही वाढ नगर की ओर आजाय तो नागरिक लेग परम दुखित होते हैं और उस बाढ के द्वारा नागरिक लोगों के प्रासादि (घर) स्थान, धन और माल सर अव्यवाधित होजाता है । इतना ही नहीं किंतु सोडादि पदाथों में जर प्रवेश क्यिा आ बहुत मी हानि परजाता है। . . . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो जिम प्ररार अधिर वर्षा या याढ के कारण मे लोग दुग्गों से पीटित होनाते है ठीक उसी प्रकार सट्टा आदि के यापार में रमी की वृद्धि की यही दशा होती है। अतएर निवर्प यह पिला कि सेत म पड़ी हुई यूदों में समान थाहा भी व्यापार लक्ष्मी की वृद्धि कर देता है किंतु याद के समान काय करनेवारे भद्रादि के द्वारा लक्ष्मी की धृद्धि की इच्छा कभी भी न करनी चाहिये । क्योंकि उपकी वृद्धि का फर उत्त दृष्टात द्वारा विचार महे । तथा इस बात को भली भकार विचार मके हैं कि जय आचार गुद्धि भली प्रकार से हो जायगी तय पिर यवगर (व्यापार) शुद्धि भी पी जासकेगी। ___क्योंकि व्यापार गुद्धि के मूल पारणीभूत आहार शुद्धि या आचार शुद्धि क्या थी गई है__ न्यापार शुद्धि -व्यापार-शुद्धि पा मम्बन्ध प्रथम दोनो गुद्धिया के माथ हूँ और उक्त दोनों शुद्धिया का सबघ व्यापार गुद्धि के साथ है। अत इन तीनों का परस्पर आश्रय सम्बन्ध है सो निस व्यापार में महत् फ्मा का यध पडता हो और वह व्यापार अनाय भावों की सीमा तक पहचता हो वह -यापार सद्गृहस्थ यो कदापि न करना चाहिय । फ्याकि जब यह शरीर ही क्षण विनश्वर है तो भला फिर क्यों इसकी रक्षा के लिये र द्वारा इसरी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ सो आर्य व्यापारों द्वारा भी इसकी भली प्रकार मे " रक्षा की जा सकती है । अन प्रश्न इसमें यह उपस्थित होता ५ cheryl है कि वे अनार्य व्यापार कौन कौन से हैं जिनसे बचने का } उपाय किया जाय। इस प्रकार की शंका के उत्तर में कहा जा सका है कि इस प्रकार के अनेक व्यापार है जैसे कि मास का बेचना, मन्यि का बेचना, मादक द्रव्यों का बेचना, चमड़े का व्यापार करना, दातों का व्यापार करना, दातों के आभूषण बनाकर बेचना, क्न्या विक्रय करना, निश्वासघात करना, इत्यादि अनेक प्रकार के व्यापार जो गृहस्थोंके लिये करने अयोग्य हैं । इनका पूर्ण विवरण इसी पुस्तक के चतुर्थ भाग में प्रतिपादन किये हुए थानक के १० प्रती का स्वरूप भली प्रकार जानना चाहिये और उन्हीं तो के अन्तर्गत सातना जो उपभोग परिभोग नत है उसे सावधानी से पटना चाहिये । क्योंकि उमी त म आहरशुद्धि और का भली भाति वर्णन किया गया है । १५ गृहस्थों के लिये निषेध किया गया है । * - व्यापारशुद्धि कर्मान्न का I ' मॉथम यह भी विचार अन्त करण में उत्पादन करना चाहिये कि जो लक्ष्मी अन्याय मे वृद्धि पाति है उसकी स्थिरता चिरस्थायी नहीं होती और न उसका प्रकाश चिरस्थायी होता है जैसे कि, जब दीपक ज्ञात होने को आता Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है सय यह पहिले ही डावाडोर होने लग जाता है किंतु जब वा बुझने लगता है सब बुझने से पहिले एक मार तो प्रकाश भली प्रगर कर देता है सदनु शात होजाता है। ठीक इसी प्रकार जो रमी अन्याय से उत्पादन की जाती है उसका भी प्रकाश तद्वत् ही जानना चाहिये। अतण्य अयायसे रक्ष्मी कभी भी उत्पादन म करना चाहिये । जय यह आत्मा उक्त तीनों शुद्धियों से विभूषित हो जायगा तब वह रोकिन पक्ष में सदाचारी पहलाने लग जायगा । इसी कारण से द्रव्यात्मा को चारित्रात्मा भी कहा जाता है क्योंकि आत्मा के आत्म प्रदेश जय सम्यग्यारिन म प्रविष्ट होजाते हैं तय यह आत्मा चारित्रात्मा बन जाता है । जय के प्रदेश मिण्याचरण में प्रविष्ट होते हैं तब उस आत्मा को मिथ्याचारिणी (पदाचारी) यहाजाता है। __ सो सिद्धांत। यह निकला कि उपाधिभेद से द्रव्यात्मा पारिजात्मा भी हो जाता है। Vaas Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ पाठ छठ्ठा । बलवीर्यात्मा । जिम प्रकार पूर्व पाठ में चारित्रात्मा का वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार इस पाठ में बलवीर्यात्मा का वर्णन किया जाता है क्योंकि ज्ञात रहे कि आत्मद्रव्य के मुख्य उपयोग जोर वीर्य लक्षण ही शारीने प्रतिपादन किये हैं । सो बलवीर्यात्मा का आत्मभूत लक्षण है इसीसे योगा की प्रवृत्ति सिध्द होती है और इमीसे आत्म स-त्रिय माना जाता है । अतरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से इसका निवास होता है । फिर इसकी प्रवृत्ति योगों द्वारा प्रत्यक्ष नेसने में आती है तथा ज्ञानादि में उपयोगशक्ति का व्यक्त करना भी इसीका काम है । दान देने की शक्ति १ लाभ उप्तादन करने की शक्ति उपभोग पों के भोगने की शक्ति ३ परिभोग की शक्ति १ अपने दल के दिमाने की शक्ति ५ यह सब शक्तिया बलवीर्य के सिरपर ही निर्भर हैं । तथा यावन्मान पाच इंद्रिया, मन, वचन और काय के योग, श्वासोश्वास के प्रवृत्ति करने की शक्तिया सव इमी पर निर्भर है । अतएव वीर्य सम्पन्न होने से द्रव्यात्मा को नटवीर्यात्मा भी कहा जाता है। तथा यावन्मान तेजसादि शरीर की शक्तिया है A बलवीर्यात्मा ही है ।. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भसाग गाव मात्र पाहो ममी भान ये वर में हो ग इसी प्रकार गाय मार धार्मिक गि होरही हैं व मी इमी आलाप आधार पर होरही है।। ती पारण मे मीन पर म यस्यीय कया किया ___ गया । जैसे कि - १ पहित धीर्य --1ि7 मा करने में कममल दूर घनाये और आमिर गुग प्रपर होजाय मी का पटिनयीय बहन है। निम अगर भार और जार से या पुस्प मन्यु यत्र यो धो रहा हो तब उमा बिया फा अतिम पर यह निकलता है कि उस घर में मल प्रथर होकर यम फिर पवित्रता और गलता यो धारण करता है। तथा निम प्रकार अमि द्वारा मुरणे शुरु किया जाता है या अय निया द्वारा मिन भिन्न पदार्थ शुद्ध दिये जाते हैं ठीक उसी प्रकार आत्मा जो र्भ से युक्त होरहा है उसे तप, सयम तथा ध्यानादि क्रियामा द्वारा शुद्ध करता सो उस पुरुषार्थ या नाम पडितबीर्य है। २.पालबीर्य --जिन जिन क्रियाओं के द्वारा आत्मा कम बधन में विशेष पहती हो और हिमा, मुह, पारी, मथुनक्रिया था परिग्रह में विशेष प्रवृत्ति करती हो सो मी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ __ या नाम वारवीर्य है। क्योंकि जिस प्रकार बालकों का परिश्रम वा बाल निडा किसी विशेष अर्थ के लिये नहीं होती ठीक उसी प्रकार बालवीर्य भी मोक्षसाधन नहीं बन सका। ___ यथापि बालवीर्य द्वारा शत्रु हनन क्रिया, स्वकीय जय पर का पराजय करना, मासारिक 8 सुग्यों का संपादन, अर्थ और कामम निशेप प्रवृत्ति और उमका यथोचित सपादन, नाना प्रभार के यत्रोका आधिकार । माम, दाम, दह, भेदादि नीतियों में प्रवृत्ति इत्यादि सहस्रों क्रिया की जाता हैं और उनकी सिद्धि के फलों का अनुभव भी पिया जाता है परतु वे क्रियाए मोक्ष सावन में माधक नहीं बन सकीं। इमी कारण से उन्हें बालवीर्य कहा गया है। तथा यावन्मात्र अधार्मिक क्रियाए हैं जैसे कि -धर्म, अर्थ और काम के लिये जीव हिंसा वा असत्यादि भाषण घे मत्र बलवीर्य में ही गिनी जाती हैं। यही कारण है कि आत्मा अनादि कालचक में उक्त वीर्य के द्वारा ही परिभ्रमण करता चला आया है। - यालपडित वीर्य -तृतीय वीर्य का नाम पडितवीर्य है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों बातें पाई जाती हैं। क्योंकि इस गुग वाला आत्मा अर्थ, काम के सेवनके समय साथ ही धर्म • किये जाता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशियति वा ही कही जाती समापि उसी ममार में रहने हुए भी मर्षया अममय यत्ति भी नहीं अतः उसे परिझम का म " याल पटित वीर्य है। पयोगि निम प्रगर वह समारिक पार्यों में भाग लेता है यदि गमे अधिक मा उमथे तुल्य ही शो कमदी मही कुण भाग पामिर कायों में भी ले ही रहा है। इसी कारण मे थी भगयार ने भी पुन गृहस्थ की गुफा नाममा प्रतिपादन की है। भाया के द्वाश प्रा या ११ उपामा की प्रतिमाए इत्यादि नियमा यो यथाशात पालन किये जारहा है। इसी धास्त गो परिश्रम का नाम पालपडितयीय । उक्त स्थान से यह स्थन ही सिद्ध होगया कि व्यारमा का नाम पलवीर्यात्मा मुक्ति युक्त है। जिस प्रकार उपाधि भेद से आरमद्रव्य के आट भेद पणन किये गये, ठीक उसी प्रकार पमों की अपेक्षा मे और जीव का परिणात्रिय भाय होभे आदयिक, ओपसमिक, मायिक क्षयोपशामिन, और पारिणामिक भाव भी जीय दून्य के पथन किये गए हैं। अब प्रभ या उपस्थित होता है कि उस माया का और द्रव्य के साथ क्या सम्बन्ध है और य भाष जीव के किम प्रकार मम्मन्धी कहे जाते हैं। इस प्रभ के उत्तर म कहा जाता है कि जीव या विमी नय Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ की अपेक्षा से पारिणामिक सभाव होने से वह उक्त भावों मे परिणत होता रहताही है । जिस प्रकार घृत जिस वर्ण वा गधादि में प्रविष्ट होजाय फिर वह उसी वर्गादि के रूप को धारण करने वाला पन जाता है । तथा जिस प्रकार निर्मल दर्पण में जिस रंग का दोरा ( सूत ) दिखाया जाता है फिर उस दर्पण में उमी रंग का चित्र जा पडता है । ठीक इसी प्रकार चैतन्यद्रव्य भी कमों की संगति से जिस प्रकार के कर्मों का उदय होता है प्राय उसी प्रकार से उसमें पारणत होजाता है । जैसे मादक द्रव्यों के भक्षण से जीव मदयुक्त हो जाता वा जिस प्रकार मदिरादि के पान करने से जीव मून्छी में प्रविष्ट हो जाता है। इसी प्रकार पारिणामिक सभावनाला होने से जीव भी जीव परिणाम में परिणत होता रहता है । यदि जीव औदयिक भाव को अपेक्षा से देखाजाय तो इस के आठ कर्मों का सदैव उत्य रहता है । , P 1 इसी कारण मे वह नरक, तिर्यगू, मनुष्य और देव आदि गति मे वा कपायादि में परिणत हो ही रहा है । औपशमिक भाव के द्वारा इनकी क्पाऍ ( क्रोध, मान, माया और लोभ ) और औपशमि+ सम्यक्त्व आदि गुण उत्पन्न होते रहते हैं । दू Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंतु जब आत्मा ये आठ ही कर्म भय हो जाते हैं तब आत्मा का दायिक भाव प्रकाशित हो जाता है निसके कारण से आत्मा सिद्ध गति की प्राप्ति कर रेता है। भायोपशमिक भाव के द्वारा आत्मा में मतिज्ञान, ध्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान और मन पर्यव ज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान तथा विभगअज्ञान, इसी प्रकार दानलद्धि, लाभ न्द्धि, भोगटन्द्धि, उपभोगन्द्धि, तथा बलवीये की सब्द्धि की प्राप्ति हो जाती है। । । क्योंकि यावन्मान आत्मिक गुणों का प्रादुर्भूत होना है ये सन लायोपरामिक भाव व्दारा आत्मा प्रम से उन्नति के शिखर पर चढता हुआ क्षायिक भाव की सीमा तक पहुंच जाता है। ठीक उसी प्रकार पारिणामिक भाव में भव्य पारिणामिक अभव्य पारिगामिक और जीव पारिणामिक इन तीनों परिणामों में स्वभायता मे अनादि काल से परिणत हो रहा है। । अब इस स्थल पर यह सका उप्तन्न की जासक्ती है कि भव्य पारिणामिक और अभव्य पारिणामिक और जीव पारिणामिक किसे कहते हैं। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि अनादि काल से और स्वभाव से ही जीवों का दो प्रकार का स्वभाव प्रतिपादन किया है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ भव्य पारिणामिक जिन आत्माओं का मुक्ति गमन का स्वभाव है । परन्तु ऐसे न समझना चाहिये । मव भय आत्मा भन्न स्वभावता के ही कारण से मोक्ष हो जायेंगे किंतु जिन भव्य आत्माओं को काल, स्वभाव, निर्यात कर्म और पुम्पार्थ ये पाच समवाय मिलेंगे वेही मोक्ष के माधक बनेंगे । - ++ जैसे कल्पना करो कि एक शुद्ध वीज है और उसका अकुर वा फल देने का स्वभाव भी है परन्तु जन तक उसको मी खेत [ क्षेत्र ] में बीज बोने ( वपने ) का समय निर्यात कर्म और पुरुषार्थ ये चारों समवाय सम्यगतया न मिल जावें तर तक वह शुद्ध बीज भी अकुर वा फल देने में असमर्थ है । ठीक उसी प्रकार भव्य सभाव वाले जीव को जबतक काल निर्यात कर्म और पुस्पार्थ रूप चारों समवाय न मिलें तन तक वह भी मोक्ष साधक की क्रियाओं में अपनी असमर्थता रखता है । + 1 दूसरे स्वभाव के धारक जीव इस प्रकार के होते हैं 1 कि यदि उन आत्माओं को उत्त समवायों में से कुछ समवाय मिल भी जायें परन्तु उनका स्वभाव मोक्ष साधक नहीं है अत वे उन समवायो की उपेक्षा ही कर लेते हैं। जैसे कि ठीक प्रकार से वर्षादि का समय यति उपस्थित भी हो जावे तथापि दुग्ध बीजादि के होने से कृषि लोग उस काल की उपेक्षा ही कर लेते हैं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર तथा जिस प्रकार अमि और पानी का यथावत् है तो मिल जाने पर भी यदि भूगादि में कोकड आदि ये उपयोग में मिल जाने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोडते । ठीक उसी प्रकार यदि अभय आत्माओं को सम्यगतया कारादि का योग भी उप हो जावे ठो फिर भी वे स्वस्वभाव मोय साधन का न होने से मोम के माधक नहीं वन सरे । मयो तृतीय जीव सक्षक पारिणामिक द्रव्य है जैसे कि मुक्त आत्मा । क्योंकि मुतात्माओं को भव्य सक्षक भी नहीं पह मते क्योंकि भव्य मुक्ति जाने वाले आत्मा पी सज्ञा हूँ सो ये तो निर्माण प्राप्त कर चुके हैं अत ये भन्या तो कहे नहीं जाते । तथा नहीं ये अभव्य सक्षक क्योंकि अभव्य ये है जो मुक्ति गमन की योग्यता ही नहीं रखते । अतण्ष अभव्य मशक भी नहीं है जब दोनों सशाओं से ये ET Fire तब उनकी केवल जवि सक्षा ही बनी रही । सो इस कथन का निष्कर्ष यह निक् किमों क होने से ही इस आत्मा के उपाधि क्षेत्र धारण से इस आत्मा की अनेक प्रकार व्यारया की जासकी है। परंतु स्मृति रहे बलवीर्य यह आत्मा वा निज गुण है इसलिये इसकी अपेक्षा मे द्रव्यात्मा को वीर्यात्मा भी कहा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा सत्ता है। साथ में इस यात का भी ध्यान करना चाहिए कि जो मुक्तात्माए है उनकी द्रव्यात्मा, शानात्मा, दर्शनाला उपयोगात्मा ये चार आत्माए तो सदैव रहती ही है परंतु असा बलवीर्यात्मा शक्ति रूप से तो विद्यमान है ज्यावहारिक शियारूप से नहीं। क्योकि व्यावहारिक क्रियाओं में प्रया होकर फेवल सम्यक्त्वाति अतरग प्रियाया से ही सत्र का रहती हैं। पायात्मा और योगात्मा से नो ये सवार पृथक रहती हैं और न उनमे द्रव्य चारिमात्मा ही किंतु अनत ज्ञानादि की शक्ति सम्पन्न । अन इस प्रकार बलवीर्यात्मा की व्याख्या की गई है। पाठ सातवां। जीव। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પત્ર यम से यह जीन वर्मों के कारण से प्रकार की गतियों में परिभ्रमण कर रहा है। जिसकार या अभिपी नारकिया द्रव्य का अभिलाषी होकर जाना प्रकार पे नाच (मेल) करता है ठीक उसी प्रकार जीव भी नामापि अभिलाषी होकर नाना प्रकार के कर्म करना है। फिर उन्हीं कमों के पोर नाना प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करने लग जाता है। होगया। कारण कि धर्म तो इसलिये दिये थे कि मुझे मुख हो जायगा परन्तु उन्हीं मों ने मार से जीव को जया कि उसका अब छूटना ही कठिन विसवे धारण से जीव यो नाना प्रकार के सामना करना पडा और पाना प्रकार की गतियों में गमना गम करना पडा । का प्रश्न प्रश्न गतिय क्तिन प्रकार से घिर्णन की गइ हैं ? उत्तर - घर प्रकार से । { २ नमी है ? 3 214 ५ उत्तर -नरव गति, तिरंग् गति, मनुष्य गति, और देव गति | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न -नरक गति किसे कहते हैं ? उत्तर -जिस स्थान में परम दुः स हो उसी का नाम नरक स्थान है परन्तु नीचे लोक में नरक स्थान है वहा पर असरयात नारकीय जीव निवास करते हैं। प्रश्न -सरया में क्त्तिने नरक स्थान है ? उत्तर ----सात । प्रश्न-उनके नाम क्या हैं ? उत्तर -मुनिये। जैसे कि घम्मा १ वशा २ शेला ३ अजना १ रिटा ५ मघा ६ माधवती ७॥ प्रश्न-इन सात नरकों के गोन कौन • से हैं ? उत्तर -सात ही नरकों के सात ही गोत्र हैं। रत्नप्रभा १ । . शर्करप्रभा २ बालुप्रभा ३ पक्प्रभा ४ धूम प्रभा ५ तम प्रभा ६ तमतमाप्रभा ७1 प्रश्न -वास्तव में नरकों के भेद कितने हैं ? उत्तर-वास्तव में सात नरको के १४ भेद है। जैसे कि उक्त सात नरकों के जीव पर्याप्त और अपर्याप्त । mer -पर्याप्त-सिले कहते है ? Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर --तिम समय जीय Trय गति में वापर अन्न होता है उस समय पर पट पदार्य सम्पूर्ण (पर्याप्त) परता है जैसे हि आहार पर्याप्त १ शारीर पर्याप्न ० इद्रिय पर्याप्त ३ शामोरनार पर्याप्त ४ मन पर्याप्त ५ और भापा पर्याप्त ६। निस ममम छ पार्थ अपूर्ण दगा में होते है उम समय जीव यो अपर्याप्त दशा में कहा जाता है परन्तु जिस समय उक्त छ हो पा मम्पूर्ण दशा में हो जाते हैं तय जीव यो पर्याप्त कहा जाता है। मो उक्त प्रकार से पारपीय जीयों ये १४ भद कहे जाते हैं। प्रश्न-तिर्यग् गति किसे कहते हैं ? उत्तर --जिस गति में जीप नाना प्रकार के दुमा का अनुभव परता रहे और टेढा होकर गमन परे इतनाही नहीं तु प्राय, अपनी आयु फ्लि भानों में ही पूरी करे। प्रश्न निर्थग् गति में रहने वाले जीया ये किसने भेद है ? उत्तर --यद्यपि तिर्यग गति पे रहने वाले जीवों के अनेक भेद वर्णन किये हैं तथापि मुरय भेट् उक्त गति म रहनेवाले जीवों के ४८ वर्णन किये गए हैं। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ प्रश्न-वे भेट कौन • से हैं। उत्तर -जैसे कि तिर्यग् गति के जीवों की गणनाए एक न्द्रिय जीव से लेकर पचेंद्रिय जीव तक है सो एकेन्द्रिय जीयो के भेद इस प्रकार से वर्णन किये गए हैं जैसे कि पृथ्वी काय के चार भेद् सूक्ष्म १ वादर • पर्याप्त ३ और अपर्याप्त ४ इसी प्रकार अपकाय के जीव तेजो काय ये जीव और वायु काय के जीन के विपय में है जानना चाहिये। परतु वनस्पतिकाय के छ भेद जानना चाहिये कि -सूक्ष्म १ साधारण २ प्रत्येक ३ फिर तीनों प र तीनों अपर्याप्त इस प्रकार वनस्पति काय के छ zar चाहिये। यदि ऐसा कहा जाय कि सूत्म, arter प्रत्येक तथा बादर किसे कहते हैं ? तो इस PAT में कहाजाता है कि उक्त पाचों ही स्थानमा रूप से सर्वत्र व्याप्त होरहे हैं अत: अब स्थान नहीं है जहा पर पाचौ स्थानमा परतु वे केपली भगवान के ष्टि गाना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीय नो पानि HE गया दो म ही प्रतिपादायि गरि और मापात यो प्रत्येक उमे पदते है जिसमें गुर • र म एक __और हो और माधा मा म लम Mira आननीय हो। यह मूदि मयाफि याय मात्र आद आणि पद मूर। ये मयं HIT पाप पोवार दी। पर जो द्रिय नोन्द्रिय र पतुरेन्द्रिय ३ सेमी। प्रकार के विकीपीग जाय । इनक पेपल पर्या और अपर्यास इस प्रकार के भरसिया पर भेद हो जाते है। पिपद्रिय नियंग जीना के २० भर म प्रकार से या किस गाने मिजार, स्थलार गर ३ दरपुर ४ और मुनपर 1, मोये पाचों प्रथार के नियंग गर्भ से भी समान होते हैं और समुस्लिम भी होते है। स्मृति रहे कि गर्भ से उमन्न होने वाले बहकादि मे जन्म धारण करते हैं अपितु जो समुर्छिम हैं घे यिना गर्भ के केपल चाहिर निमितों के मिल जाने से ही उस हो जाते है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ इन दोनों में केवल विशेषता यही रहती है कि जो गर्भ से उत्पन्न होते हैं उनके मन होता है और जो बिना गर्भ के केवल समुर्च्छिम ( स्वयमेव ) उप्तन्न हुए हैं उनके मन नहीं होता । इसीलिये मनवालो की मना मझी और जो विना मन के हैं उनकी सज्ञा अशी इस प्रकार से व्यवहत कीगई है । जन इनकी उक्त प्रकार से मज्ञा होगई तन इनके स भेद भी होगए। जैसे कि पाच सज्ञी तिर्यगू और पाच अमक्षी तिर्यग फिर पाच ही पर्याप्त और पाच ही अपर्याप्त इस प्रकार सर्व भेद एकत्र करने मे २० होगए । -- इस प्रकार उपरोक्त २२ भेट एकन्द्रियों के और ६ भेट विकलेन्द्रियों के और २० भेद पचेंद्रिय तिर्यगो के एकत्र करने सर्व भेद ४८ हो जाते हैं। ५ यह सर्व व्यवहार नय के आश्रित होकर ही उक्त भेट वर्णन किये गए हैं । I फिर इसी नय के आश्रित होकर जल्चर जीवा के 1 अनेक भेद होने पर भी सुगम बोध कराने के लिये बन्छ, मन्छ ( मत्स्य ) गाहा, मकर, और सुसमार इस प्रकार भी + ये गए हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन प्रकार के प्रकार से सुर, और मैी पर (नेये निर्धारि का पाद) य पण किये गए है । वर्णन राका पाद परमप, शेमरी, समुद्र, और ि वर्णन किये गए हैं । अदि, अनगर, मोर, अगाडि, इत्यादि पुर म ये भेद है। गौरी इत्यादि पर सपों के है। योनि पापि योनि उसकी एक ही है । भय पर उपस्थित होउनि योनि म जीव उत्पन्न क्या होता है ? इस का के समाधान में कहा जाता है कि जी अपने किये हुए कर्मों के प्रयोग में हा उत्पन्न होते है किंतु किमी अन्य आत्माओं की प्रेरणा से उत्पन्न नहीं हाते | जब आत्मा कर्म करता है उन फर्मों के निमित्ता का भी वास्ता है। निमवार विना पादलों में वर्षा नहीं हो ठीक उसी प्रकार बिना निमितों में मिले मात्र भी नहीं भागा नाममा । