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________________ २४० पुत्र-पिताजी घे जीव तो हम दुख देते हैं फिर उन्हें क्यों न मारना चाहिये। पिता-पुग। वे जीव अपनी असावधानी के कारण स ही प्राय उसन्न होते हैं तो भला यह विधर का न्याय है कि प्रमाद तो आप करें और दड, उन जीवों को ! इससे स्वत सिद्ध है कि यदि सय काम सावधानता पूर्वक किये जॉय तो जीवोप्तत्ति बहुत ही पल्प होती है। इसलिये जू आदि जीयों का कदापि न मारना चाहिये । परतु यत्न पूर्वक जिस प्रकार उनके प्राणों की रक्षा हो सके उमी प्रकार अन्य वखादि में उन्हें रख देना चाहिये । पुत्र --पिताजी । जू आदि के कहने से मैं यह नहीं, समझा कि आदि के रहने से आपका कौन • से जीवों मे सभ्यन्ध है? पिता-पुत्र आदि के कहने में यावन्माग सजीव है। उन ममों का गृहण किया जाता है। मो निरपराधी किमी भी जीव के जानकर प्राण न छीनने चाहिये। क्याकि जप दयायुक्त भाव यने रहेंगे तव प्राणी मयिश और सदाचार से विभूपित होता हुआ अपने और परके पल्याण करने में ममर्थ हो जायगा।'
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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