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________________ - परतुं जहा पर केवल वर्णन इस बातका है कि केवल| दर्शन द्वारा पदार्थों का सामान्य रूप से स्वरूप जाना ' जाता है तब उस ममय आत्मा में केवल दर्शन होता है तथा । इद्रीदर्शनों व्दारा आत्मा को दर्शनात्मा कहा जाता है । क्याकि जय आत्मा उक्त दर्शनों से युक्त होता है तब __ उमकी दर्शनात्मा सज्ञा बन जाती है। ___ यदि ऐमग कहा जाय कि जब बान ही आत्मा में प्रकट होगया तो फिर दर्शन के मानने की क्या आवश्यक्ता है? इस का के उत्तर में कहा जाता है कि --ज्ञान में पूर्व दर्शन अवश्यमेव होता है तदनु ज्ञान होता है इसलिये दर्शन के मानने की अत्यत आवश्यक्ता है । तथा जवतक सम्यम् (अथार्थ ) विश्वास ( दर्शन ) किसी पदार्थ पर है ही नहीं सव तक उम पदार्थ का ज्ञान भी यथार्थ नहीं कहा जामक्ता । अतएव दर्शन का होना सर्व प्रकार मे अत्यत आवश्यकता रसता है। __ यदि एसा कहा जाय कि प्रत्येक मत अपने • दर्शन में दृढ हैं तो फिर क्या उनको दर्शनी न कहा जाय ? इसके उत्तर में कहा जा सक्ता है कि प्रत्येक मत को दर्शनी तो कहा जा सत्ता है परतु उक्त तीन प्रकार के जो दर्शन क्थन किये गए हैं उन तीनों में सम्यग्दर्शन ही अपनी प्रधानता रखता है नत अन्य।
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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