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन:-जन आत्मा मनुष्य गति में आता है तब क्सि - प्रकार से आता है ? उत्तर ---प्रकृति से भद्रता, विनीतता, आर्जव, और अमत्स. रतादि गुणों से जब जीव युक्त होता है तन आत्मा मनुष्य गति में आता है। म. मनुष्य गति के कितने भेद हैं ? उत्तरः-संग्रह नय के मत से तो केवल मनुष्य जाति का . एकही भेद है। परतु व्यवहार नय के मत मे ३०३ भेद प्रतिपादन किये गए हैं जैसे कि कर्म-भूमिक मनुष्य, जर्म-भूमिक मनुष्य और अतीपों के मनुष्य तथा समुच्छिम मनुप्य ।। मन्न -कर्म-भूमिर मनुष्य किसे कहते हैं ? उत्तर --जो ७० क्लाए पुस्पा की ६१ क्या स्त्रियों की १०० प्रकार की शिल्प करार जो इनके द्वारा अपना जीवन व्यतीत करते हो उन्हे. ही का भूमिक मनुष्य कहते हैं तथा जहा पर सटग विधि, हेवन विधि, वा पि नर्म द्वारा जीवन व्यतीत किया जा सके, उसीको कर्म-भूमि मनुष्य कहते हैं क्योकि जर देश, धर्म, सुव्यवस्थित दशा पर हो जाता है तन कर्म-भूमिर मनुष्य अपने • मुगृहीत पमा द्वारा जीवन व्यतीत करने लग आते हैं। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न -अपने-भूमिक मय किसे कहते हैं ? उत्तर जिन काल में विय त्या पूर्वक जीवन व्यतीत किया जाय मनुष्यों को अकर्म-भूमि मनुष्य कहते हैं। नि यद समय इस प्रकार से होता है कि उमपाल के मनुष्य मी स्वगामी होते हैं और अपना पूर्वक समय व्यतीत करते हैं। प्रश्न - के रहने वाले मनुष्य किम प्रकार में होते हैं ? - उत्तर -यन समुद्र में ५६ प्रतिपादन ि गए है उनमें भी अफसे भूमि (युगलिये ) मशक मनुष्य उत्पन्न होते हैं । भी कल्प पूर्णा वे आधार पर ही पूर्ण करते हैं दिर मरकर देवयोनि को ही प्रान हो जाते है। मो जल में अन्तर पर होने से ही उन्हें अनाव कहा गया है। मो यदि मनुष्यलोक में की गणना की जाय तो पाच भरत, पाच पेरवर्भ, और पान महाविद्द ये १५ क्षेत्र कर्म भूमियों ये पह जाते है तु पाच मवय, पाय हेरण्यवय, पाच हरियर्स, पाच रम्यववर्ष पात्र दवयुक और पाच उत्तरकुरु ये ३० क्षेत्र अयर्भ-भूमियों ये Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथन किये गए हैं और लपण समुद्र में एक रूपादि ५६ अन्तर्वीप मी मनुष्यों के ही क्षेत्र हैं। इस प्रकार सर्व एकत्र करने से १०१ मनुष्य क्षेत्र होते हैं । सो एक सौ एक पर्याप्त और एक मी एक अपर्याप्त इस प्रकार करने से २०० भेट 'मनुप्यो होगए । फिर इन्हीं भेदों वाले मनुष्यों के अवयवों में जो समुठिम मनुष्य होते हैं अर्थात् , एक सौ एक. क्षेत्रों में समुहिम मनुष्यों की .. उप्तत्ति होती है। इस प्रकार सर्व एकत्र करने में ". ३०३ भेद मनुष्यों के प्रतिपादन किये गए हैं। प्रश्न-समुच्छिम मनुष्य किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-जो गर्भ से उत्पन्न हुए मनुष्य हैं उनके मल मूत्राति में जो जीय उत्पन होते हैं उन जीनों की मनुष्य । सज्ञा है अत उन्हें समुच्छिम मनुष्य कहते हैं । मन --मनुष्य के किन ? अवयवों में वे समुछिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? उत्तर --मनुष्य के [१४] चतुर्दश अवयों में वे समुच्छिम मनुप्य उत्पन्न होते हैं। प्र -ने - २ से है ? - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर -- वे भेट निम्न लिखितानुसार पढिये १ ( उच्चारेमुना ) मोम में ( विष्टा में ) ( पासवणेसुवा ) मूत्रमें ३ ( मेलेसुवा ) मुखके मल में ( सघागेसुवा ) के मैल में ५ ( घते या ) यमनम राथ में ८ ( वीर्य ) में सहनाने शरीर में ६ ( पित्तेमुवा ) पित्तमें ७ ( पूण्मु घा) पूत, ( सोणिप्सु वा ) रुधिर में ९ ( मुक्केसु वा ) शुक्र १० ( मुक्क पोग्गल पडिसामु वा ) शुक्र पुगल के पर ११ ( विगय जोय कलेवरे या) मृतक के १२ ( इत्थी पुरिमसजोण्मु या ) स्त्रीपुरुष के योग में १३ ( नगर निद्ध वणेसु वा ) नगर की साई में अर्थात् नगर का साल मल मूनादि के कारण से अति दुगंधमय होजाता है फिर उसमें समुमि मनुष्यों की उत्पत्ति होने लगती है ११ ( सचेमुचैव अमुइठाणे या ) और सब अनुचि के स्थाना में समुहिम मनुष्य उत्पन्न हो जाते है 1 - अतम्य विवेकशील पुरुषों को योग्य है कि वे विना यत्र ते कोई भी क्रियाएँ न करें क्योंकि बिना यत्र से क्रियाए की हुई पाप कर्म वध और व्यवहार पक्ष म रोगो की उत्पत्ति का कारण बन जाती हैं इसलिये प्रत्येक क्रियाए सावधानता से की हुई दोनों एक म शुभ फल की देने वाली होती है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 3 सो जिस प्रकार जीव मनुष्य गति म आता है ठीक |-- उसी प्रकार जीन स्वकीय कर्मों के माहात्म्य से देवयोनि में भी चला जाता है । } ८५ }}} 1 प्रश्नः देवयोनि कितने प्रकार से वर्णन की गई है ? उत्तर:- चार प्रकार से । प्रश्न – ये चार प्रकार की देवयोनि कौन कौनसी हैं ? उत्तरः -- भवनपति, वानव्यतर, ज्योतिषी और वैमानिक देव यही चार प्रकार की देवयानी कथन की गई हैं क्योंकि उक्त चारों जातियों के देवों में जीव म्बसकर्मों के अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं । प्रश्न उक्त देवों के उत्तर भेद कितने प्रकार से वर्णन किये गए हैं ? गए है । उत्तर -युक्त प्रकार के देवों के उत्तर भेद १९८ प्रतिपादन किये गये है। जैसे कि दस प्रकार के भवनपति देव है- यथा -- असुर कुमार १ नाग कुमार सुवर्ण कुमार ३ विद्युत कुमार ४ अभि कुमार ५ द्वीप कुमार ६ उदधि कुमार ७ दिक कुमार ८ पवन कुमार ' ९ स्तनिन कुमार १० । - J M इसी प्रकार २६ प्रकार के वानन्यतर देव क्भव किये Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सय १२ फन्दी जैसे कि-पिशाच १ भूत २ या ३ राक्षम ४ किता किंपुरुप ६ महोग्ग ७ गान्धर्य ८ आणनि ९ पानपनि १० इसियाय ११ भूययाय १२ १३ महाक्न्दी १४ पुदष्ट १५ पयगवाह १६५ दस प्रकार के ज्योतिषी देय जैसे कि - घद्र १ सूर्य • ६३ नमन ४ और तारा : यह पाचही घर और पाच ही स्थिर क्योंकि अढाईशीप र भीतर ( अभ्यता) पर हैं और अढाई द्वीप से बाहर स्थिर है। एक प्रकार के मामक देव-सेनि अन्न. जुभा १ पान जुभफ २ लयन जृभक ३ शया भा ? यस शुभक ५ पुष्पगृभर ६ पल जूभक ७ पुष्प फ्ल भए ८ पीज जूभक ९ आवती जृभक १० द्वादश कल्प देवरोक - जैसे वि- - सुधम देवलोक, १ शान देवलोक : मनत्कुमार देवलोक ३ माहेंद्र देवलोक ४ ब्रह्मदेयरोक ५ लातक देवरोक ६ महाशुर देवरोक ७ सहश्रार देवलोक , आनन् देवलोक ९ माणत् देवलोक १० अरण्य देवलोक ११ अग्युन् देवलोक १२ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमेवेयक देवलोक जैसे - - भद्र १ सुमद्र २ सुजात ३ सोमनस्य ४ प्रियदर्शन ५ मुशन ६ अमोघ ७ सुप्रतिवद्ध ८ यशोधर ९ 1 पार अनुत्तर विमान , विजय १ वैजयत्त २ जयत्त ३ अपराजित ४ 'ओर सायमिद्ध ५ । नव लोकान्तिक देव सारस्वत १ आदित्य पृष्णी ' ३ वारुणी ४ गधतोय ५ तुपिता ६ अनाव्याध ७ आगत्य ८ और रिष्ट ९ । វ 1 - ↓ तीन प्रकार के किल्पिक देन १ तीन पल्योपम की आयु वाले किलिपी देव ज्योतिपी देवों के ऊपर हैं परंतु प्रथम द्वितीय स्वर्ग के नीचे है • सीन मागरोपम की आयु वाले फिल्लिपी देव प्रथम द्वितीय स्वर्ग के उपर है किंतु तृतीय और चतुर्थ स्वर्ग के नीचे हैं । ३ त्रयो सागर की स्थिति वाले किलिपी देव पाचवें स्वर्ग के उपर और छठे स्वर्ग के नीचे हैं । १५ जाति के परमाधामी देव जैसे कि अम्न १ अम्बरस के नाम ३ शक्ल ४ रोद्र ५ विरोह ६ का ७ महाकाल ८ अभिपन ९ धनुष्पन १० कुथी ४१ वा १० वैदारण १३ सरसर १४ महाघोप १५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1KS " ये सप ९९ प्रकार के देव पर्याय और अपार । दो भेद परने से देवों के मर्थ भैर १९८६प । मो उक्त फयन किये हुए मपं स्था में जब सम्बो . के अनुसार उत्पन होते रहते हैं। यापि प्रसुन प्रकरण जीव मत्व के विषय में इस या सथापि अनादि सारचक में नाना प्रकार की योनियों । में जीव अपने कमी के अनुमार परिभ्रमण कर रहा अत उन स्थानो पा शेयर सभर मात्र से विदा करावा गया है। परच निम समय आर र पमा पो सम्मर द्वारा गिरोध पता है तय प्राची जोम किये हुए होते हैं गनो स्वाध्याय या सप द्वारा क्षय पर ला है। जय सर मरार ये फर्म धधन । आमा विमुश होना तय किर वह गिराण पदपी मान ररता है। यदि ऐकहा गय गिजर आत्मा निर्माण पर प्राम पर लेने पर भी मक्रिय है ता फिर वहा पर फो पा य क्योरता ? म सा मनापान में कहा जाता ६ 1- यद सकिना आमिर गुणा आश्रित है किंतु कपायात्मा का योगात्मा के आश्रित नहीं है इसरिये यह पमी का राध नहीं पर मत्ती । क्यापि स क्यिा थी साधन सामग्री Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनों के पास विद्यमान नहीं है । जिस प्रकार एक पूर्ण विद्वान पुरुष है और लेखक भी अद्वितीय है परंतु ममी पात्र या देखनी तथा पर उसके पास नहीं है तो भला फिर वह सि वसरमार समर्थ विद्वान होने पर भी पत्र लिन सक्ता है ? अपितु नहीं लिस सक्ता । ठीक इमी प्रकार योगात्मा ग में पायात्मा के न होने से मोक्षामा सनियत्व होने पर भी की का वय नहीं करता । जिस प्रकार हेयन सामग्री के न होने से पर नहीं लिस सत्ता किंतु लेखक क्रिया उममें विद्यमान रहती है तद्वत् मोक्षात्मा विपय जानना चाहिये। पाठ आठवॉ। अजीव तत्व। पश्च प्रतिपय रूप धर्म प्रत्येक पार्थ में पाया जाता है । इसी न्याय के आश्रित होकर तत्वों की मरया गिती जाती है। प्रश्न --तत्व किसे कहते हैं ? उत्तर -वस्तु के वास्तविक स्वरूप को तत्व कहते है। प्रश्न --तत्व क्तिने प्रकार से वर्णन किये गार है ? . उत्तर -नव [९] प्रभार से। । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद १० होगए । उक्त चारों द्रों के निम्न लिसितानुसार २० भेद दम प्रकार ने आते हैं, जमे कि - धर्मास्तिकाय के ८ भदा-द्रव्य से एक १ भत्र से लोग परिणाम : पाल से अनादि ३ भावसे अवा अगन्ध, अरस, अरूपी ४ गुण से चरन गुण स्यभाय ( गति क्षण)निस प्रगर धर्मास्तिपाय पे ५ भेद फ्यन किया गए है ठीय उमी प्रकार अधर्मास्तिवाय ये भी ५' भेद जानना चाहिये । केवल गुण म विगेपता है जैसे कि ----स्थिर गुण स्वभाव । निम प्रकार अधर्मास्तिकाय का विवरण है उसी प्रकार आकाशास्तिकाय का वर्णन है केवल जापाशास्तिकाय के गुण . म इतना विशेष है यि यह अपका गुण का देने वाला है । जिस प्रसर आकाशास्तिकाय के विषय का वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार काल द्रव्य का भी वर्णन है किंतु विशपता इसी बात की है कि उसका वर्तना लसणस्वभाव है। माथ में इस बात का भी विचार रखना चाहिये कि क्षेत्र में थाकाग द्रव्य रोकालाक परिमाण है और माल दूध क्षेत्र से समय क्षेत्र परिमाण है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ इस प्रकार सर्व भेद अरूपी अजीव तत्व के ३० हो गए । "प्रश्न रूपी अजीव तत्य किसे कहते हैं ? उत्तर - युगल द्रव्य को क्योंकि पुद्गल शद का यही अर्थ कि जिसके परमाणुओंके मिलने और निठुरने का स्वभाव हो तथा सयोग और वियोग के धरने वाला हो तथा यावन्मान पदार्थ दृष्टिगोचर E aur उपभोग के अर्थ में आता है वह म पुद्गल द्रव्य ही है । म:- जिस प्रकार अरूपी अजीव के ३० भेद वर्णन किये गए ठीक उसी प्रकार रूपी अजीव के कितने भेट वर्णन किये गए हैं ? Į उत्तर -५३० भेद रूपी अजीव तत्व के वर्णन किये गए मदन - किस प्रकार से ? उत्तर:- सुनिये | जैसे कि 1 ५ सस्थान परिमंडल संस्थान ( चुडीके आकार ) वह सस्थान ( वृत्ताकार गोलाकार ) यस सस्थान त्रिकोणाकार ) चतुरस्र संस्थान चौकी के T ( पीठ के आकार ) आयत संस्थान ( दीर्घाकार ) ५ वर्ण:- कृष्ण १ नील २ पीत ३ र ४ और श्वेत ५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न --जीव तत्व क्मेि कहते हैं ? उत्तर--नो तीन कार म अपना अस्तित्व रसता हो आयु पर्म · द्वारा जीता हो जिनका यणन गन पाठों में किया जा चुका है। प्रश्न -अजीतत्व सि कहते हैं ? उत्तर --विस तत्व,म जीरमत्ता न हो । जैसे कि - उपयोग और वाय न हो उसे ही अजीव तत्व कहा जाता है। प्रश्न-जड पदार्थों म प्रिया नो देखी जाती है जैसे नि परमाणु आदि की गनिता फिर अनीय तस्य उमे क्यों कहा जाता है ? क्याकि नियात्मक होने से उसे जापत्य की सिद्धि होनी चाहिये । उत्तर --प्रियवर जड पदार्थों म ममियना तो अवश्य । __ परतु यह त्रिया शल्यरूप है क्योकि जदत्व है किया है नतु उपयोग पुर्वक 'अतएव जहा पर उपयाग और वीय ये दोनो गुण पाये जायें उम को जीर' कहते हैं परतु जहा पर उपयाग गुण : ' हो'उमी तत्व को अजीयं गत्व कहते हैं। मन्न-अजीर तत्व ( पाय ) म्पी है किंचा। अपी है ? Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर --अनीव पदार्थरूपी भी है और अरूपी भी है । प्रम.-यह कैसे? " उत्तर -जन मत में पद द्रव्य माने गए हैं। जैसे कि -धर्म ____ द्रव्य १ अधर्म द्रव्य २ आयाग इन्य ३ पाल द्रव्य ४ । जीव प्यार और पुदगल द्रव्या.६ मो उक्त पद ' दयों में जीरा द्रव्य केयर्क चैतन्य सज्ञा वारा है। शेप पाच द्रव्य चैतन सज्ञान होने से अजीर द्रव्य कहे जाते हैं किंतु उसमें भी द्रव्य । अरूपी और एक फेवल पुद्गल द्रव्यरूपी कहा जाता है। अतण्य कहा जाता है कि अजीव द्रव्य रूपी भी है और अरूपी भी है। प्रश्न--पी अजीव दम्य उपमेद कितना है? Mac उत्तर ----अरूपी अजींच द्रव्य के उपभेद - ३० हैं । -- - - प्रश्न-वे तीस भेद किम प्रकार गिने जाते हैं ? सुनिये -नमे कि धर्म द्रव्य के प्रथम तीन भेद हैं यथा स्कंध १ देश • और प्रदेश ३ इसी प्रकार . ...अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य के भी तीन . ___ -भेद किये जानेपर, सर्व ,९ भेद हुए। फिर पाल का केवल एक ही भेदा है । इस प्रकार Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pe प्रश्न -उनके नाम क्या क्या उत्तर - जीव तत्व १ अजीव ---- ? तत्व २ पुण्य सत्य ३ पाप * तत्य ४ आश्रय तत्व ५ सम्वर तत्व निर्जंग तत्व ७ वध तत्व ८ मोभ सत्य ९ । प्रश्न -वैशेषिक मत सात तत्व मानता है, नैयायिक १६ पदार्थ मानता है, साख्य प्रवृति और पुरुष को मानता है वेदान्त केवल एक को ही स्वीकार करता है और बौद्ध पांच कधी की ही उद्घोषणा करता है ऐसा क्यों ? उत्तर - जो कुछ उस मतवालोंने तत्व मतिपादन किये हैं वे वास्तव में सत्य नहीं है किंतु तत्वाभास है। अतः वे तत्य युक्ति क्षम नहीं है । प्रश्न - इस प्रकार तो उक्त मत वाले भी वह मक्के हैं कि जैनमत ये माने हुए वास्तव में तत्व नहीं है किंतु तत्वाभास ही है। तो भला इसमे प्रमाण ही क्या है ? उत्तर - प्रिय मित्रवर्य ! केवल मुस से पहदेन से ही काम नहीं चल सका। जब तक कि युक्ति प्रमाण से उन aat की जाच न की जाय । } Page #102 --------------------------------------------------------------------------  Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ 2 ५ रस - तिक १ टुर २ क्पाय रस ३ अचम्बिल ( सट्टा ) ४ मधुर ५ गन्ध - दुध और सुगघ । स्पर्श कक्दा १ सकोमर २ रु ३ स्निग्ध ४ लघु ५ गुरु ६ उष्ण ७ गीत ८ परिमंडल स्थान का भाजन हो वृत्त संस्थान प्रतिषय हो तो परिमंडल मस्थान म २० बोल पडते हैं। ३ आठ यश में जैसे रि-पाच वण १ पाच रम २ दो गद्य स्पर्श इसी प्रकार २० बोल वृत्त संस्थान म २० २० गोल चतुरस्र संस्थान मे २० पोल आयत संस्थान में सर्व पाच संस्थाना में २० पोल होगए । १ कृष्ण वर्ण के भागन मे २० घोल संस्थान व गघ ८ स्पश --- P -५ रस ५ : " सो इसी प्रकार नीलवर्ण, पीतवण, रक्तवर्ण, और श्वेतरण में भी पूर्वोक्त विधि से २०-२० बोल पडते हैं सो सर्व सरया एन परो से १०० बोल होजाते हैं । सो जिस प्रकार से पाच वणों में १०० भेद पडते हैं उसी प्रकार पाच रसों के भी १०० भेद होजाते हैं तथा ५ स्थानों के भी विधि से १०० भेद बन जाते हैं परंतु मुगध मे Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ प्रति शनि पक्ष है उनमें ५ वर्ण यो पड़ते है जैसे कि सुगंध का भाजन है दुगंध उसका ५ रस ५ सस्थान और इसी प्रकार स्पर्श इस प्रकार २३ बोल पडनाते हैं । जिस प्रकार मुग में अक पडते हैं उसी प्रकार दुगंध में भी जानना चाहिये । और आठ स्पशों में १८४ बोर पडते हैं जैसे कि - कोन सर्ग के भाजन में २३ बोल - ५ वर्ग ५ रम ५ सम्यान २ सय ६ स्पर्श । इसी प्रकार आठों स्पर्शो में तेवीस • नोटों की सभावना कर लेनी चाहिये । क्योंकि जब हिनीने कर्क्षश स्पर्श में २३ बोल पाने हों तो उसको केवल का प्रतिपक्ष मृदु स्पर्श ही छोड़ना पडेगा । शेष सर्व सग उनमें पडजावेंगे 4w 1 1 A क्योकि यह नात भली प्रकार से मानी हुई है कि एक स्थान में दो विरोधी गुण ना रह सके । ' 4 मो इस प्रकार १०० नोल संस्थानों में १०० वर्णों में १०० रसों में ४६ गधों में १८४ मोल स्पर्शो मे सर्वम्पी अनी तर ५३० भेद हुए । और पूर्व ३० भेट अरूपी तत्व के लिये जा चुके हैं सो सर्व भेट अजीव तत्व के Ay ५ ६० हुए । ₹ यह केवल व्यवहार नय के आश्रित होकर मुख्य भेद वर्णन किये गए है feतु उत्तर भेद तो इसके असख्य वा अनत हो जाते हैं । किंतु Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योकि जर परमाणु पुगर या अनत पाय धन क्रिय मयाद नो फिर उसय भेदभी वो अनत हो मा । और यो मय जगत् जड और पता में युक्त है। ससारी शात्मा इस मड पदार्थों के मोहमें फमकर दुम उठा है। प्रश्न - अष्ट पदार्थों में जहत्व गुण कयम है १ उत्तर-अनादि काल मे। मन्न-जय अनादित्य पटव गुण है तो फिर उम गुण से . , आत्मा विमु रिस प्रकार हो सत्ता ६१ उत्तर ---स्वानुभयसे । प्रश्न-स्थाभय विम प्रकार का चाहिये ? उत्तर सदेव पाल इस पातका अनुभव करते रहना चाहिये कि हे आत्मम् । नू अनत शक्ति स्वरूप है, तू अजर अमर और सिद्ध युद्ध है तथा हे आत्मम् । तू सर्यक्ष और मर्वदशी है और तू ही सय का उपास्य देय है किंतु फमों के कारण से न मूर्य और दुपा पा अनुभव कर रहा है। यदि तू धर्म और मुशध्यान के आभित होपाय तो सू सर्व प्रकार के कर्म बधन से घटकर सिद्ध युद्ध होजायगा तथा यावन्मान पौगलिक सम्बन्ध तेरे साथ हो रहा है वह सच क्षण विनश्वर है। अतएव तुझे योग्य है कि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ पवित्र बनाता है क्योंकि तत्व का वास्तवमें यही मुरय लक्षण है कि वह स्वतनता पूर्वक अपना कार्य करता रहता है। प्रश्न- क्या मभी आत्माए ससार में परिभ्रमण करनेवाली ,पुण्योपार्जन करती रहती हैं ? उत्तर:-हा, ससारी सभी आत्माए समय २ उक्त फर्म का सचय करती रहती हैं परतु विशेषता इतनी ही है कि न्यूनाधिक पुण्य प्रकृतियों का प्रत्येक आत्माए समय • वध करती रहती हैं। मदन:-क्या किसी नयने पुण्य को धर्म भी माना है ? उत्तर---हा, व्यवहार नय के मत से पुण्य क्रियाओं को धर्म भी माना गया है। प्रश्न -क्या पुण्य रूप क्रियाए आत्म रूप धर्म नहीं है ? उत्तर -आत्मरूप धर्म पुण्य और पाप दोनो से रहित होता है। पदन ---हम तो पुण्यरूप क्रियाओं को ही आत्मरूप धर्म समझते हैं ? उत्तर-यह क्थन आपका विचार पूर्वक नहीं है क्योंकि - यदि किसी मूर्स व्यक्ति को विद्वानों वा जटलमेनों Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० क्योंकि उम आत्मा या आदेय माननीय ] नाम धर्म, याधा हुआ होता है जिससे उसकी क्या की हुई वा सर्वत्र माननीय यन जाती है। अतएव पुण्य रूप परमाणु समार पा में आत्मा का शुभ और पवित्र रूप यनाते हैं। इतना ही नहीं तुि पुण्याप आत्मा ये साल मनोरथ । चिंतन किये हुए सफल हो जाया करते हैं। देव योनि आनि यहुत सी योनिया उसष्ट पुण्य के प्रभाव से ही औधा को उपलब्ध होता? निससे किसी नय की अपेक्षा से "ज्ञेय " म पुण्य होने पर भी उपाय ( प्रहण करने योग्य) प्रनिपादन किया गया । सो पूण्य रूप मिया पेपल शुभयोगों पर ही निर्भर है । अतण्य इस पाठमें इसी विषय को स्पष्ट रूप मे धनराने की पेप्टा भी जायगी। प्रश्न-पुण्य तत्व किसे कहते हैं ?, उत्तर -जो ससार में जीवों को गुभ वा पवित्र यनाचे । प्रश्न-पुण्य को तत्व क्यो माना गया है ? उत्तर - यह र मुरय रूप पुद्गलों का वध होता है जो अनेक विपत्तियों से निकाल कर फिर जीर को Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुहा के दान से या जो पर्वतो मे गृह होते हैं. उनके दान करने से ३ ( सयण पुण्णे) शग्या के (वसति आनि) के दान से ४ (वत्थ पुण्णे) वस्त्र के दान मे ५ (मण पुण्णे ) मन की शुम प्रति से ६ (यण पुण्णे ) शुभं वचन के योग प्रवर्नाने से ७ ( काय पुण्णे ) पाप कर्म से काया का निरोध करने स ८ ( नमोकार पुण्णे ) नमसार करने से। इन नौ कारणों मे आत्मा पुण्य कम मा मचय कर देवा हे कारण कि जर किमी प्राणी पर अनुगम्पा के भाव अन्न होते हैं तर आत्मा उक्त क्रियाओं के करने में प्रवृत होता है और फिर उन्हीं शुभ भागों से पुण्य रूप परमाणुओं का सवय किया जाता है। जिम प्रकार कोई आत्मा शात चित्त मे कार्तिक "शुष्ठ भागामामी के चन्द्र को देखता हो तथा प्रान काल में वर्षा पहनाने के पश्चात पुष्प वाटिका मे पुष्पों की सौंदर्यता को देखना हो तर उसके आत्मा में शातमय परमाणुओं का सवार हो जाने से मन और चक्षुओंके परम प्रसन्नता हो आती है। ठीक उसी प्रकार पुण्य कर्म के परमाणुओं का भारम प्रदेगा के माथ जय और नीयन् सम्बन्ध हो जाता है अब उन परमाणुओं का मचय लब उदय भार में आता ३.१५ आत्मा को ससार पक्ष में पवित्र बनाकर उसे जनता में मनिष्ठिन व हवे हैं। many Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ या वेप पहनाकर गजद्वार में भेजा जाय तो पिर. यह क्या उस वेप पहनने से ही विद्वान वा प्रोफेसर तथा डाफ्टर आदि उपाधियों के काम देने में ममर्थ हो जायगा ? कदापि नहीं। यदि ऐमा कहा जाय नि उमरा येप तो यही है तो इसके उत्तर में कहा जा सका है कि उसम विधा नहीं है पेवर वेप क्या यना सपा मो इसी प्रकार पुण्य रूप तस्य आत्मा पे थाहर, रूप वेप को पवित्र यनाता है नतु अतरग आत्मा को । क्योकि पुण्य पेपर अघाति म रूप पमों का पल है। - - - अतण्य निस प्रकार सुदर आभूपण या भुदर रूप, पत्र घाल रूप शरीर को सुदर या अलपत करते हैं उसी प्रकार पुण्य तत्व विषय में भी जानना चाहिये ।। प्रश्न-पास्तप म तत्व शब्द का अर्थ क्या है ? उत्तर:-पदाय धारसधिक सरूप को तत्व कहते हैं। प्रश्न:-पुण्य तत्व किन कारणों से जीव यायते हैं १ . उत्तर--ना प्रकार से जीव पुण्य कर्म था सचय करते हैं। प्रश्न-ये कारण कौन २ से है ?' उत्तर -मुनिये (अन्न पुण्णे ) अन्न दान से १ (पाण पुण्णे) र पानी के दान से २ (लयण पुण्णे ) गिरी आदि की Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ - निर्यग् की आयु ३ । ये तीन प्रकृतियाँ जीर पुण्य कर्म के पल मे आयुष्फर्म की अनुभव करता है। - यदि ऐमा कहा जाय कि क्या पशु का आयुप्फर्म भी प्रोदय मे माना जाता है ? तो इसके उत्तर में कहा जाता है कि कर्म भूमिज वा अकर्म भूमिज बहुत मे ऐसे पशु भी है जिनका मनुष्य का देवता सेवा करते हैं । इस वास्ते इम प्रभार * पशुओं का आयुष्कर्म भी पुण्योदय में माना गया है । ____पुण्य प्रति के उन्य से नाम कर्म की ३७ प्रकृतियाँ गने म आती है जो निम्न लिखित अर्थ युक्त लिसी जाती मे कि... शाम कर्म किम कहते हैं ? तार को गत्यादिक नाना रूप परिणमारे अथवा शरीरादिक गावे भावार्थ - नामम आत्मा के सूक्ष्मत्व गुण को एनना है। १ देव गनि किसे कहते हैं ? जो कर्म जीव का आकार व रूप बनावे । २ मनुष्य गति किसे कहते हैं ? नो कर्म जीव का आकार मनुष्य रूप बनावे २ पवेन्द्रिय जानि किसे कहते हैं ? . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्ष- मका Tufer कर्म म गर । उत्तरा-पार की FE RET मा । प्रश्न- पार मं फोन #ITTET पनगा। उत्तर -पाय फ 1 आयु पर • माम कर्म और गोत्र प्रम-प नौ लोग भामा पुप कर पामाशुभा फागमय करता दे माग कितने प्रकार मे उत्तर -४२ प्रकार गे पुण्यकर्म क फठौं को भोगते हैं। प्रहना- ५२ प्रतियां कान मारा पुण पर्म का मोगा जागा उसरतीय फर्म की माता दी प्रशी २ अपार निमम उदय मजीप गुपा पाभव फरता रहता है और आयुपम की सान मानिय पुण्य के उदय में प्राप्त होती है। रेस दिया की आयु । मनुष्य की आयु २ और नाम मुगार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ८ का शरीर किसे कहते हैं ! Maraरण आदि कर्मों का सजाना और आहार को पीर में ठिकाने २ पहुचाने याला । ९ ओदारिक का अगोपाग १० वैक्रिय का अगोपाग 1) आहारक शरीर का अगोपाग किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से अग ( मिर, अग (मिर, पैर, हाथ, आदि ) राग (अगुली, नाक, यान, आदि) बने सो उक्त गरी के अगोपाग होते हैं शेप से शरीरों के अंगोपाग ही होते हैं तीनों शरीश के अगोपाग कहे जाते हैं । १ नाचमनन किसे कहते है ?. पिस कर्म के उदय से मर्कटन्य से वधी हुई के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो और तीना को घाटी हड्डी की की जिस महनन में हो । १३ ममचतुरस्रस्थान किसे कहते हैं ? जिम कर्म के उदय में पलॉठी ( पालसी ) माग्ने पर पैर की शह चारों ओर से समान हो । १४ शुभ वर्ण से कहते हैं ? रिम नाम कर्म के उदय से शुभ वर्ण की उपलब्धि हो । जैसे सुदर वर्ण ( सुदर रूप ) 1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fin R. गानि । भिOTRArr . me अपा! परम धर्म र पापों को ही ' पामा ४ औदाकि पल दार प्रपा अथात् mir मा मो. गया जो माम शि भादि मे सामा। ५ पश्यि हो? ___vग भोक और विपित्र पा ६ आ गि काम है? प्राणि दया, मायरों की प्रसिपा मा, मम पात्र বা “বাননা, মনে ৫। গুৰি যাম দাস না दर पूपधारी मुनिगा योग पर जो at पना। 37 आहारप परीर को है। ७ गेजम पारी फिमे पहते हैं। आवारिक पेत्रिय शरीर को सेज (शाति) देवाण आधार का पचाने वाला और संगारेश्या का साया जा शरीर कहलाता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ २१ अगुइरधु नामकर्म किभे कहते हैं। निम कर्म के उदयसे जी का शरीर शीशे के गोले क समान न भारी हो और न असंतूल के समान हलका हो । , परापातनामर्म किसे कहते हैं ? ___सि कर्म के उन्य से जीव डे २ वलयानी पी -ष्टि में भी अनेय मालुम हो। __ २३ उश्वासनामर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से बाहरी हवा को शरीर में नासिका - द्वारा सींचना (वास ) और शरीर के अपर की हवा को नामिका द्वारा बाहर छोडना उच्वास ] ये दोनों किया हो उसको श्वासोच्छ्वाम नामकर्म कहते हैं। २१ आतापनामर्म किसे कहते हैं। ___निस कर्म के उर्दय से शरीर आतापरूप हो जैसेसूर्य मडल । २५ उद्योननामकर्म किसे कहते हैं १ . “चम किस कर्म के उन्य मे, उद्योत रूप शरीर हो - ६ निर्माणनामकर्म किम कहत है । मि कमे के उदय से अंग और उपांग शरीर में अपने २ स्थान पर व्यवस्थित रहे। Page #115 --------------------------------------------------------------------------  Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ अगुरुलघु नामकर्म कि कहते हैं ? ___जिम कर्म के उद्यमे जीव का शरीर शीशे के गाले के समान न भारी हो और न असंतूल के समान हर का हो । २. परावानिमिर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के न्य से जीव डे लवानी की ष्टि में भी अजेय मालूम हो । २३ उश्वामनामर्म किम कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से बाहरी हवा को शरीर में नासिका द्वारा सींचना (श्वास ) और शरीर के अंदर की हना को नामिम द्वारा बाहर छोडना [उच्छ्वाम ] ये दोनों क्रिया हो उसको श्वामोच्छ्वाम नामर्म कहते हैं । २५ आतापनामकर्म किसे कहते है ? . जिस धर्म के उदय में शरीर आतापरूप हो जैसेसूर्य मडल। २६ उद्योतनामकर्म किसे कहते हैं ? , जिम कर्म में उन्य से उगोन रूप शरीर हो जैसचमडल, नक्षत्रादि । २६ निर्माणनामकर्म किसे कहते हैं। ' जस में के उदयं में अंग और ,उपांग शरीर में अपने २ स्थान पर व्यवस्थित रहें। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० २७ तीर्थकरनामस्म किसे पहते हैं ? निम कर्म के उदय से तीर्थकरपद की प्राप्ति हो । २८ प्रमनामकर्म सेि पहते हैं ? जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रियादिनसमाय की प्राप्ति हो। २९ यादरनामम पिसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय मे जीव फो घादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो। ३० पर्यातनामकर्म विसे पहते हैं ? जिस कम से उदय से जीव अपगी २ पयाप्तियाँ से युक्त हो अर्थात यावन्मान सिमे पर्याप्तियाँ पडती हा तापमान पर्याप्तियों से मुक्त हो जाये। ३१ प्रत्येक मर्म क्मेि कहते हैं ? निस कम के उदयसे एक शरीर का एक जीन स्वामी हो अर्थात एक गरीर म एक ही आत्मा निवास करनेमाले होवे । यद्यपि उमकी नेश्नाय अनेक आत्माए और भी उस शरीर में रह मसी है परतु मुरयतामें एक ही आत्मा उस शरीर में रहे ।। ३२ स्थिरनामकर्म किसे कहते हैं ? जिस क्म फे उदय से दात, हड़ी वगैरह शरीर के अवयव 4 (अपने • ठिगाने ) हो। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ३३ शुभनामकर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से शरीर के अनयय सुदर हो । ३४ सौभाग्यनामकर्म किये कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने ऊपर विना कारण प्रीति करें । किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय मे स्वर अच्छा हो । ३५ सुस्वरनाम ३६ आदेयनामकर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य हो । ३७ यशोकीर्तिनामकर्म किसे कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से ससार मे यश और कीर्ति फैले ( एक दिशा में प्रशसा फैले उसे कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओ में प्रशसा फैले उसे यश कहते हैं ) । इस प्रकार पुण्य प्रकृति के उदय मे ३७ प्रकृतियाँ नाम की जीव बाधता है और फिर उसी प्रकार उन शुभ प्रकृतियों के फलों का अनुभव करता है । } } गोत्रकर्म की केवल एक ही प्रकृति पुण्य प्रकृति के उदय सेनाघी जाती है। जैसे कि उच्च गोल । इस प्रकार, आत्मा नौ प्रकार मे पुण्य प्रकृतियों को बाधकर पूर्वाक लिसे हुए ४२ प्रकार के उनके फलो का अनुभव करता है । r ST Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ प्रभा-ये उक्त पुण्य प्रतियाँ क्या अपने आप फल देने में समर्थता रसती हैं ? उत्तर'-नय कर्म घाधने या भोगने का समय उपस्थित होता है तब उस समय आत्मा काल, स्वभाव, निर्यात कम और पुरुषार्थ इन पाच समयापों को एकत्र कर लेना है। और जर ये पाच समयाय एक्न हो जाते हैं तर आत्मा इनके द्वारा फलां का अनुभव फरने रगता है। पन्न --इन पाच सममाया की सिद्धि म कोई इष्टात देकर समझाओ? उत्तर -निस प्रकार एक कृपिरल (किसान) को अपने खेतम धान्य बीनना है मो प्रथम तो उस धान्य के बीनने का समय (काल) ठीक होना चाहिये । जय कार ठीक है तन धान्य शुद्ध होना चाहिये क्योंकि जिस धीर का अकुर देने का स्वभाव है वही वीज़ साथक हो सकता है अन्य नहीं ! जय स्वभाव शुद्ध है तथ नियात अर्थात बाहिर की त्रियाए भी शुद्ध होनी चाहिये । इसी प्रकार उस धीजने आदि का कर्म भी यथावत होना चाहिये। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ कल्पना करो कि जन चारी ही ममवाय ठीक मिल नाय तर फिर पुरुषार्थ की भी असत आवश्यकता है क्योंकि बिना पुरुषार्थ किये वे चारों समवाय निरर्थक होने की भावना की जासकेगी । अतपय जन पाचना समवाय पुरुषार्थ भी यथानन मिलगया तन वह कपिल अपनी क्रियासिद्धि में सफल मनोरथ हो सक्त है । र सो इसी न्याय से आत्मा भी कर्म बाधने ना भोगने में उत्त पाच मनायों की अवश्यमेव आवश्यक्ता रखता है। f 1 क्योंकि जिस प्रकार एक सुलेसक मपीपान वा पनादि मामी के बिना लेसन क्रिया में सफल मनोरथ नहीं हो मक्ता, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी उक्त पाचों समवाया के बिना मिले किसी भी किया की सिद्धि में सफल मनोरथ नहीं हो सका । जलण्न aava निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि पाच माका भिलना अत्यावश्यक ही है । प्रश्न - नय आत्मा पुण्य प्रकृतियों का वध करता है तो फिर क्या वे पुण्य प्रकृतियाँ किसी विशेष कारण से शप फल के देने वाली भी बन जाती है ? ★ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર प्रश्न ये उक्त्त पुण्य प्रकृतियाँ क्या अपने आप फल देने में समर्थता रखती है ? उत्तर -- र कर्म बाधने या भोगने का समय उपस्थित होता है तन उस समय आत्मा वाल, स्वभाव, निर्यात कर्म और पुरुषार्थ इन पाच समवायों को एकन कर ऐता है। और जब ये पाच समवाय एक हो जाते ईतर आत्मा इनके द्वारा फ्ला का अनुभ १ करने लगता है । प्रश्न – इन पाच समयाया की सिद्धि में कोई दृष्टात देकर समझाओ ? उत्तर -जिस प्रकार + कृपिपल ( बिसान ) पो अपने सेम धान्य बीना है सो प्रथम तो उस वान्य 4 के बीजने का समय (काल) ठीक जन काल ठीक है तर धान्य शुद्ध क्योंकि जिस छीन का अकुर देने यही बीज्ञ सार्थक हो सकता है अन्य नहीं । 3 होना चाहिये । होना चाहिये का स्वभाव है 1 - जन स्वभाव शुद्ध हे तत्र निर्यात अर्थात बाहिर की निया भी शुद्ध होनी चाहिये। इसी प्रकार उस पीजने आदि का कर्म भी यथावत होना चाहिये । JT f Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-हा। किसी विशिष्टतर भावों की उत्कर्पता के __ कारण से पापरूप प्रकृतियाँ पुण्यरूप फल के देने में समर्थ हो सकी हैं। मन-इसमे कोई प्रमाण दो। उतर:- इसमें प्रमाण तो केवल भावों की उत्कर्पता ही है। परतु जिस प्रकार पुण्यरूप प्रकृतियों को भावों से विपरिणमन आत्मा कर सकता है इसी प्रकार पापरूप प्रकृतियों को भी शुभ भावों से पुण्यरूप कर सकता है। जिस प्रकार दुग्ध से दधि यनाया जाता है फिर युक्ति __ से सी दधि से नवनीत निकाला जासक्ता है । फिर उसी नवनीत से पत बन जाता है । क्रमश अनेक पदार्थों का उस धृत में संस्कार किया जाता है । ठीक तद्वत् शुभ भावनाओ द्वारा शुभ अशुभ प्रकृतिया का विपरिणमन किया जा सत्ता है। इस याते प्रत्येक व्यारी को योग्य है कि यह शुभ मनोयोग द्वारा प्रत्येक पदार्थ पर विचार करता रहे जिससे ज्ञान वा पुण्य प्रकृतियों का बध ये दोनों लाभ आत्मा को उपल ध होते रहें। ___ क्योंकि धर्म-नियाओं के करते समय ये पुण्य प्रकृतियाँ फिर करण ( साधन ) का काम दे सती हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ आत्मा सम्यग्दर्शनादि के द्वारा ठपयों का अनुभव कर सका है। " अत प्रत्यक व्यक्ति को योग्य है कि यह साधन द्वारा साध्य की प्राति परे वा उसकी सोज करे । पाठ दसवां । आत्मानुप्रेक्षा । प्रिय सुत जनों । यावत्काल पर्यंत आत्मा स्वानुभव नहीं मरता साला पर्यंत आत्मा आत्मिक सुखों से वचित ही रहता है। क्योंकि संसार में देखा जाता है कि प्रत्येक आत्मा सुसान्वेषी हो रहा है परंतु उस अन्वेषण के मार्ग भित्र २ दिखाई पड़ते हैं। जैसे कि किसी आत्माने धन की प्राप्ति में ही सुरा माप रक्सा है और किमी ture मा हुआ है। साहसी आत्मा ने पुत्रोत्स में ही सुरा माना हुआ यादी २ आत्मा ने अपनी में मुख उक्त नमन रक्ता है । गरि विचार पर के अन्वेषण वज - क्योंकि उ इच्छानुकूल सुख * Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENG नहा होते हैं। जैसे कि जब धन की इच्छानुकुल प्राप्ति होगई तो मानो कि उस आत्मा को सुस तो होगया परंतु जब उसी धन का किसी निमित्त से वियोग होजाता है तन फिर वही आत्मा परम शोक से व्याकुल हो जाता है । इसी प्रकार अन्य केनिय में भी जानना चाहिये । अतएव परम सुख की प्राप्ति के लिये स्वानुभन करना चाहिये | अन प्रश्न यह उपस्थित हो सक्ता है कि सानुभव किस प्रकार करना चाहिये ? तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जब आत्मा की नाहिरी वासना नम्र हो जाती हैं और उस आत्मा के समभाव प्रत्येक जीन के साथ हो जाते हैं त उस समय आत्मा नानुभन कर मता है । अतएव आत्मा के स्वानुभव करने के लिये प्रथम पाच को अवश्य ध्यान रखना चाहिये । जैसे कि - शाति ३ निर्ममल भाव ४ आत्म विवेक १ विचार विकास करने का शुद्ध स्थान ५ इन पाच वातो का विचार माल करते रहना चाहिये। जैसे ---- १ विवेक मत और अमत वस्तु पर विचार करत रहना । माही इस रात का विवार करना कि हेय, ज्ञेय और पादेय पार्थ कौन २ मे हैं ? क्योंकि यावत्काल पर्यन्त Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा मम्यग् नानि के द्वारा ठीक • पार्थों का अनुभव कर सत्ता है। ___ अत प्रत्येक ज्यात मो योग्य है कि यह साधन द्वारा साध्य की प्राप्ति करे या उसकी सोज करे। पाठ दसवा। आत्मानुप्रेक्षा। प्रिय मुझ जनों । यावत्वार पर्यंत आत्मा सानुभव नहीं करता तायत्काल पर्यंत आत्मा आत्मिक मुग्यो से वचित ही रहना है। क्योंकि समार में देसा जाता है कि प्रत्येक आत्मा मुग्नान्वेषी हो रहा है परत उस अन्नैपण के मार्ग मिन • दियाइ पडते हैं। जैसे कि - किसी • आत्मान धन की प्राप्ति में ही मुस मान रक्या है और दिमी । आत्माने निगाह कार्य म मुन माना हुआ है। तथा क्सिी • आत्मा ने पतोत्मय म ही मुस माना हुआ वा रिमी - आत्मा ने अपनी अमीष्ट सिद्धि म मुल समझ रक्सा है ।यनि विचार कर देगा जाय तो वे सब " मुम के अन्वेषण करने के मार्ग वास्तव में सुमार्ग नहीं है। क्याकि उन मागी से यदि किसी आत्माको पनी रानुसर सुस उपर ध भी हो जाये तो वे मुस'चिरस्थाया Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E नही होते हैं। जैसे कि - जब धन की इच्छानुकूल प्राप्ति होगई वनतो मानो कि उम आत्मा को मुस तो होगया परंतु जय उसी धन का किसी निमित्त से वियोग होनाता है तन फिर वही आत्मा परम शोक से व्याकुल हो जाता है । इसी प्रकार अन्य पदार्थों के निपय में भी जानना चाहिये । लिये स्वानुभव अतएव परम सुख की प्राप्ति के करना चाहिये | अन प्रश्न यह उपस्थित हो मत्ता है कि सानुभव किस प्रकार करना चाहिये ? तो इसके उत्तर में कहा जा सक्ता है कि जन आत्मा की बाहिरी वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और उस आत्मा के ममभाव प्रत्येक जीन के साथ हो जाते हैं तन उस समय आत्मा सानुभव कर सत्ता है | अतएव tara आत्मा के सानुभव करने के लिये प्रथम पान नातों को अवश्यमेव ध्यान रसना चाहिये। जैसे कि 1 1 निवेक १ विचार २ शाति ३ निर्ममत्न भाव ४ आत्म विकास करने का शुद्ध स्थान ५ इन पाच वातों का विचार सवाल करते रहना चाहिये । जैसे ि 1 ? १ विवेक सत् और असत् वस्तु पर विचार करत रहना । कि हेय, ज्ञेय और साथही इस बात का विचार करना उपादेय पदार्थ कौन २ मे हैं ? क्योंकि - यावत्काल पर्यन्त Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ आत्मारूप का परित्याग नहीं करता और शेय रूप पदार्थों को रूप ही समझता तथा उपादेयरूप पाया को धारण नहीं पर Her aers उम आत्मा को शाति का मार्ग ही उपलब्द्ध नहीं हो सकता । कारण कि जबतक उस आत्मा पाप कर्मों या परि त्याग नहीं किया और जीन तथा अनीन या पुण्य क्मों के मार्गों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया, सयर या निर्जरा के मागा यो अगीकार नहीं किया तयतय उम आत्मा को दिन प्रकार स्वानुभव हो सका है ? तथा निम प्रकार वायु से दीपक पायमान होग रहता है या जल म वायु के कारण मे युत (बुलबुले ) उत्पन्न होते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार पुण्य और पाप के नल मे या उनकी उत्कृष्टता मे आत्मा भी अस्थिर चित्तवाला हो जाता है जिसके कारण से वह स्वानुभव उहीं कर मता या करने में उसे कई प्रकार के विघ्न उपस्थित होते रहते हैं । aur faar द्वारा प्रत्येक पदार्थ पर ठीक २ अनुमन करना चाहिये अथात् प्रत्येय त्रियाएँ विवेक पूर्वक ही होनी चाहिये क्याकि यह बात भी मार से मानी गई है कि जो कार्य विवेव पूर्वक किया जाता है पह सदैव पाल शुभ पवन तथा आत्मा के हित में लिये होता है । और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ २ विचार - जन प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक होने लगता म सदैव काल विचार ने आश्रित रहने लग जाता है तब है कारण कि इन दोनों का विचार परस्पर अविनाभावी सन्ध विवेक विचार के आश्रित और विचार विवेक है जैस क क आश्रित रहता है | wing जिस प्रकार विवेक पूर्वक एक शुद्ध वाक्य उच्चारण किये जाने पर तर विचार से निश्चित होता है जिस प्रकार के वाक्य हम प्रयोग करेगे उसी प्रकार का प्रत्याघात हमारे सन्मुस उपस्थित हो जायगा । इसी प्रकार जन हम किसी व्यक्ति को कटुक और स्नेह रहित वाक्य का प्रयोग करेंगे तत्र वह व्यक्ति उससे कई गुणा दो निष्ठुर और परम दारुण इतना ही नहीं किंतु मर्म IT वर्णेन्द्रिय को असहनीय वाक्यों का प्रहार करने लग जाता है मो इस कथन से यह बात भली प्रकार से सिद्ध हो जाती है कि जिस प्रकार का हम लोगों के साथ वचन का व्यवहार करते हैं उसके प्रतिरूप में हमें उसी प्रकार के वचनों के सुनने का अवसर प्राप्त हो जाता है। सो उक्त विचार से हम को भली प्रकार से निश्चित हा जाता है कि हमें वचन विवेक पूर्वक उच्चारण करना चाहिये क्योकि जो कार्य विचार वा विवेक पूर्वक किया जाता है यदि वह सर्वथा सफलता प्राप्त न पर ये तो वह हानि भी नहीं ा मा । HEAR Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार प्रत्येक पदार्थ म होना चायि । देखिये - यदि मानपानादि म रिचार किया जाय तो भय और अभक्ष्य पदार्थों का भली भाति ज्ञान हो जाता है। यदि भक्ष्य पदाथा पर भोजन करते समय विचार किया जाय तय परिमित भोजन करने से रोगों से रियत्ति और ये आरस्य का नाग होता है। ___यदि चरते समय निपार किया जाय तो जीव था तथा ठोररादि से शारीरिक रला भरी प्रकार से हो जाती है। यदि भाषण विचार पूषर दिया जाय तो आम शिकाम और ननना में यश शीप ही पाता है। यदि मापारादि पदाया पर विचार किया जाय तय इन्छा रोध और सारा पदार्य पनिन मरन करने में आते हैं निसस मनी प्रसन्नता और गगा की निवृत्ति होने की समापना की जा सती है। ___ यदि जो पदार्थ रगो वा ठाने वाले पिवर या विचारपूर्वक र या ग्ठाय तय ए तो जीय ग्था दूसरे पदामों का ठीक बने रहना पने में आता है। असे कि किसीर घृत का पट मिना यनमे रख दिया तब घट के फूटने की सभावना और घृत के भूमि पर गिर जाने की ममावना की जा सकी है। तथा किसीने पाच के यर्तन यादडी आदि भाजन यि ॥ विचार से गेर दिये (रमे ) तब थे पिर पृट नायो। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या किसीने साड से वाधे हुए को विना विचार मे वालु रानी में गेर दिया फिर अकस्मात उस साड के वस्त्र की माह खुलजाय तर सर्व साड बालु की राशि में मम्मिलित हो जायगी। इमी प्रकार प्रत्येक कार्य के विपय में समावना कर लेनी चाहिये। यदि मल भूनाति के गेरने का ममय उपस्थित हो जाय तब भी विचार की अत्यत आवश्यकता रहती है क्योंकि निना योग्य स्थान के लेखे उक्त पढायों का गेरना दुसरा और रोगप्रद तथा घृणास्पद हो जाता है । ___ अतएव उक्त पदार्थ भी बिना विचार से न करना चाहिये । तथा जिस स्थान पर पहिले मल मूत्रादि पदार्थ पड़े हुए हों उस स्थानपर मल मूत्रादिन करना चाहिये । कारण कि मलमूश करने से एक तो जीवहिंसा दूसरे रोगों की प्राप्ति होने को मभावना की जा सती है क्योंकि मल, मूग मे असत्यात समुन्ठिम जीव उप्तन्न होते रहते हैं मो जन उन जीवों पर मल मूत्र किया गया तो वे जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।। ___ तथा अति दुगंध होने से फिर कई प्रकार के रोगों के उभन्न होने की सभावना हो जाती है सो इस प्रकार की दियाए भी विना विचार में न होनी चाहिये । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ के इसी प्रकार प्रत्येक गैरनेवाले पदार्थों के विषय में विचार करना चाहिये तथा नाभि आत्मा स्वकायमुख मल ( सुमार ) को अपनी मिति निधारों आदि पर वा दुकान के आगे ही गेर देते है प्रत्येव आमी का हो जाय तो पदार्थों घृणा आती है और यदि जीव हिंसा भी हो जाती है इसलिये उपरोन विचार से न होनी चाहिये । प्रिया दिना + से उस कथन से स्वत हो नि हो जाता है कि प्रत्येक रिया के करते समय विचार की सत्य आवश्यता है । ने शाति -जय विचार पूर्वक क्रिया होन प जाती है तन मा की भी अत्यंत आवश्यता रहती है क्योंकि विना क्षमा के धारण किये fare और विचार ये होना ही निक हो जाते हैं 1 शातिपूर्वक हीfree और विचार ठीक रह स है क्योकि जय आत्म प्रदेश शानदान ही शुभ भावना उपश्न हो सक्ती है । यदि आत्म प्रदेश अज्ञात दशा में होते हैं To free और विचार भी अपना काम ठीक नहीं कर मक्ते । जय कि त्रोधी आत्मा अपने नाश करने में भी विलम्ब नहीं करना चाहता तो भला फिर यह विवेक और विचार से क्यो काम ले सा है ? Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ तथा ऐसा कौनसा अकार्य है जो कोधी नहीं कर बैठता ! सो आत्म विचार करने के लिये प्रथम शाति धारण करनी चाहिये 1 शास्त्रों में लिसा है कि " कोहो पीइप्पणासेइ" कोव प्रीति का नाश कर देता है । सो जिन २ पदार्थों पर प्रीति होती है, क्रोधी उन पदार्थों का नाश कर देता है 1 5 सो विचारशील व्यक्तियों को योग्य है कि वे शाति द्वारा क्रोध को शात करें। जब क्रोध शांत होगया तब फिर आत्मा निवेक ओर विचार से ठीक सत्ता है । प्रकार के काम ले जिस प्रकार क्रोध प्रत्येक पदार्थ के बिगाड़ने में सामर्थ्य रमता है ठीक प्रत्येक कार्य की सफलता करने में सामर्थ्य रखती है । नाश करने में या उसी प्रकार क्षमा कहा गया है कि शत्रुओं के जीतने में क्षमारूप एव महान् प्राकार [ गढ या कोट ] है जिसमें कोई शत्रु प्रविष्ठ ही नहीं हो सत्ता । अतएव आत्मानुप्रेक्षा के लिये प्रति अवश्य धारण करलेना चाहिये । ४ निर्ममत्वभाव - यावतकाल पर्यंत आत्मा निर्ममत्व भाव के आश्रित नहीं होता तावत्काल पर्यंत वह मोटलीग गर्न Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમ वन मे निमु भी नहीं हो सका। जय मोहनीय वर्म से विमुक्त न हुआ तब यह आत्मा कर्म या से भी छुट नहीं मता । फिर यह बात स्वाभाविक मानी है जियतक छुइ आत्मा क्मों से रहित art etat as a यह निर्माण की प्राप्ति भी नहीं कर मरेगा । अव निर्ममत्वभाव व व म्यन करना चाहिये । तथा इस बात का भी हृत्य में चिन्त्वन करता चाहिय कि जय स्वशरीर की भी मर्द प्रकार से अस्थिरता ख जाती है तो fre मत्यभाव दिस पार्थ पर किया जाय 7 आपके अतण्य श्री आचारण सूत्र में लिया है कि " पुरिसा तुममेव तुम मित्त किंवरियामित्तमिम पुम्प तूही अपनी आत्मा का मित्र है तो फिर क्या तू बाहिर में मित्र की इच्छा करता है ? इस पाठवा भार यह है कि श्री भगवान भव्य जीवों प्रति उपन करते हैं कि हे पुरुषा । तुमही अपने आत्मा के मित्र होतो फिर क्यों तुम अन्य मित्रों की आशा करते हो ? क्योंकि जब तुम्हारा जीवन सदाचार और सद्विधा से विभूषित हो जायगा नय मय जीव प्राय तुमको ही अपना उपास्य मानने लग जायेंगे और प्रेम पूर्वक तुझारी 1 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति से अपने जीवन को मपर बनाने की चेष्टा करेंगे। __ मो इससे सिद्ध हुआ कि वास्तव म तुह्मारा आत्मा ही नुहारा मिन है। तिम प्रकार आत्मा को मित्र माना गया है, ठीक उसी प्रार आत्मा यदि सनाचार व सदधिनता से विभूषित न क्यिा तो यही आत्मा अमिनरूप नकर दु यप्रत होजाता । सो इससे सत ही सिद्ध होगया कि वास्तव में मिन या अमित्र आत्मा ही है। इसलिये ममत्वभान को मईया छोडकर करल निर्भमत्लभार के आश्रित होकर आत्मान्वेषी नन जाना चाहिये। तथा इस बात का भी पुन चितवन करते रहना चाहिये मि अनतवार उम जात्मा ने स्वर्गीय मुग्मों का अनुभव क्यिा है किंतु फिर भी इसकी नागा शात न हुई तो भला इन वर्तमान कालीन सुद्र सुखों से क्या इस आत्मा की तप्गा मात हो जायगी? कापि नहीं। तथा अपन जीवन की दशापर प्रत्येक व्यक्ति को नप्टी डालनी चाहिये कि मेरे जीवन म सु ग्यप्रद या दुसमन क्तिने प्रकार की घटना हो चुकी हैं तो में किन • घटनाओं पर ममत्व भार कम् ? जय वे घटना स्थिर रूप से न रह सकी तो फिर मेरा उन घटनाओ पर ममत्वभाव करना मेरी मूर्खता का ही सूचक है। प्राय तीन पायो पर किया जाता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ जैसे कि धन, पशुवर्ग, पाशानि मो यदि विचार पूर्व दसा नाय वो वास्तव में तीनों की स्थगा नहीं है । अत ममय कर भी पर्थ तिद्ध हुआ । इस प्रकार की शुभ भावनाओं द्वारा जब आमा निमगल मान व आश्रित होनायगा तब इस आपाप उत्साद और पडित पुरुषार्थ उन पर पहुच जायेगा जिसके कारण मे फिर यह आमा आमापी भाव का शीघ्र ही प्राप्त हो जायगा । जब आत्मापी नगा तय उस आला के आम विकास का प्रभाव लगेगा। दा ५ आत्म विकास निम प्रकार पायों से दूर होतान पर सूर्य का free erreगता है तथा निम प्रकार सूर्य क उदय होनाने पर सूर्यविरामी कमल विकसित हा जाते ठीक उसी प्रकार माप अपगम होने पर आत्मा की अनित्य चियाँ विकसित होने लग जाती है । जब वन आत्म प्रदेशों मे यथा प्रथवा जाते है तब आत्मा के अगुण प्रस्ट हो जाते है जिसमे फिर उमी आत्मा यो यश या मवदर्गी कहा जाता है । यदि ऐसा कहा जाय कि सयथा यम बिम प्रकार आत्मा स पृथक हो मत है ? तो इसके उत्तर से कहा जा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्ता है कि जब आत्मा के आश्रय द्वारो का सवर के द्वारा निरोध किया जायगा तर नूतन कों का आगमन तो निरोध हो ही जायगा परतु जो प्राचीन शेष कर्म रहते हैं ये स्वाध्याय और ध्यान तप के द्वारा भय किये जा सक्ते हैं। सो जय मर्वथा आत्मा कमों से रहित हा जायगा तर इसको निर्वाण पद की प्राप्ति अवश्य होजायगी। क्योंकि यह बात भली प्रकार से मानी हुई है कि:"ध्याता, ध्येय, और ध्यान" ये तीन हाते हैं परतु जर आत्मा ध्येय में तल्लीन होजाता है तर यह तीनों से एक ही रह जाता है। निम प्रकार कल्पना करो कि किसी व्यक्ति के स्ससीय पुत्र को विद्या अध्ययन कराता है तब यह तीनो का एकत्र करना चाहता है । जमे कि- एक विद्यार्थी और दूगरा पुस्तक नीलरा अध्यापक । नब वह विद्यार्थी पढार अध्यापक की परीभामे उत्तीर्ण होजाता हे नर वह पूर्व तीनों पी का धारण परनवाला वय ही बन जाता है । ठीर सी प्रकार जन 'पाता ध्येय मे तीन होजाता है तब वह तदरूप ही होजाता है। जिस प्रकार एक दीपक के प्रकाश में महत्री दीपको या प्राश एक रूप होकर ठहरता है ठीक उमी प्रकार ध्याता, ध्येय में तल्लीन होजाता है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनण्य स्मृनि ररना चायि कि अपतप आत्मा त Pारा अपरम्पान नहीं पता तयना सा आमविकास भी नहीं हामका । नय आत्मयिाम न आ गय उम आत्मा का नियाण पर की प्रामि मि प्रकार मानी जा मार्ग है । सो हम क्या में यह सिद्ध हुआ कि आत्मविकास परोयलिय स्थायरम्या अपश्यमेव होना धारिये । कयाकि पिन • सुम्यों का आन- दृष्टा अभय पर मगा उन २ मुम्पा के आत भाग मात्र मी समारी आरमा मुग्मों का अनुमय नहीं कर साहे । क्यामि जो गूय का स्वाभाविक प्रकाश उमरे मामा सहमा दीपयों का प्रकारा भी नहीं हा सप्ता। क्योकि या प्रकार कृषिम है और मोपाधिक है। सूर्य का प्रयाा स्पाभाविक और निरुपाधिक है। ___अत गुभ भाषना और यात समाधि द्वारा आत्म विकास करना चाहिये जिमसे आत्मा का अभय मुख . अनुभव करने का मौभाग्य प्राप्त हो जाये। वास्तव म जिन आत्माओंने आत्मा को ही ध्येय धना लिया हे घे आत्मा अपनी श्यिाओं में मृतकृत्य फिर, निर्वाण पद की प्राप्ति कर गई है। इसी प्रकार अन्य आत्मा ओं को भी उनका अनुकरण करना चाहिये जिसमें में निर्याण पद की प्राप्ति करने में गमर्थ यन सर्प । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ग्यारहवाँ। पिता पुत्र का संवाद। पुत्रा--पिताजी । पुत्र के प्रति पिताजी का क्या कर्तव्य है १ पिता- मेरे परम प्रिय पुन पिता या पुर के प्रति यह कर्तव्य है कि वह पुग की यथोक्त रिधि म रक्षा करें। पुत्र - पूज्य पिताजी ' यथोक्त विधि में रक्षा किसे कहते " है ? मैं इसे समझ नहीं सत्ता। पिता-- मेरे प्यारे मुनु । जिस प्रकार शास्त्री ने पुत्र पारने के नियम प्रतिपादन क्यि है ठीक उन्हीं नियमा के द्वारा पिताओं का कर्तव्य है कि वे अपने पुत्रों की पालना या रक्षा करें। पुत्र'-पिताजी ! शाखा ने कौन से नियम पुन पालने वा रक्षा करने के प्रतिपादन किये हैं। क्योंकि मैं उन नियमो को सुनना चाहता है। पिता-पुत्र शास्त्री ने दो प्रकार के नियम प्रतिपादन किये हैं जैसे कि ----मुग्व्य और गौण किंतु गोक से कहना पड़ता है कि जो मुग्य गुण थे वे तो. रूप में आगार हैं और जो गौणता EN Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र - १३० म गुण थ वे मुख्यता रूप में प्रसिद्ध रोग हैं। इमरों का पाता योग विधि से मान घतमान कार में नहीं होता। प्रत्युत प्रतिपुल भा दुर्गाकीर रूप है। पुत्र पिताजी मुझे यह तो पere 1 मुख्य रक्षा करने के नियम कौन गौण गुण योन २ मे हैं ? is f से और पिता मेरे परम प्यारे सुत । पिताओं का प्रथम यह कर्तव्य है कि वे अपन प्रिय पुत्रो को महाभार ओर मविनाओं द्वारा पाना किंतु गौणतारूप में ज्ञान पार यन आभूषण भोग और उपभोगादि द्वारा भी उनकी पालना पर पर वर्तमान काल में प्राय देखा जाता है कि प्राय गोण रूप जो नियम उस ओर तो विषेष ध्यान दिया जाता है और जो सदाचार और मविधाओं द्वारा उनके जीवन को अत करना था उसकी ओर बहुत न्यून ध्यान दखने में आता है । - तानी । जय अछे = वस्त्रां और आभूषणों मे अपने पुत्र को आभूषित किया जायगा तय ये पड़े ही लोग जिसमे प्रत्येe safe उनसे प्रम भुदर करने की उar धारण करेगा साथ ही Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १३१ लोगों में उम पिता की प्रशमा भी बढ जायगी कि देखो भाई | अमुक पिता अपने पुत्रो को क्सि प्रकार प्रसन्न रसता है और धन प्राप्त करने की सफलता भी उसी को है जो अपने प्यारे पुत्री की माग शीघ्र पूरी कर देता है । अत यही नियम पालन करने के मुख्य हो सके है क्योंकि जन धनाढ्य कुल में उत्पन्न होने पर भी न तो उन वालको को उनकी इच्छानुकूल भोजन ही मिलता है ओर न मुदर वस्त्र तथा आभूषण पहिनने को उपलब्ध होते हैं तो भला फिर धनाढ्य कुल में उन्न होकर उन पालकोंने क्या लाभ प्राप्त किया ? 1 पिता-पुत्र तू अभी अनभिज्ञ है । तुझे सबर नहीं कि उक्त कारणों से क्या दोष उत्पन्न होते हैं । पुत्र - पिताजी । उक्त नियमा के सेवन करने से क्या २ दोष उत्पन्न होते हैं, मुझे आपही कृपा करके सुनाइये ? पिता - हे पुन | जब बालको को सदैवकाल मुदर त्रा आभूषणो से विभूषित किया जायगा तब उनमें निम्न लिखित दोष उत्पन होने की सभावना की जा । जैसे कि यदि बालक अत्यन Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ को प्राप्त होरहात तो कोई दुष्ट आत्मा धन और यत्रा का भी आभूषण या म वाटा पे यत्र उतारकर नायगा । तथा कोई आर्य भाष या प्राप्त हावर उस वाकवा प्राणों से ही विमु कर देगा अथान मार देगा | तथा कोई दु मनुष्य उस वारय यो हरी पर पाया। इत्यादि आभूषण व वस्त्रा द्वारा अनेक मा मामला उस बालक को करना पड़ेगा । माथही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब उम काम शरीरवार वार को विभूषित किया जाता है तय उम वाटप पर धाम राग के आमेयी जा उस पार का यदावार में प्रयुक्त करावेंग जिससे उस वालय का सदाचार बुद्ध समय के पश्चात् ही न भ्रष्ट होनायगा । अवश्य बुछ महत्लयाक समया का छोडकर देव का? पालकों को विभूषित करते रहना में पवित्र जर पोचार म प्रवृत्त कराने का तु यन जाता है । अतण्व पिताओ को यो अपने प्रिय पुत्रा या दिया और मदाचार मे विभूषित करने की करते रहें । तथा यदि मुख मागा घा घायों को दिया जायगा तन के बालक बहुत शीघ्र कदाचार में प्रवृत्त होणायेंगे जैसे $ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३३ कि जन उनसे उनकी इच्छानुसार धन का लाभ मिलता रहता है तन उस धन के भोगने के लिये उसके मिगण भी ura होना है जिसने फिर मित्र मंडली उमी को दुष्टाचार म लगा देती है । इसलिये परिमाण से अधिक बालको को खरच देना लाभ के स्थान पर एक प्रकार की हानि का कारण बन जाता है । दिवायें | } हा, यह प्रात भी अवश्य विचारणीय है कि यदि सर्वथा हा उन बालको को कुछ भी न दिया जाय तन भी वे वाक Fदाचार में प्रविष्ट होजायेंगे क्योंकि जब उनको उनकी आवश्यवीय आवश्यकतानुसार तो सरच घर मे उपलब्ध होता ही नहीं वे अपने मित्रों से मरच लेने की चेष्टा करेंगे जिससे फिर वे प्रसगानुसार वा अपनी आवश्यक्ता पूरी करने के लिने अवश्य कुमार्ग में प्रविष्ट होजायेंगे तथा कुभंग म फस हुए फिर से सर्वथा माता पिता की आज्ञा में ही वाहिर ३" f 1 1 . इसलिये पिताओं को योग्य है कि वे अपने प्रिय पुत्रों की यथोक्त रीति से पालना करें जिसमे उनकी आवश्यकीय आता तो पूरी होती रहें और सत्यचार वा विद्याकी . वृद्धी भी होती रहे. t Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन:-पिता मदागार किम पहन पिता-पुत्र विममे अपना जीपन मा मुख पुर्यास्यतीत किया ना मफे और धर्म की पृद्धि ती हे या धार्मिय जीरा मे सिर सग या ािंग पर की प्राति भी जाना। पत्र --पिनानी व नियम कामे मे दोना रोगा की गुद्धि होजाती है? पिता-पुत्र । यदि डा निययों को मुनना चाहता है नो नू ध्यान देकर मुन । निममे दोना रोगों की भी प्रकार गुद्धि हो माही। पत्र -पितानी में ध्याा देवा आपके पवित्र उपदेश को मुनना हू, आप सुनाये । पिता-पुत्र | प्रथम तो बालों को अपने पवित्र जीपा बनाने के रिये पाया की गुद्धि करनी चाहिये । र बिना यन मे यहों के सामने न बैठना चाहिये और जिस प्रकार अपने पृद्धा पी ५ माता पिता का अपिाय न होय उसी प्रकार उनके मामने धेठना चाहिये । प्रात काल अपनी शम्या में उठने ही माता पिना व वृद्धों को नमस्कार परते हुए उनके घरण कमर पा स्पर्श करना चाहिये। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ उनके मुख क्योंकि इस प्रकार की क्रियाए करते हुए जो आशिर्वाद के उदार निकलते हैं वे उन बाल्का को अत्यत सुखप्रद होते हैं। I मे तदनु सन प्रकार की कायिक चेप्टाए जो की जाय व सन विनय पूवर्क वा यत्र पूर्वक होनी चाहिये । जन काया शुद्धि air state a fफर वालको को वागशुद्धि भी करना चाहिये। जैसे कि कभी भी मुस से गाली न निकालनी चाहिये क्योंकि गाली के निकालने से एकतो अपना मुस अपवित्र होता है दूसरे जो उस गाली को सुनते हैं वे इस प्रकार के अपने अन्तकरण से भाव उत्पन्न करते हैं जो उस tree लिये सुप्रद नहीं होते । इसलिये जय बोलने का समय उपस्थित हो जाय तन मधुर भाषी ननना चाहिये । f तथा यह बात भली प्रकार से मानी हुई है कि स्नेह और प्राप्ति पूर्वक भाषण किया हुआ शब्द प्रत्येक व्यक्ति को या करने में मांगता रसता है । ई * तथा मधुर भाषी बालक में प्रत्येक व्यक्ति प्रेम दृष्टि धारण कर लेता है, इतना ही नहीकिंतु उस बालक की रक्षा करने में टिन होजाता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनय विनय पूपर मधुर भारी प्रवर थr না যি নখ, স্নান যুগ য া ম ম বা मोरना नाये। इम दरग जाना कि पहन मे urat मा सभाप हानाहक य याम मो आप सिंगार पटादार बार उनी पूण साता म य अपनी निना गिर पी लिप पिमी और का नाम ग्रेटर मायाम अन्गन अनुचित है । *मम उम पार पर म अगर पा विधाम उटजामरियामा मेही गट या किमी का फरोका अभ्याम न पाय । माय होम यावा भी विषय मातिय शिमग किन म भिम . प्रकार का मम्पय। पिर उग समय को भी प्रसार विजय से पागा पाहिये। हाता गरे अल्प या मधुर भापी बात का स्वमाय डालना चाहिए। विम प्रकार यागादिया पणा किया गया है. उम प्रकार गन-गुद्धि या मी या ना लेना चाहिये । जम मि मात्ति मेपमी की नफरती पाहिये यदि क्मिा ममय पाई पन्तु मागने पर भी उपरग्ध ना हो तो उस मम पाप याभय होकर प्रकार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अपश- मुस से निकालने या किसी प्रकार से भी क्रोध का परित्याग न करना इत्यादि क्रियाएँ बालकों को कदापि नहीं करनी चाहिये। क्योंकि इस प्रकार का स्वभाव यदि पड जायगा तब यह आयुभर में भी नहीं जा सकेगा। साथ ही बालको को योग्य है कि चे माता पिता आदि के सामने कापि मिश्याग्रह से वस्तु की प्राप्ति करने की चेष्टाएँ न कर और साथ ही इस बात का भी ध्यान रखें कि जब प्रये पदार्प माने योग्य अपने घर से उपलब्ध हो सकता है - नो फिर क्यों नानादि से लाकर खाने कासभाव डाले। क्योंकि प्राय देना जाता है कि पाजागदि के पके हुए पदार्थ घृतानि - की गुद्धि न होने के कारण मे रोगादि की उत्पत्ति का कारण बन जाते हैं जिसमे एक यार का बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य बहुत चिरकाल के पश्चात् ठीक होने का कारण बन जाता है । ___ तर बाजारादि का खाने का स्वभाव हट जायगा तब व्यर्थ व्यय और व्यभिचारादि बहुत से कुकृत्यों से भी बचने का सौभाग्य प्राप्त होजायगा । - पुत्र-पिताजी | यह तो आपने मदाचार के इहलौकिक के नियम बनलाये हैं जिनके पालने से प्राय शारीरिक दशा ठीक रह सती है।, अन आप उन नियमां-की Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ शिक्षा कीजिये कि जिनके पालन से दोनों लोक सुख की प्राप्ति होजाती है । 7 पिता - मेरे परम प्रिय पुत्र 1 अब मैं तुमसे उन्ही नियमा < का वर्णन करता है कि जिनके पालने से दोनों लोक में 1 शांति मिलती है । "" 3 प्रत्येक बालक को सात व्यसनों का परित्याग करना । चाहिये क्योंकि व्यसन नामही कष्ट का है सो सात कारण क्ट के उन होने के बताये गए हैं जैसे कि - - १ जुवा – किसी प्रकार का भी जुआँ न खेलना चाहिये । क्योकि इसका फल दोनों लोक में तु खप्रद कथन किया गया, है। तथा इसी लोक में जुआरी कौन से कष्टों का सामना नहीं करता ? अर्थात् सभी कष्ट जुआरी को भोगने पड़ते हैं ! मो अनुमान से अनुमेय का ज्ञान हो जाता है । अत निसका फल जहा पर तु समद ही दिन रहा है तो फिर वह परलोक में सुrve किस प्रकार माना जा सकता है । - तथा जुआरी कौन से अकार्य करने की चेष्टा नहीं करता अनण्य जुआँ कापि न मेलना चाहिये । , साथ ही इस यान का ध्यान भी रक्सा जाय कि ● श्रीटाओं के मेलने से केवल समय ही त्यर्थ जाता सेल न खेलने चाहिये। जैसे कि चोपड, तास, सार हो . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I Found १३९ पासादि । क्याकि इनके सेलने से समय तो व्यतीत अत्यत - हानाता है परंतु लाभ कुछ नहीं होता । I मास - निन पदार्थों के साने, से निर्दयता बढ़ती हो और अनाथ प्राणि अपने प्रिय प्राणों से हाथ धो बैठते हो इस प्रकार के पदार्थ भक्षण न करने चाहिये । " क्योंकि यह बात भली प्रकारसे मानी हुई है कि मासा'हारी को दया कहा है ? ' तथा मासाहार रोगों की वृद्धि भी 3 दे करता है और न यह (मासाहार) मनुष्य का आहार ही है । 1 है "क्या जो पशु मामाहारी हैं और जो पशु घासाहारी f हैं तथा पशु मनुष्य के शरीरावी आकृतियों में विभिन्नता प्रत्यथ दिलाई पडती है । सो मास का आहार कदापि न करना 1 1 ! 7 चाहिये । ¿ ३ शिकार निरपराधी जीनो को मारते फिरते रहना क्या योग्यता का लक्षण है ? कदापि नहीं । इसलिये शिकार न सेलना' चाहिये । ' इतना ही नहीं हासी या कौतुहल के बीभूत होकर भी किसी जीव के प्राण न छीनने चाहिये । 1 3 पुत्र - रिवाजी | जो अपने वस्त्रो या केशों में जू आदि जीव 1 " पड जाते हैं तो क्या उनको भी न मारा चाहिये 2 of be ― पिता पुत्र H । उनको भी न मारना चाहिये । ५ + 71 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० पुत्र-पिताजी घे जीव तो हम दुख देते हैं फिर उन्हें क्यों न मारना चाहिये। पिता-पुग। वे जीव अपनी असावधानी के कारण स ही प्राय उसन्न होते हैं तो भला यह विधर का न्याय है कि प्रमाद तो आप करें और दड, उन जीवों को ! इससे स्वत सिद्ध है कि यदि सय काम सावधानता पूर्वक किये जॉय तो जीवोप्तत्ति बहुत ही पल्प होती है। इसलिये जू आदि जीयों का कदापि न मारना चाहिये । परतु यत्न पूर्वक जिस प्रकार उनके प्राणों की रक्षा हो सके उमी प्रकार अन्य वखादि में उन्हें रख देना चाहिये । पुत्र --पिताजी । जू आदि के कहने से मैं यह नहीं, समझा कि आदि के रहने से आपका कौन • से जीवों मे सभ्यन्ध है? पिता-पुत्र आदि के कहने में यावन्माग सजीव है। उन ममों का गृहण किया जाता है। मो निरपराधी किमी भी जीव के जानकर प्राण न छीनने चाहिये। क्याकि जप दयायुक्त भाव यने रहेंगे तव प्राणी मयिश और सदाचार से विभूपित होता हुआ अपने और परके पल्याण करने में ममर्थ हो जायगा।' Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર यद्यपि शिकार ( आसेट ) शब्द बनचारी जीवों के ही लोक रुदि म व्यवहृत होता है किंतु किसी भी जीव क प्राणों का उच्छेन्न करना इसी कर्म में गिना जाता है । x S 1 है 1 अतएव सिद्ध हुआ कि शिकार न सेलना चाहिये | ४ मद्य मदिरा पान करना भी अयोग्य कथन किया गया है क्या यावन्मात्र मादक द्रव्य हैं वे सब मबुद्धि के विध्वस के हतु ही माने जाते हैं । अतएव मुयोग्य व्यक्तियों को योग्य है कि वे मानक द्रव्यों का कदापि सेवन न करें । - F c मंदिरा पान के दोष लोक में सुप्रसिद्ध ही हैं । भाग चरस, नमाखू, सिगरेट सिगार आदि यावन्मान तमोगुणी पदार्थ हैं न सेवन करना दोनों लोक मे दु खप्रद माना गया है । क्योंकि इस लोक में इन के सेवन से धन का नाश तथा उपचार की प्रवृत्ति देखी जाती है और परलोक में निकृष्ट कमों का फल दु खप्रद होता ही है । } अतएव यावन्मान तमोगुणी और मादक द्रव्य हैं उनका विनापि न करना चाहिये । ' $ ५ वेश्या - जिस प्रकार जगत में मादक द्रव्य हानि करते दिखाई देते है ठीक उसी प्रकार वेश्या सग भी इसे डोक से में दु समद माना गया है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ तथा यह यात भी भली प्रकार मे,मानी गई है कि जो व्यक्ति पैश्या संग करते हैं उनकी पवित्रता और सदाचारला सर्वथा नष्ट हो जाती है। साथही ये नाना प्रकार के रोग भी उस स्थान से ले आते हैं। बहुत से व्यक्तियों का जीयन भी कष्ट-मयी हो जाता है और फिर ये अपने पवित्र जीवन में भी हाथ धो बैठते हैं। ___ अप विचार इसी बानका करना है कि जब उनका! पवित्र पीया यैश्या सग से इसी लोक में कष्टमय होता है, नो भला पररोष म ये सुसमय जीवन के भोगने घाले कर, माने जा सक्ते हैं। अतण्य वैश्या सग पदापि न करना चाहिये। परस्त्री मग-जिम प्रसार वैश्या मग दोनों लोक म दु सम माना गया है ठीक उसी प्रकार परस्त्री संग भी दोनों लोक में कष्ट देनेवारा माना गया है। इसके सगा परिणाम सर्वा सुप्रसिद्ध है तथा परनारा सेवी को जिन २ प्य का मामना करना पड़नाट जनता में भूले हुए नहीं है क्यानि राज्यकीय धाराए इन्ही पापों के सेवन करने बालों के लिये बनाई गई है। साथही शाम्रा में परदारा मेवा की गनि नरकारि प्रतिपादन की गई है । अतएव विधा शील व्याकया को योग्य है कि कापि उक्त व्यमन का मग न करें। उत्त' व्यमन का । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ ७ चौर्य कर्म - बिना आता 'किमी' की वस्तु को उठा लेना उसे ही चोरी कर्म कहते हैं । मो इसका परिणाम सर लोग जानते ही है । अतन विर्ना आज्ञा किसी भी + # पदार्थ के उठाने की इच्छा न करनी चाहिये । 11 साथ में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब अपने साथ म वस्तु का मयोग है तो भले महस्रों ही निघ्न उपस्थित क्यों न होजाय तदपि उस पदार्थ का सयोग अवश्यमेव मिल जायगा । किंतु जब अपने भाग्य में पदार्थों का मयोग नहीं है तो फिर चौर्य कर्म से क्या फल मिलेगा ? अर्थात कष्ट | अतएव स्वकीय पुण्य और पाप के फलों का विचार कर उक्त व्यसन मे निवृत्ति कर लेनी चाहिये | अतएव हे पुत्र । उक्त कथन किये हुए सात ही व्यसनां स प्रत्येक प्राणी को पृथक रहना चाहिने जिसमे होनों लोक में सुख की प्राप्ति हो सके । } 7 पुत्र - पिताजी, वाणी कैसी बोल्नी चाहिये ? · पिता - हे पुरा । वाणी सदा मीठी और सत्य बोलनी चाहिये । पुत्र पिताजी । सत्य वचन बोलने म किस गुण की प्राप्ति 1 + 17 होती है ? ★ { पिता-पुत्र भ | सत्य घोटने से एक तो आत्मा का हृदय ता है दूसरे छल आ क्रियाओं में Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आत्मा पच जाता है तृतीय सत्यवादी आत्मा की. देवता भी सेवा करते हैं और लोक में उनकी प्रतीत (विश्वास) होजाती है । अतएष मदा सत्य सूचना घोलना चाहिये। पुत्र-पितानी । भाइयों के साथ परस्पर बर्ताव कैमा रखना चाहिये । पिता-मेरे प्रिय मुनु ! अपने भाइयों के माथ परस्सर प्रेम पूर्वर यताव रखना चाहिये । परस्सर ईर्षा व असूया कदापि न करना चाहिये । जब कोई सम' कष्ट का उपस्थित होजाय तय परस्पर सहानुभूति द्वारा उम समय पो व्यतीत करना चाहिये । क्यावि यह बात भी प्रकार से मानी हुई है कि जय का का ममय उपस्थित होता है तब परस्पर केश में उप्तन हो जाया करता है किंतु जर प्रेम परस्प रहता है तर यह कष्ट भी कष्ट दायक प्रतीत नई होता। मो इममे सिद्ध हुआ कि भाइयों के सा परस्पर प्रेम से धर्तना चाहिये। पुत्र-पितानी मित्रा के साथ फिम प्रकार वर्तना चाहिये पिना--पुत्र । मित्रता प्राय साधर्मी या मदाचारियो' माय ही होनी चालिये और उसके माथ प्रेमा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -,१४५ • वर्तना चाहिये तथा जिस प्रकार मित्रंता परस्पर रह । सके नसी प्रकार वर्तना चाहिये। ये बात भी ध्यान में रखनी चाहिये लोभीऔर कामी मित्रता कभी Trभी नहीं वह मत्ती Pre I mir पुत्रः पितानी क्या मित्र पर विश्वास रपना चाहिये . . या नहीं। पिता-पुत्र विना-विश्वामा किये यह मित्रता-ही क्या है । i, yा, विश्वामा साममय तक न होना चाहिये जवतक मित्र की परीक्षा नहीं कीगई तथा उमका परिचय ... भली प्रकार से नहीं किया गया। परच जब वह ४. परीभा में ममुत्तीर्ण हो चुका है फिर वह विश्वासपा - अवश्य मेव वनगया है.ic arr . तमा इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि मित्रता स्वार्थत्याग कर ही रह सची है और निस्वार्थ सिलना आयु पप्यंत रह मक्ती है। अपने किये हुए प्रण का पालन करना ही सुपुरुषों का लक्षण है । " " * - - - पुत्र-पिताजी । धर्मपत्नी - के माथ क्रिम प्रभार पर्तना -~,याहित्रे - E F THE पिता-पुत्र धर्मपत्नी के साथ मांग और प्रेम पूर्वक जिम प्रकार स्वगृह म केश उपन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • न हो जाये उसी प्रकार यर्तना पाहिये । विवादद। के समय जो घर और कन्याओ की परस्पर प्रतिज्ञाए की जाती हैं उन प्रतिज्ञाओं की सावधानता, पूर्वक पालन करना चाहिये। साथ मैं इस बात का, भी विशेष ध्यान रक्सा जाय कि जप में स्वधर्मपत्री, को कदाचार से बचने की विपेश चेष्टाए करता, रहता है तो फिर मुझे भी उस कदाचार से पृथक रहना चाहिये क्यिोंकि जब मेरा' सदाचार टीई होगा सप उसका प्रभाव मेरी धर्मपत्री पर अवश्यमेव पडेगा। । । । अतएव निष्कर्ष यह निकला कि स्वधर्मपत्नी के साथ मयादा या प्रमाण पूर्वक ही वर्तना चाहिये । तथा जिस प्रकार परस्पर देश वा स्वच्छता न घढने पाय उसी प्रकार पवना पाहिये। पुत्र-पिताजी ! मतती के साथ किस प्रकार बना चाहिये। पिता -मेरे परम प्रिय पत्र। अपनी सतति के माध प्रम वर्तना चाहिये। परतु इस बात का ध्यान अवश्य मेय रक्या जाय कि जिस प्रकार अपनी भतरि फदाचार में प्रविष्ठ न होजाय उसी प्रकार मुझ पुरुष पो उनके साथ पर्तना योग्य है। परतु अपने पिर पुर या कन्याआ को कभी भूलकर भी गाली, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ आमनित न करना चाहिये। क्योंकि जब उनको गाली से सम्बोधित किया जायगा तब उनका भी उसी प्रकार का स्वभाव पड जायगा जिसका । परिणाम अतिम दुम्य प्रद प्रतीत होगा। अर्थात फिर उस पुन वा पुत्री के स्वभाव से परम दुसित मनना पडेगा । पुत्र -पिताजी । जो अपने सम्बन्धी जन हैं उनके साथ ..किस प्रकार का व्यवहार रखना चाहिये । पिता-पुत्र । उनके साथ सद्व्यवहार रखना चाहिये । यदि उन . सम्बन्धीजनों पर कोई विपत्तिकाल उप17स्थित होजाय तो यथाशक्ति और यथा समय उनकी महायता करनी चाहिये। किंतु यह बात ध्यान म अवश्य रक्खी जाय कि सहायता अपनी शक्ती - अनुसार करते हुए फिर उनमें वैमनस्य भार उत्पन्न ___ - न किया जाय। पुत्र -पिताजी ! अपने [गण ] बिरादरी के साथ किम प्रकार यर्तना चाहिये-- । - पिता-पुत्र | गण के साथ परस्पर सहानुभूति के साथ बर्तना पा .. गणवासी किसी भाई पर होगया हो तो उस समय Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tec सहानुभूति द्वारा उसकी रक्षा करनी चाहिये क्योंकि इस प्रकार करने से गण के बल की वृद्धी होती है और सहानुभूति द्वारा प्रेम' मात्रा भी बढे जाती है जिसके कारण से फिर सर्व प्रकार की वृद्धि होती रहती है } पुत्र - पितानी । बडा कौन हो मक्ता है ? or you { पिता - हे पुन । जो सर्व प्राणी मान के साथ प्रेम करता है वह सब से बड़ा होता है अर्थात वह सब वा पूजनीय होजाता है। तथा व्याकरण शास्त्र में लिखा है कि स्वर्णीय वर्ण ही दीर्घ होता है नतु अन्य वर्णीय । जैसे कि यदि अ अ दो स्वर एक स्थान पर एफन होजाय तब दोनों को मिलकर एक दीर्घाकार होताता है ! इसी कार इकार और नकारादि वर्णों के विषय में भी जानना चाहिये । सो हे पुत्र । इस कथन से यह शिक्षा उपय 1 होती है कि स्वजाति प्रेम से ही वृद्धि पासक्ती है। ६. १ पिता - पुन - पिताजी । अपने सहपाठियों के साथ किम प्रकार से न रखना चाहिये । 4 T I पुत्र || अपने सहपाठियों के साथ सदाचा प्रेम पूर्वक पर्तना चाहिये । ^ त Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૧ विशुरता, द्रोह,भाष, व असूयादि अवगुण क्वापि 1 वर्तान में न लाना चाहिये । किन्तु जिस प्रकार 1 farara aढता जाय उसी प्रकार उनके साथ वर्तना योग्य है ।। - }}, * / 7 T I पुत्र - पिताजी अपने अध्यापकों और महोपाध्यायों के माथ किस प्रकार बर्तना चाहिये ? 1 ¿ I w 2 PM पिता-पुत्र | अपने अध्यापकों और महोपाध्यायों के साथ विनयपूर्वक वर्तना चाहिये और पठनादि क्रियाओं, 14++ *** के विषय में उनकी आज्ञा पालन करनी चाहिये 1 } इतना ही नहीं किन्तु उनको विद्या गुरु वा शिल्पा 5 ★ } चार्य समझते हुए उनकी मन, वचन और काय t ♪ F } तथा धनादि द्वारा उनकी सेना ( पर्युपासना ) F करनी चाहिये । और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिये | 15 { पुरा:- पिताजी " यावन्मान अपने सम्बन्धी हैं ' या भगिनी और भ्राता है उनके साथ किस प्रकार वर्तना चाहिये । せっ # है या है हुआ है उपलब् पिता - प्यारे पुन । यावन्मान स्वकीय सगे सम्बन्धी हैं उनके साथ प्रेमपूर्वक और योग से बर्तना चाहिये । परस्पर + Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलता देखी जाती है तथा उनपे फप्टों के समय सहानुभूति भरी प्रकार से दिसराते हुए अहिंसा धर्म की प्रभावना भी पी जामकि है । अतएव सिद्धात यह निकला कि उचित व्यवहार रखते हुए सर्व कार्यों की सफलता भली प्रकार से की जा सती है। पुश-पितानी ! जनता के साथ किस प्रकार से पर्तना पाहिये पिता'---पुन देश या पालके ज्ञान को भली प्रकार रसते हुए जनता के माय प्रेम या मोा पूर्वक यतना चाहिये परन्तु मिश्या छठ या फदामह कदापि न करना चाहिये क्योकि जो रोग देश के पाल के ज्ञान को भली प्रकार से नहीं जानते वा कदाग्रही हैं वे कदापि जाति या धीमति नहीं कर सरो। अतण्य सिद्ध हुआ कि मिथ्या हठ को छोडकर केवल देश कालज्ञ बनना चाहिये । पुत्र-पिताजी । सविधा किसे कहते हैं ! पिता--जिम विद्या के पढने मे पदायों का ठीक २ पोध होजाय । पुत्र-पिताजी पदार्थों के ठीक २ योध हो जाने से फिर किस गुण की उपलब्धि होती है ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता:-पुत्र | पदार्थों के ठीक २ बोध होजाने से फिर तीन गुग की प्राप्ति हो जाती है। ! पुत्रः- पिताजी व तीन गुण कौन २ से है ? क्योंकि मै उनको सुनना चाहता हूँ ! 孟 T 1 पिता - ६ मेरे परम प्रिय सुनु । यदि तू सुनना चाहातो हे यो तू मुन । जानने योग्य पदार्थ त्यागने योग्य पदार्थ और धारण करने योग्य पार्थ बोध होजाता है । < ा 1 f पुन, पिताजी | मैं इन तीना का स्वरूप विस्तार पूर्वक -- सुनना चाहाता हूँ। L इन पदार्थों का t ₹ } -पुत्र तुम दो फिर कभी raata मिलने पर इनका विस्तार पूर्वक स्वरूप सुनाउमा परंतु अब मम पूर्व ही इनका स्वरूप सुनाना चाहता हु माँ तू या देर सुन। जीव जर अभीव तथा इन तीन पार्थी के स्वरूप को मामाति नानना चाहिये। क्योंकि जब इनस suren जाय अत्मा सम्यक्त्व से युक्त जाता है। अत ये तीनों पार्थ ज्ञेय-जानने दाग्य कथन किय गये है। परतु पाप आश्रय और त्यापन योग्य है। ( L ן Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सफलता देखी जाती है तथा उपपे कष्टों के समय सहानुभूति भली प्रकार से दिलाते हुए अहिंसा धर्म की प्रभावना भी की जासति है । अतण्व मिद्धात यह निकला कि उचित व्यवहार रखते हुए सर्व कार्यों की सफलता भली प्रकार से पी जा सकी है । 1 पुत्र पिताजी । जाता के साथ किस प्रकार से वर्तना चाहिये ? पिता-पुत्र । देश या पाट शान को भी प्रकार रसते हुए जनता के माथ प्रेम था योग पूर्वक वर्तना चाहिये परन्तु मिथ्या हठ था कदामह कदापि करना चाहिये क्योंकि जो लोग देश के पाल ज्ञान को भली प्रकार से नहीं जानते या पदामी हैं वे कदापि जाति या धर्ति नहीं कर सके अतएव सिद्ध हुआ कि मिथ्या छठ को छोडकर पेवल देश कree बनना चाहिये । - पुत्रः-- पिताजी । सविद्या किसे कहते है ! पिता – जिस विद्या के पढने से पदार्थों का ठीक २ बोध होजाय ! पुत्र - पिताजी । पदार्थों के ठीक २ बोध हो जाने से फिर किस गुण की उपलब्धि होती है ? Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता-पुत्र पहाग के ठीक बोध होजाने से फिर तीन - गुरु की प्राप्ति हो जाती है। " पुत्र-पिताजी । वे तीन गुण कौन २.से हैं. १ क्योंकि मैं - उनको सुनना चाहता हू }, , , . पिना- मेरे परम प्रिय सुनु । यदि तू सुनना चाहाना है ठो न सुन । जानने योग्य पदार्थ, त्यागने योग्य , पदार्थ और धारण करने योग्य, इन पदायों का . गधार्थ योष होजाता है। । - पुष - पिताजी ! मैं इन तीनों का स्वरूप विस्तार पूर्वक सुनना चाहावा हूँ। पिता-पुत्र ! मैं तुम को फिर कभी अवकाश मिलने पर इसका विस्तार पूर्वक स्वरूप सुनाउगा परतु अब वो मे सक्षेप पूर्वक ही इनका स्वरूप सुनाना चाहता हूं सो त् ध्यान देकर सुन । जीव और अनीव तथा पुरूप कर्म को इन तीन पायों के स्वरूप को भली भाति जानना चाहिये । क्योंकि अब इना यायं मान होजायगा तब अल्मा सम्यक्त्व से युक्त होता है। अतएव् य तीनों पदार्थ ज्ञेय-जानने योग्य कथन किये गये हैं। परतु पाप आश्व और श्य ये तीनों पदार्थ त्यागने योग्य हैं। कारण कि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप कर्म और आप पिमधे द्वारा पाप कमों का आगमन हो तथा पप जिमस आम कर्मा * मे भीर नारयत कप दोनाप ये सीनी पा' त्यागने योग्य जिम का आगमन ' पद होगाय अयात् सम्यर और निरा निममे कम भय किये जाम और मोर नीनो पार्ष धारण करन योोय हैं। 'इमलिय माविद्याओं द्वारा उक्त पदार्थों का अब करना चाहिये जिसमें आरमा अपना पम्या भी कर सके। सुने -पितायी । पाहा पाया शो भगृहस्थाश ___ या पाला भी गा"" "" पिता-पुत्र मुनि से कार्य किया हुआ गधाश्रम का मुन्ध पूर्वक नियोह र मगा। " पुत्र-पिताजी। ये भी मुहो ममता, बीजिय मि युमि - पूर्वक रिम प्रकार गृत्स्यायम पा पारन पिया , -जागता है। पिता-पुत्र मिन जिन पामा में अधिक हिमादि प्रियाग गगनी उना और अनादर या परित्याग पर ' गृहस्थाश्रम सुप पूर्वक निर्वाह किया जामता है। मे विदशी बाहार, स्वदेशी औषध और Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ स्वदेशी वैपादि द्वारा मुरुं पूर्वक निर्वाह करते हुए 李 गृहस्थाश्रम के मुख पूर्वक जास हैं नियम पालन किये T w K पुत्र - पितानी । डक तीनों के अर्थ मुझे समझा दीजिये 1 1 1 पिता – पुन | ध्यान देकर मुन ।' हे मेरे परमं प्रिंय पुन 1 1 - जिस देश के जल, वायु और पदार्थों के प्रयोग से शरीर की उत्पत्ति होती है फिर प्राय उसी देश के स्वच्छ परायों ये सेवन (आहार) से शरीर की 4 - १ 'सौंदर्य' तथा ' ले की वृद्धि सुखकर होती इसलिये स्वदेशी' पदाथों के आहार से अपने शरीर 'की रक्षा करनी चाहिये । साथ ही ' जिन पदार्थों के • आसेवन से क्षण मान तो मुल प्रतीत होने लगे A + परन्तु उनका अंतिम परिणाम हितकर न होवे तो वे पदार्थ स्वदेश में उत्पन्न होने पर भी सेवन के योग्य "नहीं है । जैसे कि उष्ण काल मे बहुत से लोग • पानी के बर्फ का सेवन करते हैं सो इसका सेवन दोनों प्रकार से अयोग्य प्रतीत होता है जैसे - जन धर्मशात्रों के नियमों की ओर विचार किया जाय तब भी इसका सेवन करना योग्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि धर्मशास्त्र जल को ही जीव मानता है। जन जल का पिंड सेवन किया गया तन तो क 1 विशेष हिंसा वा कारण बनगया इसलिये इसका सेवन करना योग्य नहीं है । ' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ तथा दूसरे जिन औषधियों के प्रयोग से जल जमाया जाता है वे औषधिया रोगों के निवारण करने में सहायक पे मिवाय नहीं होतीं अतः इसके सेवन से क्षणमात्र के सुम किसी प्रकार से भी शांति की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिये सुझ पुरुषों को योग्य है कि वे इसका सेवन कापि न कर 1 1 इसी प्रकार सोडावाटर की शीशियों के विषय में भी जानना चाहिये। इनका सेवन भी मुख्य प्रद नहीं देखा जाता क्योंकि रुक्ष पदार्थों के सेवन से मन की शुद्ध वृत्तिया नहीं रह सक्ती । जब मनकी वृत्तियां ठीक नहीं रहीं तो बतलाइये फिर कौनसा दुस है जो फिर अनुभव नहीं करना पडता ? इसी प्रकार विदेशी साड, विदेशी घृत इत्यादि अनेक प्रकार के पदार्थ हैं जो भक्षण करने के लिये स्वदेश में उपस्थित हैं उन सब से बचकर स्वदेशोत्पन्न सतोगुणयुक्त आर्य आहार द्वारा अपने पवित्र शरीर की पालना करना चाहिये । जैसे कि क्ल्पना करो कि एक व्यक्ति पवित्र गोदुग्ध के द्वारा निर्वाह करता है और एक मदिरा पान द्वारा अपना पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहता है सो इसका परिणाम पाठकों पर ही छोडते हैं कि वे स्वयं निर्णय करें कि किसका जीवन सुख पूर्वक व्यतीत हो सकेगा ? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ अतएव सिद्ध हुआ कि आर्य और भक्ष्य आहारादि के - सेवन से सुख पूर्वक शरीरादि की रक्षा और धर्म का पालन किया जाता है । ५ जिस प्रकार आर्य और भक्ष्य आहारादि द्वारा धर्म पुर्वक निर्वाह होसक्ता है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी औपर ये मेनून की भी अत्यंत आवश्यक्ता है । क्योंकि जिस प्रका स्वदेगी आहार शरीर की रक्षा में उपयोगी मानागया है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी औषध भी शरीर की रक्षा में मरम उपयोगी कथन किया गया है। कारण कि जिम देश के ज वायु के सहारे जीवन व्यतीत किया जाता है ठीक उसी देश मे उत्पन हुए औषध भी शरीर को हितकारी माने गए हैं । प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि स्वदेशी औषध के निना विदेशी औषध के सेवन से भक्ष्य और अभक्ष्य तथा पवित्रता और अपनियता का भी विवेक नहीं रह सक्ता । था सवथा माय मूल मे रोग की निवृत्ति भी वे औषधि नहीं कर सक्ती । इसी कारण से प्राय जिस प्रकार औषधिया घढगई हैं उसी प्रकार रोग भी वृद्धि को प्राप्त होते जा रहे हैं। r क्योंकि स्वदेशी भोजन ही प्रमाण पूर्वक किया हुआ रोगों के शान्त करने में समर्थता रखता है । तो भला फिर स्वदेशी औषधि का तो कहना ही क्या है ? Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ तथा जो लोग रोगी को बलात्कार में भोजना क्रियाओं के क्राने की पेठार करते हैं वे बडी भूर करते हैं । क्योंकि उनके मनमें यह यात पसी होती है कि रोगी को कुछ सा लेने से शक्ति आजायगी परतु वे इस यात की ओर ध्यान नरी देते कि जय रोगी को शक्ति आजावेगी तो फिर क्यरोग को पत्ति नहीं आयगी अर्थात अवश्यमेय आयगी। __ अर्थात् जो रोग दस दिन म गात होता होगा यह माम भर में भी शात हो या न हो। इसलिये गेग की दशा में उपग्राम फराण अत्य रामप्रद माना गया है तथा उपवाम चिरिरतात प्रथों में उपयामादि पियाओं का पटा महात्म विपलाया गया है । बडे से यह रोग भी बहुत से रोगियों ने उपवासावि द्वारा गात किये हैं। __ अताव लेप का साराश इतनाही है कि विशेष औषधियों के वश न पहते हुए पेचर उपवासादि द्वारा ही, रोगको शात कर लेना चाहिये । जिस प्रकार स्वदेशी ओपधी हितकर है ठीक उसी प्रकार स्वदेशी चेप की मी अत्यत आवश्यक्ता है क्योंकि स्वदेशी वस सपनो शुद्ध होता है और दूमरे परने म विदेशी घल की, अपेक्षा में अधिक समय पश्येत चल मला है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ F - क्योंकि बहुत मे विद्वानों का कथन है कि विदेशी वत्री बहुत मे अपनि पदार्थों का प्रयोग किया जाता है । में ta tatat an or refer पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता तथा स्वदेश का व्यय भी न्यूनतर होता है प्रतएव हे मेरे प्यारे पुत्रं । स्वदेशी वेप या स्वदेशी वस्तुओं का देश हित के लिये अवश्यमेव प्रयोग करना चाहिये । 1 क्योंकि विद्वानों का कथन है कि जिम व्यक्ति का स्वदेशी से प्रेम नहीं है, वह व्यक्ति स्वभूमि का शत्रु माना ता है। तथा यदि पवित्र जीवन बनाना चाहते हो वा साधा सीवन व्यतीत करना चाहते हो तथा देश वा धर्मका अभ्युदय आहते हो तो स्वदेशी पदार्थों का सेवन करना चाहिये । - पिताजी । यदि स्वदेशी पदार्थ किमी प्रकार की मजावट न कर सकें तो क्या फिर विदेशी पदार्थों का भी सेवन न करना चाहिये ? 1 पेता -- मेरे परम प्रिय पुन निर्वाह करने में तो कोई पदार्थ बाधाजनक नहीं माना जाता । किन्तु की पूर्ति के लिये स्वदेशी या विदेशी पदार्थ तृष्णा कोई भी अपनी सामर्थ्यता नहीं रसता । तथा जैन शास्त्रों के देखने से निश्चित होता है कि छट्ठे दिखत Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या देशावगाशिक प्रन का मुख्योपदेश सदेगी, पदार्थों का मेपन परनाही है। अताव सर्व सुरु, जनों को योग्य है कि वे सबर ग्रत के आश्रित , होकर स्वदेशी पदार्थों के सेपन में अपने जीवन को पविध यनाय निमसे मुगति के, अधिकारी , यन जाये। साथही इस बात का भी ध्यान रहे कि निस देश में निसका जन्म हुआ है उमी देश का उसके लिये प्राय जल वायु आदि हितकर होते हैं। अत प्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि वह अपने उप्तन्न हुए देश के सम्बन्ध का यथाविधि पूण उपदेश या ध्यान रक्से। पाठ चारहरॉ। कुप्रथाएँ। प्रिय मित्रों । सुमाग में चलने से ही प्रत्येक प्राणी मुखों का अनुभव कर मत्ता है । जिस प्रकार धूम्र शाटी (रेलगाडी) ( वाप्प शक्टी ) समीय रया (लेन ) पर चरती हुई अपने अभीष्ट स्थान पर मुख पूर्वक पहुंच जाती है, ठोर उसी प्रसर जो व्यक्ति सुमार्ग पर चलता है यह मुम पूर्वक निर्माण मार्ग पर आरूढ हो ही जाता है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि वह धूम शटी स्वगमन स्थान से स्पलित हो ___ अर तर यह अपनी वा जो उसपर, आम्द हो रहे हैं उन मुवों की हानि करने की कारणीभूत बन जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति कुमार्गगामी 'होता है वह अपना या उसके अनुकरण करने वालों का समका नाश करने का कारणभूत हो नाना है। क्योंकि कुमार्ग उसी का नाम है जिसपर चलने ममय अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़े । अन्त में विपत्तियों में फसकर विपत्तिरूप ही होना पडे । मुमार्ग उसी को कहते हैं कि जिसपर सुसपूर्पक गमन उरत हुए अभीष्ट स्थान पर पहुंचा जाय । ठीक इसी प्रकार आत्मा भी मुमार्ग पर चलता हुआ स्वकीय अभीष्ट स्थान निर्वाण होजाता है। __ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मनुष्यों के सुमार्ग या कुमार्ग 'कौन २ से हैं जिन्हो पर चलने में आत्मा सुस या दु सौ का ठीक २ अनुभर फर सक्ता है और किम प्रकार आमा आत्म-विकास कर सकता है। इस प्रकार की शकाओं का समाधान इस प्रकार से किया जाता है कि जिस प्रकार साधुत्ति में उत्सर्ग वा अपवाद मार्ग कथन किये गए हैं और उक्त दोनों मागों के होकर साधु अपना मल्याण कर सक्त हैं ठीक उसी गहस्था के प्रतों में भी उक्त दोनो मार्ग लागू पडते हैं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतु जो दोना मागों का उलंघन कर चरते हैं उह कुप्रथाए, वा फुमार्गगामी कहा जाता है जैसे कि --- वृद्ध-विवाहः-गृहस्थाश्रमयाले आत्मा गृहम्यावासमें नियास करते हुए विवाह आदि सरसार किया ही करते हैं। किंतु जो अनुचित या व्यवस्था से विपरीत वृद्ध विवाहादि होते हैं वे गहस्थाश्रम के विध्यमक माने जात है क्योंकि उनके द्वारा जो २ विपत्तियाँ घुल म उप्तन्न होती हैं ये लोग की दृष्टी से बाहिर नहीं है । तथा समभाव द्वारा यदि विचार पर देखा जाय कि जिम प्रकार एक साठ ' यीय घर (वृद्ध ) दश वर्षीय कुमारी के साथ वेद मम्री द्वारा विवाह पर प्रसन्न होता है यदि इसके विपरीत साठ वर्षीय पुढिया एक दा वर्षीय कुमार के माथ विवाह करे तो क्या वह अपने मन में प्रसन्न न होगी? जिम प्रकार उस बुढिया ये विवाह का लोग उपहाम करने लगेंगे तो क्या रोग उम वृद्ध ये विवाह का उपहास नहीं करगे ? अतएव युद्धविवाह जाति, पुल व धर्म : का विधमा है और व्यभिचार के मार्ग को सोरने वाल है, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को इमया प्रतिवाद करना चाहिये। इसी प्रकार जाति धर्म के नियमावली म इमफे विरोध के लिये दण्ड नियत कर देना चाहिये जिसमे इसका प्रत्येक गण (बिरादरी ) से यहिष्कार किया जा सके । क्योंकि जब Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या अपने यौवन के पथ पर पाद ( पग ) रसने लगती है दव वह वृद्ध अपनी परलोक यात्रा के लिये प्रस्तुत होने लगता ६ । सके पश्चात् जो उस कन्या की वा युवती की दशा होती है यह मत्र के समक्ष है इसलिये उसके दिग्दर्शन इराने की आवश्यक्ता प्रतीत नहीं होती। अतएव प्रत्येक जाति से पृद्ध विवाह का बहिष्कार किया आना चाहिये। पन्या विनायः-जिस प्रकार वृद्ध वियाह धर्म, जाति या रेश की हानि करने याला घतलाया गया है ठीक उमा प्रकार कन्या निन्य कृत्य मी हानि कारक क्थन दिया गया है। जो लोग महा लालची हैं वे लोभ के पशीभूत होकर अपनी प्यारी पन्यानो को बेचकर अयोग्य व्यक्तियों को समर्पण कर देते हैं जिससे उन बालिकाओं को फिर नाना मनार के कष्टों का सामना करना पडता है कारण कि अयोग्य व्यक्तिया समझती है कि हमने यह पदार्थ मोल लिया है, इसलिये जिम प्रकार हम चाहे इसके माथ बर्ताव कर सत्ते हैं। सो इसी आशा से प्रेरित होकर फिर वे उन बालिकाओं के साथ राक्षमी व पैशाचयी व्यवहार करने लग जाते हैं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 १६४ परन्तु वे घालिया निश्चित अपने आपको समझती हुई उन पैशाचरी यहारों को सहन किये जाती है निसा परिणाम धर्म या जाति अभ्युदय पे लिये अत्यत याधा जनर देखा जाता है । अतण्य दया-धर्म के मानने वारों को योग्य है कि इस अत्याचार को अपने : गण से गाहिर करने की चेष्टाए करे । क्योंकि निरादरी पे मुखिया इमरिये होते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वच्छता पूर्वक कोई काम करने लगे तो उमका प्रतियाद करते हुए उमो शिथित करें। जय गण के स्थपिर इस ओर लक्ष्य ही न दें नो मला पिर गणोन्नति या जाति सेयो तथा जाति रक्षा किम प्रकार रह सत्ती है ? , आवश्यक सून घे गृहस्थ ७ ये प्रत में , " के वाणिज्य" के पाठ से श्री भगवान ने इस कृत्य को धमोदान के नाम से घतलाकर इसके छोडने का उपदेश दिया है । सो क्न्यी विषय से जो २ दोष दृष्टिगोचर होते है वे सब के सामने हैं । इसलिये इस कृत्य को मर्वथा छोड देना चाहिये। पुरुप विक्रय-जिम प्रकार कन्या विश्य महा पापजन्य कृत्य है ठीक उसी प्रकार बालक विक्रय या पुरुप विक्रय भी पापजन्य कृत्य है क्योंकि जिन दोषों की प्राप्ति कन्या विनय से होती है वहीं दोप पुरुष विनय में भी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ | पति होते हैं । अतएवे किसी कारण के उपस्थित होजाने पर का चित्र वा पुरुष निक्र्य ये कार्य न करने चाहिये । बहुन से कार्य धर्म विरुद्ध होते हुए भी देश विरुद्ध होते। परन्तु यह उक्त कार्य धर्म और देश तथा जाति यदि सभी के विरुद्ध है । इसलिये मुज्ञ पुम्पी को इन या कासनाति से बहिष्कार कर देना चाहिये । ७ off see प्रकार उक्त कार्य सर्व प्रकार की हानि करने वाले बतलाये गए हैं, ठीक उसी प्रकार व्यर्थ o भी हानि करनेवाला कथन किया गया है । परन्तु प्रश्न यह उपस्थित होता है कि व्यर्थ व्यय किसे कहते हैं ? इस कार की शक् के उत्तर में कहा जानी है कि "क्षेत्र व विविध धर्मपान कार्य पात्र काम पात्र चति' -- पा' तीन प्रकार से कहा जाता है जैसे कि, धर्म पार्न, कार्य पान और काम पान । सो स्वर्ग और मोक्ष के लिये धर्म पात्र कंथन किया गया है । इस लोक की आशा पूर्ति करने के लिये पान दान माना गया है और काम सेवन की वृद्धि के लिये काम पात्र कंथन किया गया है। जैसे श्री आदि की श्री। तीनों पात्रों के अतिरिक्त व्यय किया जावे तो वह व्यर्थ व्ययं कथंत किया गया है जैसे कि, वैश्यानृत्य, भाड My great का अवलोक्न इत्यादि स्थानों में धन व्यय करना व्यर्थं व्यय माना गया है क्योंकि जिस प्रकार Aud 7 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भरम म घृत डाला हुआ व्यर्थ जाता है ठीक उमी प्रकार " उक्त स्थानों में धन व्यय दिया हुआ किमी भी कार्य की सिद्धि करने में मामर्थ्यता नहीं रखता। इमरिये प्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि यह व्यर्थ व्यय करने से बचता रहे और साथ ही धर्म, अर्थ, और काम इन तीन वर्ग या यथोचित रीति से पालन करता रहे। क्याति प्रमाण से अधिक सेयन क्येि टु स्थान पर हानि के कारणीभूत बन जाते हैं। । । अताव निष्कर्ष यह निकला कि पानी के अनिरिक्त सर्व, व्या व्यय ही जानना चाहिये। __ साथ ही विवाह आदि प्रिया करते समय जो प्रमाण या नियम से अधिक प्रियाए पी जाती हैं ये मर्य व्यर्थ न्यय मे ही जाननी चाहिये, क्याकि इन सस्कारों के समय तो गण के स्थविर होते हैं ये दश या काल के अनुसार नये • नियमां की ग्चा करते रहते हैं, जो देश और कार के अनुमार के नियम कार्य साधक पनजाते हैं। उनका विचार यह होता है कि इन नियमों के पथ पर धनाढ्य वा निधन सुस पूर्वक गमन कर मागे जिससे किसी को भी बाधा उपस्थित न होगी। जिस प्रकार, राजमार्ग, पर,,सर्व व्यक्ति सुग्य, पूर्वक गमन कर मक्ते हैं और गमन करते रहते Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ है ठीक उसी प्रकार नियमों के पथपर भी मर्य गणवामी चलत रहते हैं । परन्तु क्मिी वल या मद के आश्रित होकर उन नियमों के पालन करने की परवाह न करना तथा उन नियमों को छेन्न भेदन करदेना यह योग्यता का लक्षण नहीं है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को योग्य है कि वह देश काल का टीक ज्ञान रसते हुए व्यय के घटाने की चेष्टाए करते रहें। तथा उन नियमों के छिन्न भिन्न करने की चेष्टाए कदापि न करें। तथा यह गत भली प्रकार से मानी हुई है कि जो पदार्थ परिणाम पूर्वक सेवन किये जाते हैं वे किसी मार की बाधाए उपस्थित नहीं करते । किंतु जो परिणाम से बाहिर सेवन करने म आते हैं वे पिसी प्रकार से भी मुसपद नहीं माने जासक्ते । जिस प्रकार प्ण काल मे परिणाम से सपन किया हुआ जल, आयु का मरक्षक होता है ठीक उसी प्रकार परिणाम मे अधिक सेवन क्यिा हुआ आयु के श्रा का कारण बन जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक पाक विपयं में जानना चाहिये।' व्यर्थ व्यय उसी का वास्तव म नाम है जो सासारिक लिहि या वार्मिक कार्यों की सिद्धि के विना किया जाय । - 4 यदि ऐसा कहा जाय कि जर हेमा रानि के समय नृत्यादि को देखते हैं तो क्या उनके देखने से हमारी का सिद्धि नहीं हुई है। अवश्य हुई है। क्योंकि जोगी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखने की अभिला भी उसकी प्रतितो अवश्य होगाई इम का पे उत्तर में पृहा जाता है कि उसने नाम प्रचार के मन म मल्प उत्पन्न हो जाया करते है TE यहत में मान्य प्राय: अशुभ होते है और साथ है? पमाचार दी और पग पढ़ने गगनाता है इतना ही नहीं , यदुत भी अनभित आत्माए फिर मार्ग में गगन यग्न पाई पानाती है। इसरिये अय विचार पर देगााय मो र ! नृत्य में दबने में जो धन पा व्यय किया था पावित काम में आया ? अत निममें सामारिक या पारमार्थिक को ९१ मी मिद्धि न हो, पेयल इद्रियों के ही तृप्नि परने या मार्ग है। उमी पो ध्यध्यय पहा जाता। पास्ते ऐसी क्रियाओं में पचा चाहिये। मृतर मम्बार के पश्चात् भोजन ( मोसर)।निस प्रकार, त्यादि इंद्रियों की रिश के कारण व्यर्थ व्यय में वर्णिन, दिये गये हैं ठीक उसी प्रकार पहुत से लोग भूतक सस्कार, या उसके पश्चात मृत महोत्सव के रूप में जीमनवारादि । किया परते हैं। ये प्रिया भी अयोग्य प्र शामविहीत होने से इयर्थ व्यय करने में मूल कारण मन. जाती हैं। जैसे कि जप फिसी की मृत्यु होती है सब असके वियोग का दुमा प्राय सम्बन्धीजनों को होता ही है। हा, इतना विशेष अवश्य है कि जिस प्रकार की मृत्यु उसी प्रकार का Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ विका यह होना स्वाभाविक बात है । जैसे कि एकतो युवा पुरुष की मृत्यु हुई और दूसरे एक ९० वा. सौ वर्ष के पुरुष की खुई। पतु मृत्युधर्म समान होने पर भी अवस्था के , कारण से नियोग में विभिन्नता अनुश्य देसी जाती है । Ty लोक से लिखना पडता है कि उस विभिन्नताने लौकिक मैं और ही रूप धारण कर लिया है, जैसे कि - युवा की, मृत्यु समय अन्य नियोग और वृद्ध की मृत्यु समय अत्यत प्रमोद +3 ज्ञ ५ ना ही नहीं किंतु उपहास्यादि के वशीभूत होते हुए उम इ के गर की दुर्दशा देखने में आती है । कोई छज्ज (सूप 1 फूटा ढोल बजाता है, कोई, असभ्य गीत गाता है, कोई ! ★ शरम नाचता है इत्यादि किया करते हुए उस वृद्ध वो बड़े कष्टी के साथ मृत्यु सस्कार के स्थान तक पहुंचाते हैं । फिर अभि-सरकार के समय मे भी उसके शव की दुर्गति की जाती है तो भला बिचारने की बात है कि क्या ये नियाए आर्य पुरुषों के लिये लज्जास्पद नहीं है ? अवश्यमेव हैं । तथा क्या इन क्रियाओं के करने से कोई योग्यता पाई जाती | कदापि नहीं | f ६ । H 1 す 4 T "अरण्य इस प्रकार की क्रियाओं का परिहार अवश्यमेन के नेताओं को करने योग्य है । तथा " मृत्यु - सरकार के रात बहुत मे गणों में प्रथा है कि ये जीमनवार (मौसर ) करते ई। कई स्थानों पर निर्धन परिवार को केवल गण के भय से उक्त क्रिया करनी पडती हैं और वे दोनों प्रकार से दुसित Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H Se होते हैं जैसे कि तो उन समयों का वियोग दूम गणगय से व्यर्थ व्यय । क्योंकि उसके पास इतना पर्या धन नहीं होता जिससे वे विवाद -मस्कार के समान मृत || संस्कार के लिये ज्ञानि भोजन कर मर्के । अतएव गण के नेताओं को योग्य है कि इस प्रकार की कुप्रथाओं या विरोध करें । तथा जो शाति जा उस मोजा में अपने मोचन साने के लिये उन कियाओं के परने में अपनी महाभूति प्र करते है यदि उन लोगों को पम्पनियों वे तमाशा ( नृत्य ) की ! तरह पीस या श्रीस मुद्राओं देनी पड़े तब उनको महज में ही निश्चित होता कि मृतक के सरकार महोत्सव की मिठाई का कितना मूल्य पडा है | अतएष इतना महंगा पदार्थ हम नहीं या । शोक से पहना पढता है कि अनेक धार्मिक सस्था बिना सहानुभूति के मृतक शय्या पर गया किये जारही हैं और कई घूमते हुए दीप की तरह डाय डोल हो रही है। जाति के अनाथ याक या पालिकाए भूस के मारे विधर्मी कर रही है और अनेक विधवा विना सहायता के कदाचार में प्रविष्ठ हो रही हैं। श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पवित्र सिद्धात बिना प्रचार के अनेक आक्षेपों का स्थान पनरहा है तथा जैन Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ वने प्रचार किये व अनेक आत्माए अघकार मार्ग में गरन कर रही हैं । 17 ** T इन विषय की ओर उन महानुभावों का ध्यान कभी नहीं जाता। यदि उनसे इस विषय में कहा जाय से ही उत्तर प्रदान करते हैं कि क्या हम अपनी शानन रीति को छोड़ दें ? सो यही अज्ञानता है । क्योंकि 1 है वस्तु के प्रचार का द्रव्य, क्षेत्र, फाल और भाव माना है - 1 ' ↓ ( f यो जब यह प्रथा आरंभ हुई हो तब उस समय यह बामसेफ पर समृद्धि शालि बना हुआ था । थे 'किसी frent area अपनी शाति में प्रीति भोजन द्वारा करनी प्रो व्यक्ति अपना सौभाग्य समझता होगा । अनुमान से प्रतीत होता है कि जैसे ब्राम्हण लोगों मृतक के पश्चात श्राद्ध कल्पन कर लिये थे ठीक उमी कार सुयोग्य व्यक्ति ने श्राद्ध यो कल्पित होने पे धारण न मानते हुए पेट शाति में मृतक के नाम पर भाति भोजन स्थापन पर दिया होगा । सो जय देश या प्रत्येक घर की द दशा ही नहीं रही है तो फिर उठ जिओ के करने की ate क्या आवश्यता है ? इमे मो अब यह मया अच्छी प्रतीत होती है कि उम मृतक से उसके मम्यन्धियों की यथोचित विधि पे पक्ष मे सहानुभूति की जाय । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ताए अब्भुट्टे यव्य भवति ७ साहम्मि, वाण मधि करणसि उप्पणति तथ्य अणिरिसतो वस्तिो अपेक्ख'गाही मज्झत्य | भाव भूते कहण माहमिया अप्पसद्दा अप्पझझा अप्पतुमतुमा उवसामण ताते अब्भुठ्ठे यव भषति ८ * Pr} ठाणाग सून स्थान ८ सू ६४९ ( समितिवालां ) 1 T अर्थ -- श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी प्रति पा करते हैं कि हे आयों ! आठ स्थानों की प्राप्ति में योग काय करना चाहिये | प्राप्त कार्यों में उसके रसने के लिये यत्न करना चाहिये । शक्ति क्षय समय तक इनका पालन करना 1 + , 2 - चाहिये । उत्साह पूर्वक इाम पराक्रम करना चाहिये । अर्थात् किसी प्रकार से इन स्थानों के पालने में प्रमाद न करना चाहिये जैसे कि → १ जिस ૩ श्रुत लिये उद्यत हो जाना चाहिये । २ सुों हुए श्रुत धर्म को विस्मृत न करना चाहिये । पाप कर्म का सयम द्वारा निरोध करना चाहिये । 1 'q f"} ↓ 1 } }-- ४ तपस्या द्वारा प्राचीन कम का निर्जरा कर देनी चाहिये " अर्थात आत्म विशुद्धि करनी चाहिये । म + धर्म को पूर्व नहीं सुना है उसके सुनने के + मद Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ ५ असगृहीत जन को सगृहित करना चाहिये । अर्थात अनाथों की पालना करना चाहिये । M H こ ६ as को आचारगोचार सिसलाना चाहिये । ७ रोगियों की घृणा छोड़कर सेवा करनी चाहिये । ८ यदि मद्धर्मियों में कलह उत्पन्न होगया हो तो राग और द्वैप से रहित होकर तथा किसी भी आशा को न श्वकर केवल माध्यस्य भाव अनलम्बन कर उस क्लेश को मिटा देना चाहिये । कारण कि छेश के ज्ञात होने से अविनय के वृद्धि करने वाले वाक्यों का अभाव होजाने से केवल शाति का राज्य स्थ पन होजायगा । कारण कि सम प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली एक शांति देवी है सो जब इस देवी का आगमन होता है तब उसी समय नाना प्रकार के मुस या विस्मय उत्पादन करने वाली नाना प्रकार की शचिया आत्मा में प्रादुर्भूत होने लग जाती है । फिर क्रमश आत्मा निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है । अतएव व्यर्थ व्यय को छोडकर श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी की प्रतिपादन की हुई शिक्षाओं द्वारा अपना जीवन पवित्र बनाना चाहिये । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ लक्षण है। परोपकार में अदरुनी उचे प्रकार का मान होता है। यद्यपि प्रेम की अपेक्षा परोपकार वृत्ति का दर्जा छोटा है तथापि म्वार्थ वृत्ति की अपेक्षा इमका दनों बहुत ही बड़ा है। यद्यपि परोपकारी अपने स्वार्थ का त्याग करता है तथापि उसके अतरग म परोपकार के बदरे महान लाभ होने की आशा रहती है। परोपकार वृत्ति धोरे २ मनुष्य को प्रेम की तरफ लेजाती है। परोपकारी के हृदय में अपने भावी फ्ल्याण की सुदर आशा होती है। यद्यपि यह नहीं है तथापि वर्तमान स्थिति के लिये तो उत्तम ही है । अपना पेट तो कौए और कुत्ते भी भरते हैं, मगर दूसरों के दु सो को दूर करने में अपने जीवन की आहुति करने वाले बहुत ही थोडे होते हैं। महात्मा लोग कहते है कि अपनी शक्ति के अनुसार तुम दूमरों का मदद क्रो, तुझें अगर मदद की जरूरत होगी तो तुम में विशेष शक्तिमाले तुझारी मदद करेंगे। न तो तुम पूर्ण हो और न इच्छाओं या आवश्यक्ता आ मे रहित हो, इसलिये दूमरों की इन्छाए या आवश्यक्ताए तुम पूरी करो। तुह्मारी आवश्यक्ताए और इच्छाए भी पूरी की जायेगी। मनुष्यों को यह विचार करना चाहिये कि हमारे पास इतने माधन नहीं है कि हम दुमरों की सहायता कर सकें । तुझारे पास जितनी शक्ति या सायन हैं उनमें थोडासा अश भी तुम दूमरों की सहायता के लिये खर्च करो। जिमको तुमसे भी हुत ज्यादा जरूरत Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ है उसको दो। हो सकता है कि तुम नये कुए वावडी न खुदवा मा, पानी की प्याउए न लगवा मको, मगर एक रोटा पानी ता वास्तविक प्यास वाले को पिला ही मक्ते हो । भले तुम मदानत न पुरवा सकते हो मगर भूखे को एक रोटी तो दे ही सक्ते हो। भले तुम धर्म शाला न बधवा सकते हो मगर धूप से झुलसते हुए को, मर्दी से ठिठरते हुए को अथवा पानी में भीगते हुए को तुम अपने मकान में या चबूतर पर तो जगह जरूर दे सकते हो। भले तुम मुफ्त आपधालय र खुलवा सके हो, परतु रोगात पडोसी के लिये कहीं से लाकर औषध तो देही सक्ते हो। भले तुम दुसी का दुस नहीं मिटा सकते हो, परतु भीठे शब्द बोलकर उसे आश्वासन तो अवश्य दे सकते हो। दुस में डूबते हुए मनुष्य को आश्वासन भी बहुत कुछ उपार लेता है, आधा दु स दूर कर देता है । भरे ही धर्म के धडे व्याख्यान तुम न दे सक्ते हो मगर गुरु महाराज के मुग से सुनी हुई धर्म की बातें तो दूसरों को सुनाही सकते हो। भूले हरे को भले तुम उसके अभीष्ट स्थान पर न पहुचा मक्ते हो, परतु उस स्थान का पता तो अवश्यमेव बता सकते हो। इस सरह यदि छोटे २ उपकार के काम करने का अभ्यास डालोगे तो अत में तुम में महान कार्य करने की ताक्ति भी प्रक्ट होगी। यदि स्वय तुम कोई उपकार न क Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम् । सो परोपकारी गायों के माय Trit जोश का ममागम अपरमेय यगदी। जिगदी ना हे गरको पामाथिक मन्द ही मिली त उनको पद मिमी परोपपारा। प्रत्येक माय को मेरे ही a परोपपार करणे फा पमा पारय । गा करा मे परोपमा परी ओर मोर ग मिलेंगे। प्रतिभा तुमारी पृति परोपकार में अदर ही रहेगी। सरकार कगम अपना जीवन बिताते हैं , मदान पुरयों के आगीवर मिण है। नया लप निमल बारमिमानों पाता है। पेपर पद पाने के योग्य होने है।ममा में एपी বু সামা সাল যা বা রুম বারে आपाती है। आत्म शानिया के विषामित दो बार पर मनुष्प दुनिया के प्रसारक महारमाओं को जी में आता है और उम समय परोपकार के पदले इममें प्रेम के साभारने गहने गाई । यद प्रेमी पाता है और अनमें पर परमात्मा फे माग एक रुपया मापारी प्राणी आम सतिया पर पता 7. परम शाति पाता है। यह परिणात पोपहारी र प्रेम मय पीपा मिशा का है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य। जिस प्रकार आकाश मय पदार्थों का आधार है और मव पदार्थ आकाश में आधय रूप में ठहरे हुए हैं ठीक उसी प्रकार मर्व गुणों का आधार एक प्रह्मचर्य ही है । तथा जिस प्रकार एक वृक्ष के आश्रित अनेक पर पुष्प आर फल ठहरते है ठीक उसी प्रकार प्रत्येक गुण का आश्रयभूत एक प्रक्षचर्य तथा जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को जगती का आश्रय है ठीक उसी प्रकार प्रत्येक गुण प्रवचर्य के आश्रयभून होर रहता है। __ तथा जिस प्रकार सब ज्योतियों में सूर्य की ज्योति अत्यत प्रकाशमान है ठीक उमी प्रकार प्रत्येक गुणों में ब्रह्मचर्यरूप गुण अतीय प्रकाशमान है । तथा जिम प्रकार प्रत्येक शान्तमय पदार्थों में चन्द्रमा शात और प्रकाश गुण के धारण करनेवाला है ठीक उसी प्रसार प्रत्येक प्रतों में अपने अद्वितीय गुण के धारण करनेयाला ब्रह्मचर्यनत है। तथा जिम प्रकार समुद्र गभीरता गुण से युक्त है ठीक उभी प्रकार सर्व गुणों का आश्रयभूत एक ब्रह्मचर्य व्रत है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएर प्रत्येक व्याक्ति को शारीरिक वा मानसिक दशा सुधारने के लिये वा लोक आर परो सुधारने के लिये इम महानत को धारण करना चाहिये । यद्यपि ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ब्रह्म में प्रविष्ट होना है । अथात् अपने निन स्वरूप में प्रविष्ट होना है तथा कुशला नुष्ठान भी इसी का अर्थ है तयापि इस स्थान पर मैथुन से निवृत्त होकर फेवल श्रुतज्ञान में प्रविष्ठ होना लिया गया है। क्योंकि यावत्कार विषय विकारों से सर्वथा निवृत्ति नहीं की जाती तावत्काल पर्यत आत्मा अपने अभीष्ट ध्येय की और भी नहीं जा सका अतएव इस स्थान पर मैथुन के दोष और ब्रह्मचर्य के गुण जिनदाम और जिनदत्त दो मित्रों के सम्बाद रूप में लिये जाते हैं जिससे प्रयेक व्यक्ति उक्त व्रत के गुण और उक्त प्रत के न धारण करने से जो अवगुण उप्तन्न होते हैं उनको जानले। जिनदास-प्रिय मित्र मैथुन सेग्न फ्रने म क्या दोष है ? जो आप सदैव फाल इसका निषेध करते रहते है ? जिनदत्त -प्रियवर । इमके दोपों का क्या ठिकाना है ? यह तो दोषो का आगर [सान] ही है। जिनदास-यदि आप इसम अनक दोप समझते हैं तो प्रियवर । कुछ दोषा का दिग्दर्शन तो कराइये Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमे मुझे भी ठीक पता लगजाय कि मैथुन मेवन करने से अनेक दोप उप्तन्न हो जाते हैं । जिनदत्त -प्रियवर । यदि आप सुनना चाहते हो तो आप ध्यान देकर सुनिये । जिनदास -प्रियवर । मैं ध्यान पूर्वक ही सुनना चाहता हू आप कृपा बीजिये। जिनदत्त -सुहृद्वर्य । सुनिये, प्रथम तो सबसे पहिले इस पाप के द्वारा अपने पवित्र शरीर का नाश होजाता है। उमके पश्चात जो शरीर के भीतर आत्मा निवास करता है उसकी जो ज्ञानादि अनत शातिया है फिर उनको भी आघात पहुचता है। जिस प्रकार एक तीक्ष्ण सड्ग [ तलवार ] मे सिर पाटने पर फिर आत्मा भी उस शरीर से पृथक होजाता है ठीक उसी प्रसर इम मेथुन ग्रीडा से शरीर की हानि होने मे फिर आत्मा के गुणों को भी आघात पहुचता है। जिनदास-प्रियार ! इस मैथुन पीडा मे शरीर को क्या २ हानि पहुचती है, पहले यहतो बतलाइये ? जिनदत्त-यायन्मान प्राय अमाध्य पोटि के रोग हैं उनकी उन्नत्ति का कारण प्राय मैथुन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीडा ही है तथा शरीर का कापना, अत्यत परिश्रम [ थकावट ] मानना, पमीना थारम्बार आना, सिर मे चपर आने, चित्त भ्रमण करते रहना' प्रत्येक कार्य के परते ममय मन म ग्लानि उप्तन्न होनाना और अत्यत निपल होजाना इतनाही नहीं किंतु दिना महारे से थैठा भी न जाना, फिर क्षयादि रोगों का उत्पन्न होजाना यह सर मैथुन क्रीडा के ही पल हैं। अतएय तेज के घट जाने से कौनसा शारिरीक दोप है जो इसके सेवन से उत्पन्न नहीं होसता? जिनदास -इसके अतिरिक्त क्या फोई और भी शरीर को हानि पहुचती है ? जिनदत्त-प्रिय । जब क्षयादि रोग उतन्न होगए तो फिर उनसे बढकर और क्या हानि होती होगी। क्योंकि जप गरीर का ही तेज घट गया तो फिर शेप रहा ही क्या ? तथा जब स्वाभायिक पल का नाश हो गया तो फिर उस व्यक्ति को कृत्रिम बल क्या पना सत्ता है ? क्याकि जो पुष्पों पर स्वाभाविक्ता से सौंदर्य होता है यह सौंदर्य क्या घस्रों पर आमता है ? Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापि नहीं । इसी प्रकार जो ब्रह्मचर्य की स्वाभाविक प्राक्ति है तो क्या फिर उस प्रकार की शक्ति कभी किसी ओषध के सेवन से आसपी है ? कदापि नहीं । अतएव मैथुन श्रीडा को त्याग कर परम पवित्र प्राचर्य प्रत धारण करना चाहिये। जिनदास.-मिन या जिन आत्माओ ने ब्रह्मचर्य प्रत को धारण नहीं किया हुआ है उनके सतान उप्तन नहीं होती। जिनदत्त:-ससे क्या आप देसते या जानते नहीं हैं कि जो अत्यत विषयी जन है प्रथम वो उनके सतान उत्पन्न ही नहीं होती। यदि होभी जाती है तो फिर यह अत्यत निर्मल और रोगों से घिरी हुई तथा अल्पायुवाली होती है। जिससे देश का और भी अध पतन हो रहा है। ऐसा कौनसा मुक्त है जो मैथुन कीमा से नष्ट नहीं लिया सता! जैसे कि विधा का नाश किमने कि मटाने, सयम का नाश किसने किया । मैयुनीडाले मनको निर्षल किसने बनाया। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससार म मनसे बढकर अधर्म कौनमा है ? मैथुन क्रीडा चित्त को विभ्रम कौन उप्तन करता है ? मेथुन क्रीडा बालयों को मुग्न की सौन्यता और चचरता के नाम करने वाग कौन है ? मेथुन क्रीडा प्रत्येा प्राणी से पैर करने का मुरय कारण कौन है ? मैथुन क्रीडा. फोनमा गुप्त पाप किया हुआ जनता म शीघ्र प्रस्ट होनाता है? __ मैथुन क्रीडा ब्रह्म से यौन नहीं मेल होने देना, मथुन क्रीडा . . . सय काल मनको मतापाम फोन धारता ता.१. मेथुन क्रीडा ।। राम ने रावण को क्यों माग?" मेथुन क्रीडा के कारण से Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामने महस्र गति राजा को क्यों मारा ?, मैथुन क्रीडा के कारण से. . मनको विभ्रम में सदा कौन डालना है.' मेथुन क्रीडा क्लेश का मुरय कारण कौन है ? __ मैथुन क्रीडा मित्रको गनु कौन बनाता है ? ' मेथुन क्रीडा .. उस पद से गिरा कर नीच पर मे कान स्थापन करता है ? मैथुन क्रीडा. लोक मे निरंज कौन बनाता है ? मैथुन क्रीडा टाक्टरों वा वयो को गुप्त सेवा कौन करता है। मैथुन फ्रीडा गर्मी के गुम रोग किमको होते हैं। 17, मैथुन क्रीडा के करने बाल का मन का नाश कौन काना मैथु - वाला Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव हे मित्र । कौनसा शारीरिक या मानसिक रोग है जो भैथुन प्रीडा से उत्पन्न नहीं होता ? सो मैथुन प्रांडा को छोडकर ब्रह्मचर्य के प्रत क आश्रित होकर अपने जीवन को पवित्र पाना चाहिये। क्योंकि इस नियम के आश्रित होकर सब प्रकार की सिद्धिया उत्पन्न हो सकी हैं जिस प्रकार सर्व प्रकार के वृक्षा में अशोकन (फ्ल्पवृक्ष ) अपनी प्रधानता रसता है ठीक उसी प्रकार मर्व प्रतों में ब्रह्मचर्य घ्रत अपनी प्रधानता रसता है। जिनदास'-अह्मचर्य में प्रत्यक्ष और परोक्ष गुण कौन २ जिनदत्त.-सखे । ब्रह्मचर्य में प्रत्यक्ष और परोक्ष भनेक गुण हैं। जिनदास:-मित्र । आप उन गुणों का यथा विधी उपदेश दीजिये। जिनदत्त.-मित्र | आप दत्त चित्त होकर सुनिये । जिनदास'-.-मै सुनता हू, आप सुनाइये । जिनदत्तः-मेरे परम प्रिय सुहृदद्वर्य १ सयसे प्रथम तो ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने से यह लाभ प्राप्त होता है कि शारिरिक शक्ति का दिन प्रतिदिन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरास होता जाता है क्योंकि बल के लाभ से शारिरिक शक्ति बढती जाती है निम प्रकार जल के सींचने से वृक्ष प्रफुल्लित वा विकसित होने लग जाता है ठीक उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा शारिरिक शक्ति वृद्धि होने लगती है । तथा जिस प्रकार जल सींचने से वृक्ष प्रफुल्लित होता हुआ फिर नाना प्रकार के पुष्प वा फल देने के समर्थ हो जाता है ठीक उमी प्रकार ब्रह्मचर्य के द्वारा जव शारिरिक शक्ति पढने लगती है तब साथ ही उसके फिर आत्मिक शक्ति भी विकसित होने लग जाती है । इमलिये इस व्रत का धारण करना अत्यत आवश्यकीय बतलाया गया है । तथा यह बात भली प्रकार में मानी हुई है कि जब ब्रह्मचर्य की शक्ति आत्मा में होती है तब आत्मा प्रत्येक प्रियाओं के करने में अपनी सामर्थ्य रखता है और फिर प्रत्येक गुण उस आत्मा में स्थिति करने लग जाते है। जिस प्रकार ज्ञान में प्रत्येक पार्थ को विपय करने की शची होती है ठीक उसी प्रकार प्रामचर्य प्रत में प्रत्येक गुण के धारण करने की शति रहती है ? जिनदास:-आत्म पिकाम किसमे होता है Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त --ब्रह्मचय से । चित्त में धैर्य और परमोत्साह रिससे उत्पन्न होता है ? ब्राह्मचर्य से। । और योगाभ्यास में गयाम चित्त किमका होता है? ब्रह्मचारी का। गारिरिस और मानसिक कष्ट निमसे दूर होते है ? ब्रहमचर्य से। आत्मिक शक्ति किसी विकसित होती रहती है ? ब्रह्मचारी की। तप और सयम पिससे वृद्धि पाते है? ब्रह्मचर्य से। - स्फुरण शक्ति शील कौन होता है ? ब्रह्मचारी। हर विधाम किमसे उत्पन्न होता है ? ब्रह्मचर्य से। परमार्थ पथ कौन प्रात्प करता है ? प्रामचारी। निर्माण पद फिमसे प्रात्प होमता है ? ब्रह्मचर्य से! सौंदर्य किससे पडता है ? Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ब्रह्मचर्य से । rate free aढता हैं ? ह्मचर्य से 1 क्या बुडालना किसकी बढ़ती है ? चारी की प्राणभूत चरित्र की रक्षा कौन गमता है ? ब्रह्मचर्य ' 44 सिद्ध परमात्मा से एक रूप कौन पर मता है ? 1 * ब्रह्मचर्य P 1 St ' 1- चिरायुप किस से हो सक्ता है ?... } प्रह्मचर्य से सुसंस्था किससे बनता है ? ब्रह्मचर्य से हद सहनन क्सिसे न मा } 1 4 1 1 * "ब्रह्मचारी f है ? ब्रह्मचर्य मे ★★ t तेजम्मी कोन होता है - 2- 3 च महानी युक्त कौन होता है ? क E Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ इस प्रकार हे मित्र ययं । यह प्रापर्य प्रव गुणों की सानि है। इसी में मर्य गुणों का अताप होता है। जिस प्रकार मिर के बिना घर किमी फाम का नहीं होता कि उसी प्रकार ब्रह्मचर्य प्रत के बिना शेष नियम सिर के बिना घड के समान है। इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति पो इस महामत का ययोफ विधि से सेयन करा पाहिये ।। परतु स्मृति रहे कि यह प्रन दो प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे कि एक मय पत्ति महात्माओं पा और द्वितिय गृहस्थ लोगा का सो दोना की व्याख्या निम्न प्रकारसे पढिये । जिनदास'-प्रियवर । जो आपने संर्य वृति साधू-गीरान के प्रमचर्य विषय का पर्णन किया है मैं कुछ उसपा स्वरूप मुनना पाहता है। जिनदत्ता-मिनयय्य आप इस वित होकर उक्त विषय को सुनिये जिनदास'--आर्य ! सुनताहू सुगाइये जिनदत्त -मित्रयय जय माधु पृत्ति ली जाती है तब उस समय वह मुनि मन, पचन, और काय से उक्त महाप्रत को धारण करता है-जगत मान के स्त्रीवर्ग को माता, भगिनी, या पुत्री की दृष्टि से देखता है। और सदैव काल Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ 4 अपने पनि ध्यान में जगत के रूप का चिंत्वन करता रहता है। इतनाही नहीं किंतु उसकी आत्मा जिस प्रकार लपण की डली जलमे एक रूप होकर ठहर जाती है ठीक उसी प्रकार उस मुनि का आत्मा ध्यान में तहीन हो जाता है अर्थान् ध्याता, ध्येय और ध्यान मे हटकर केवल ध्येय में तल्लीन होजाता है । अतएव वह मुनि नो नियमो मे युक्त 'शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन 'वर सक्ता है । 1 जिनदास -ससे । वे नौ नियम कौन से हैं जिन के द्वारा शुद्ध ब्रह्मचर्य पालन किया जा मत्ता है ? } -- जिनदन्तः - भिनव । उन नियमों के नाम नौ ब्रह्मच की गुत्ति भी कहा गया है क्योंकि उन नियमों से ब्रह्मचर्य भली प्रकार में सुरक्षित रहा है जैसे कि - नव बभचेर गुत्ती ओपत नो इत्थी पसु पटग स सत्ताणि सिजा सणाणि सेवित्ता भवइ ? इसका अर्थ यह है कि नौ प्रकार मे शुद्ध ब्रह्मचर्य की गुमि प्रतिपादन की गई है जैसे कि — ब्रह्मचारी पुरुष जिस स्थान पर स्त्री, पशु और पुमक रहते हों उस स्थान पर नियाम न करें। कारण कि उनके Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ रहन में प्रापर्य प्रत में नाना प्रकार की सफार उHA होने की ममावा की जा मकेंगी। जिनदासा-ससे जप अप मन लदो तम उक्त म्पकिया के माप रहने म क्या दोष है ! जिनदत्त-मित्रवर्य । पाहे कितना ही मन घर हो फिर भी सग अपना फल पतलाये पिना नहीं रहता । अतएव मा दोष के दूर करने के लिये उक व्यक्तिया के साथ निवाम न करना पाहिये । जैसे कि बाजार वाले पाहे कितनी श्रेष्ठ आत्मा हो फिर भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने बहुमूल्य वाले पदायों की रक्षा के लिये पेटी आदि को ताला आदि लगाने ही पड़ते हैं। इसी प्रकार भले ही मन दृढ हो फिर भी प्रमचय पी गुप्ति के लिये उक्त व्यक्तियों के माय महयास न करना चाहिये । जिनदास -मित्रवयं ' इसका कोई दृष्टात देकर समझाओ। जिनदत्त -प्रिययर । सुनिये जिस स्थान पर विद्याल का पास हो यहां पर मूशों ( चूहों ) का रहना हितकर नहीं होता तथा जिस स्थान पर सिंह का वास हो इसके निकट मृग का रहना शांति Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ प्रद नहीं होता । तथा जहा पर साप का वास हो यहा पर पुरुषों का रहना सुख प्रद नहीं माना जा मता । तथा जहापर घुगलो का याम हो उस स्थान पर मज्जन पुरुष भी निष्कलक नहीं रह मक्का । ठीक इसी प्रकार जिस स्थान पर स्त्री, पशु तथा नपुसक निवास करते हों उस स्थान पर ब्रह्मचारी पुरुष पा रहना सुसमद नहीं माना जा मता । तथा जो चारिणी बी हो उसके लिय भी यही नियम है और यह जहा पर पुरुष पशु और नपुंसक रहते हॉ उन स्थानों को छोड़ देवे तव ही ब्रम्हचर्य की गुप्ति ठीक रह सकी है । 1 जिनदासः सुहृदय वर्य मैं अब ठीक समझ गया किंतु अब मुझे आप ब्रम्हचर्य का दूसरा नियम सुनाइये । जिनदत्त प्यान पूर्वक सुनिये "नो इत्थीण कह कहिसा भवइ ॥ २ ॥ ब्रम्हचर्य पुरुष कामजन्य स्त्री की कथा न करे क्योंकि जय यह पुनः‍ काम जन्य स्त्री की कथा करता रहता है तब उसकी आत्मा पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता क्यों कि जिस प्रकार के प्राय मन में सरकार उत्पन्न 1 Page #201 --------------------------------------------------------------------------  Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जिनदाम-मित्रर ! क्या स्त्री पुरुप की कोई भी फया न करनी चाहिये। जिनदत्त-प्रियवर ' सत्य और शील की दृढता सिद्ध करने के लिये स्त्री वा पुरुप की बातें करना हानि नहीं करता किंतु जिमसे मोहनीय फर्म का उदय हो जावे यह कथा प्रम्हचारी को न करनी चाहिये। जिनदास-मित्र मैं ठीक समझ गया । अब मुझे तीमरा नियम सुनाइये। जिनदत्त -प्रिय । ध्यान पूर्वक सुनिये । “नो हत्थीण मेविता भवड ३ स्त्रियों के समूह को मेवन करने बारा न होचे अर्थात् स्त्रियों के माथ बैठना और मदेव काल स्त्री वर्ग के अन्तर्गत ही रहना तथा जिम स्थान पर स्वा पैठी हो फिर उसी म्यान पर जा बैठना इस प्रकार करने से स्मृति आदि दोपों के उत्पन्न होने मे फाम चेष्टाए उत्पन्न हो जाती है। अत ब्रम्ह चारी पुरुप स्त्री का समर्ग न करे। जिनदास-ससे इस प्रकार करने में क्या दोष है? जबकि उसका मन दृढ़ है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदत्त-मिग्रव। जिस प्रकार लाय का पडा अमि के समीप रया हुआ पिपर जाता है तथा घृत अमि के पाम रवम्या हुआ पिघल जाता है या चमक पत्थर के निकट लोहा रक्षा हुआ यह चमक पत्थर की आर्षणता मे सींचा पला जाता है ठीक उसी प्रकार खियाँ के समर्ग मे मन पी गति विकृत भाव को शीघ्र प्राप्त हो जायगी। निममे प्रम्हचर्य प्रव में आघात पहुचो की सभावना की जा मफेगी। अतएव प्रम्हचारी पुरप पियों के समूह के साथ पेठे रहना इत्यादि मियाआ को छोड देये । पारण कि जय अल्प मत्ययाले आत्माआ पा मन स्यत ही चल रहवा है किंतु जय घे नियों का मसर्ग परगे सय तो कहना ही क्या ? जिनदास:-मित्रवर्य । अप इसे मैं ठीक समझ गया किंतु अब मुझे आप पसुर्थ नियम सुनाइये । जिनदत्त-सम्ये । आप चतुर्थ नियम को ध्यान पूर्यफ सुन । "नो इत्थीण इद्रियाणि मणोहराइ मणो रमाइ आलोइत्ता निझमाइत्ता भवइ ४' प्रम्हचारी पुरुष स्त्रियों की इद्रियो को जो Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर और मन को रमणीक हैं उनको न देखे । क्योंकि उनरे देखने से उसके मन में काम राग के उत्पन्न होने की सभावना की जा सकेगी। अतएव वह पुरुप लियो की इद्रियों को न देखे। इसी प्रकार प्रम्हचारिणी स्त्री पुरुषों की इंद्रियों का अवलोकन न करे क्योंकि जो दोष स्त्री को देखने से पुरुष को उत्पन्न होते हैं येही दोप पुरुष को देखने से स्त्री को उत्पन्न हो जाते हैं। जिनदास --मये । इद्रियों को देखने से किस प्रकार से दोप उत्पन्न हो सक्त हैं ? जिनदत्त-मित्रवर्दी जिस प्रकार जिमकी आख दुसती हो रह सूर्य को देखे, जिस प्रकार मृगी रोगयाला पुरुप जर को देसे, जिस प्रकार चोर किसी के पदार्थ को देश तथा जिम प्रकार पतग दीपक की शिसा को लेकर अपने आप में नहीं रहता ठीक उसी प्रकार कामी आत्मा सिमी भी अवयय को देखकर फिर अपना मन अपने वश में नहीं रप सफता। अतएव प्रम्हचारी पुरुष त्रियों के अगोपाग का प्रम्हचर्य की रक्षा के लिये अवलोपन न करे। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ से बाहिर व्यायाम किया हुआ आपत्ति जनक होनाता है ठीक उसी प्रकार अधिक भोजन किया हुआ ब्रह्मचर्य की रक्षा का कारण न होता हुआ प्रत्युत हानि का कारण हो जाता है । अतपय अधिक मोजन न करना चाहिये । जिनदाम - तो फिर क्या भोजन ही न करना चाहिये । जिनदा मित्र । ऐसा नहीं, किंतु प्रमाण से अधिक भोजन न करना चाहिये । यदि भोजन ही न किया जायगा तय प्राणों का रहना अत्यन कठिन हो जायगा जिस से फिर आत्मघात पा पाप लगेगा। 1 जिनदास - मिन। यह तो में ठीक समझ गया । अब मुझे चर्य के सानवे नियम का विवरण कहिये । जिनदत्त से ध्यान पूर्वक आप सुनिये। 'नो इण पुत्र्वरयाइ पुत्र कीलियाह ममरइता भवइ ॥ ७ ॥ मियों के साथ पी हुई पूर्व कामवडा तथा रति उन क्रियाओं की स्मृति धरने से काम विकार के उत्पन्न होने की शका पी जाती है । अत पूर्व भोगो की स्मृति कदापि न परें । इसी प्रकार ब्रह्मचारिणी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ स्त्री-पुरषों की की हुई काम क्रीडा की स्मृति न करे। जिनदास स्मृति करने से किम दोष की प्राप्ति होती है ? 1 जिनदत्त ससे। जिस प्रकार किमी व्यक्ति के साथ किमी कष्ट ये ममय किसी ने सदूवतीन किया और किसी ने उसको और भी कष्ट दिया जन वह व्यक्ति क् मे विमुक्त होता है तन वह किसी समय उन दोनों व्यक्तियों के नि की स्मृति करता है तन जिसने उसके साथ सतय किया था उसका उपकार मानता हुआ उसके प्रति राग भाव प्रकाश करता है । परतु निसने और भी कट दिया था उसके afe की स्मृति करता है तब उसके भावों में सक्रेग और वैर भाव उत्पन्न होने लग जाता है । सो निम प्रकार यह वर्ताय स्मृति किया हुआ राग और द्वेष के उत्पन्न करने का कारण बन जाता है ठीक उसी प्रकार पूर्व भोगे हुए काम की यदि स्मृति की जायगी तब वह भी भावो के बिगाडने का कारण वन जायँगी अतः स्मृति न Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जिनदास तसे' जो बाल-बचारी है उनके लिये तो यह नियम कार्य साधक नहीं मिरा हुआ क्यों कि उसे तो किसी बात का पता ही नहीं है । - जिनदत्तः - मित्रवर्य । जो याल मझवारी हाँ ये पूर्वोत विषयों को सुनकर या किसी पुस्तक से पढकर फिर उस विषय की स्मृति न करें क्योंकि फिर उनको भी पूर्वोष दक्षेपा की प्राप्ति होने की सभावना पी जा सकेगी। निमसे प्रम्हचर्य प्रत में नाना प्रकार की earऍ उत्पन्न होने लगगी । अतएव विषयों की स्मृति न करनी चाहिये । 1 जिनदास-ससे इन रिमा को तो में ठीक समझ गया हू किंतु अब आप मुझे आठये नियम पा विषय यहिये | जिनदत्त ययस्य । प्रेम पूर्वक इस नियम को श्र कीजिये । "नो सद्वाणुवाई नो रूपाणुवाई नो गधाणुवाई नो रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुबाई' ॥८॥ महाचारी पुरुष शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श तथा स्वाप इनमें मूर्छित न होवे | अथात् काम-नन्य शब्द, फाम-जन्य रूप, काम - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्य गध, काम-जन्य रम और काम-जन्य स्पर्श तथा काम-जन्य स्वाया इनमे मूर्छित कदापि न होवे, कारण कि जो अनभिज्ञ आत्माएँ पचेंद्रियों के अर्थों विषय मूर्छित हो रहे हैं वे अकाल में ही मृत्यु प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि ---मृग, पतग, सर्प या भ्रमर, मत्स्य और हाथी, उक्त सन जीव यथा क्रम से पाचों इद्रियों में से एक २ के वश होते ही अकाल मै मृत्यु प्राप्त कर लेते हैं। फिर जो पाचों इदियों के वश में हो जाता है. उस मनुष्य की यात ही क्या कहना है ? इस लिये ब्रम्हचारी को उक्त पाची विपयों से बचना चाहिये । तथा जिस प्रकार मेघ का शब्द सुनकर मयूर नाच फरने लग जाता है ठीक उसी प्रकार कामजन्य शन्दों के सुनने से प्रम्हचारी का मन भी शुद्ध रहना कठिन होजाता है। अतण्व कामजन्य शन्दों को न सुनना चाहिये। जिनदास -मरे में इसे भी ठीक समझ गया। अब मुझे ग्रह्मचर्य के नववे नियम का ध कराइये। जिनदत्त ---मित्ररर्य । अब आप इस व्रत के नर नयम को ध्यान पूर्वक, नो साया मोम्ग्व Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पडियद्वे यावि भवई' सादा वेदनीय कम के उदय होने मे जो मुग प्राप्त होगया हो उस में प्रतिबद्ध न होरे। अर्थात जो सासारिक मुख, मावायदनीय धर्म ये उदय से प्राप्त हो रहे हों उन में मूर्तित न होना भाचारी या मुग्य पर्वव्य है। इम के फ्था परने का सागश यह है कि जब मामारिक मुगों म तिमोजायगा तब उसका आत्मा प्रह्मचर्य मन में पठिनता मे रह मांगा। इसलिये प्रमगारी को यह योग्य है कि यह निमी प्रगर के मुग्यों की इन 7 फरे । निस प्रकार भीतल जल पे मुग को चाहने वाला महिप जल में प्रवेश किया हुना माघ नामक जरचर जीय का भा हो जाता है ठीक उसी प्रकार प्राचारी आत्मा फिर साता के मुप को इच्छा परने मे दुपों का भोगी यन जाता है । सो उत्त विधी से सर्वति महात्मा लोग उक्त प्रत का पालन करते हैं। जिनदास --गृहस्थ को इस प्रत का सेवन किस प्रकार परना चाहिये। जिनदत्त ---मित्रर्य । इस प्रत पा सेवन निम्न कथना नुसार करना चाहिये। जैसे कि प्रथम तो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ को अपनी स्त्री सिवाय धेश्या सग या परनी सग तथा घुचेष्ठा कर्म सर्वथा त्याग देना चाहिये। फिर शुद्ध भोजन और शुद्ध भाचार तथा शुद्ध व्यवहार उसे धारण करना चाहिये। जिनदास.-मित्रवर्य / शुद्ध आचार से आपका क्या मतव्य है? जिनदत्त --ससे जिस आचरण से अपने मन में विकार उप्तन हो जाये तथा जिस आचरण का प्रभाव आत्मा पर अच्छा न पडे उम प्रकार के कदाचारों से मदेव यचना चाहिये। जिनदास -सखे दृष्टात देकर आप मुझे समझाइये / जिनदत्तः-शुद्ध आचार उसी का नाम है जिम आचार से अपने मन में कोई भी विकार उप्तन न होवे। जैसे कि जर कोई पुरुप मास साने वाले की या मदपान करने वाले की तथा श्यादि की संगती करेगा तर उसके मन में अवश्यमेव पुत्सित विचार उप्तन्न होने लग जायगें। अतएर आचार शुद्धि रखने वाला आत्मा जिन स्थानों की प्रतीति न होये तथा जिन 2 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ब्राह्मचर्य प्रत ही है। इमरिये इम प्रा के धारण करने यारे देवां पे मी पूज्य माने जाते हैं। जैसे कि -" देव दाणय गवा जम्प रावस्स किरा पभयारी नमसति दुक्करजे करति ते " अर्थात् प्रह्मचारी को देव, दााय, देव गधर्व देव या और राक्षस तया किमर देव इत्यादि मप ही नमस्कार करते हैं कारण पिइम प्रत पा धारण करना शूर वीर आत्माओं का ही फर्तव्य है। इमलिये हे मित्र ' देश धर्म, या समानोग्ननि रे लिये इस व्रत को अवश्य-मेय धारण करना चाहिये / तया निर्वाण प्राप्ति के लिये इस प्रहमचर्य प्रत को धारण पर मुस दी प्राप्ति करनी चाहिये। जिनदास-मसे में आपरा उपकार माता हू जो आपने मुझ इम प्रत का पवित्र उपदेश पिया है और मैं आपये ममक्ष श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी की साक्षी से आयु पार्थत इस महामत को धारण करता हू और में यह प्रण भी परता कि अब में धर्म या ममानोन्नति के लिये अपना जीवन यापज्जीवन पर्यंत समर्पण यमगा। मैं अपने जीवा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पर्वाह न करता हुआ धर्म या समाज सेवा ही अब करता रहूगा / जिनदत्त ---ससे / आपके पवित्र विचारों की मैं अपने पवित्र हृदय से अनुमोदना करता हूँ और साथ ही श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी से प्रार्थना करता हूं कि वे अपनी पवित्र दया से आपकी की हुई प्रतिज्ञाए निर्विघ्न समाप्त कराए अर्थात् आपमे आत्मिक साहस उत्पन्न हो जावे कि जिससे आप अपनी की हुई प्रतिज्ञाए निर्विघ्नता से और सुस पूर्वक पालन कर सकें। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- _